देश में जाति जनगणना का मुद्दा गर्माया हुआ है। विपक्ष इसे एक ब्रह्मास्त्र के रूप में इस्तेमाल करने की योजना बना रहा है। कॉन्ग्रेस के राहुल गाँधी ने तो यहाँ तक धमकी दे दी कि इसे किसी भी कीमत पर कराना ही होगा। वहीं, बिहार की लालू यादव की पार्टी राजद भी इसे जातीय अस्मिता से जोड़ने का प्रयास कर रही है, जो कि लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।
बिहार की पूर्व राजद-जदयू सरकार ने बिहार में जाति सर्वे कराया भी और इसको आधार बनाकर बिहार में जातिगत आरक्षण की सीमा को 65 प्रतिशत तक दिया था। हालाँकि, आरक्षण की इस सीमा को कोर्ट ने खारिज कर दिया। अब राजद के तेजस्वी यादव और कॉन्ग्रेस के राहुल गाँधी इस जाति जनगणना को पूरे देश में लागू कराने की माँग कर रहे हैं।
अगर जातिगणना हो और उसके आधार पर समाज के निचले पायदान पर लोगों के सरकार कल्याणकारी नीतियाँ बनाए तो यह समाज और लोकतंत्र के बेहद सराहनीय कदम होगा। रॉबर्ट डाहल ने भी कहा है, “किसी देश में स्थिर लोकतंत्र की संभावनाएँ बेहतर होती हैं, यदि उसके नागरिक और नेता लोकतांत्रिक विचारों, मूल्यों और प्रथाओं का दृढ़ता से समर्थन करते हैं।”
हालाँकि, सत्ता पाने के लिए जिस तरह से जातीय गणना को जाति अस्मिता से जोड़ा जा रहा है और उससे समाज में वैमनस्यता और कटुता फैलती जा रहा है। देश में जिस तरह से इस विवाद को हवा दी जा रही है, वैसे में भारत जैसे बहुला वाले देश यह कदम भयावह साबित हो सकता है। वर्तमान में कुछ राजनेताओं की महत्वकांक्षा को देखते हुए यह समाज को जोड़ने के बजाय तोड़ने वाला साबित हो सकता है।
अमेरिकी राजनेता, वकील, राजनयिक एवं लेखक ज़ॉन ऐडम ने लगभग 250 वर्ष पहले कहा था, “मैं यह नहीं कहता कि लोकतंत्र समग्र रूप से और लंबे समय में राजतंत्र या अभिजाततंत्र से ज़्यादा हानिकारक रहा है। लोकतंत्र कभी भी अभिजाततंत्र या राजतंत्र जितना टिकाऊ नहीं रहा है और न ही हो सकता है। लेकिन, जब तक यह टिका रहता है, यह इन दोनों से ज़्यादा ख़ूनी होता है। याद रखें, लोकतंत्र कभी भी लंबे समय तक नहीं टिकता। यह जल्द ही बर्बाद हो जाता है, थक जाता है और खुद को मार डालता है। अभी तक ऐसा कोई लोकतंत्र नहीं आया जिसने आत्महत्या न की हो।”
हालाँकि, जॉन ऐडम जैसे विचारकों का यह दृष्टांत पश्चिमी सभ्यता के संदर्भ में हो सकता है, जहाँ आधुनिक लोकतंत्र या गणतंत्र का उदय ही 17वीं शताब्दी में उदय हुआ। हालाँकि, भारत इस मामले में अलग है। भारत खासकर बिहार, जहाँ जातीय जनगणना का बीज बोया गया, वहाँ सदियों पहले लोकतंत्र का वटवृक्ष फैल चुका था, जो आज की प्रमुख वैश्विक राज प्रणाली का अहम हिस्सा है। लेकिन, कुछ मामलों में यह संदर्भ कथन सटीक बैठता है।
लिच्छवी गणराज्य का उदय एवं अंत
भारत में आज से लगभग 2600 साल पहले बिहार की धरती पर लिच्छवी गणराज्य का उदय हुआ था। यह वज्जि संघ का हिस्सा था। इस गणतंत्र में आज के भारत की तरह की बहुलता थी। यह गणतंत्र बहुत फला-फूला, लेकिन आखिरकार हर गणराज्य कुलों के बीच सत्ता को लेकर आंतरिक विवाद और संघर्ष बढ़ने लगे और आखिरकार इसका पतन हो गया।
दरअसल, मगध साम्राज्य के बगल में लिच्छवी गणराज्य था। इसकी राजधानी वैशाली (बिहार) थी। यहाँ शासन की पद्धति गण या संघ के तौर पर थी। इसे गणराज्य के रूप में आज चित्रित किया जाता है। इस संघ में लगभग 8 कुल के शामिल थे, जिन्हें अष्टकुल कहा जाता है। यह वज्जि संघ नेपाल तक फैला हुआ था। इन सभी राज्यों, जिन्हें महाजनपद कहा जाता है, के प्रमुख यानी राजा इसमें भाग लेते थे।
बौद्ध धर्मग्रंथ ‘दीघ निकाय’ में इस बारे में विस्तृत चर्चा है। ये राजा सभा में एकत्रित होकर गणराज्य के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं रणनीतिक पहलू पर चर्चा करते थे और सर्वसम्मति से गणराज्य की भलाई के लिए काम करते थे। हालाँकि, लिच्छवी सहित जितने भी 16 गणराज्य एवं राजशाही थी, सबका प्रमुख क्षत्रिय (राजपूत) ही होता था। इनमें शाक्य, चेदी आदि गणराज्य भी शामिल हैं।
उस दौरान मगध साम्राज्य का शासक आजातशत्रु लिच्छवी गणराज्य पर आक्रमण करने की योजना बनाई। उन्होंने अपने मंत्री वस्सकार को साथ लेकर भगवान बुद्ध से सलाह लेने के लिए पहुँचे। हालाँकि, भगवान बुद्ध ने इसकी अनुमति नहीं दी। इस तरह लिच्छवी गणराज्य इतना ताकतवर हो गया था, चाहकर भी कोई राज्य इसे जीत नहीं पाता था।
बुद्ध ने लिच्छवि गणतंत्र के भविष्य पर टिप्पणी करते हुए अपने प्रिय शिष्य आनंद से कहा था, “जब तक वे (लिच्छवी गणराज्य के कुल प्रमुख) अपने अपनी सभा में एक साथ मिल-बैठकर निर्णय लेंगे, परस्पर विचार-विमर्श से समस्याओं को सुलझाएँगे, सहमतियों का सृजन करेंगे, अपने वरिष्ठ लोगों का सम्मान करेंगे तब तक उनका गणतंत्र जीवित रहेगा।”
इस तरह यह राज्य आज से लगभग 1000 सालों तक चलता रहा। इस दौरान इस संघ में शामिल राज्यों में हर क्षेत्र में उन्नति हुई। कला, साहित्य, ज्ञान, विज्ञान, आयुर्वेद, चिकित्सा, दर्शन, गणित आदि का खूब विकास हुआ। छोटे-छोटे राज्यों की आपसी शक्ति ने लिच्छवी गणराज्य को अजेय बना दिया था। हालाँकि, आपसी झगड़े ने बाद में इसे कमजोर बना दिया।
गुरुस्वामी अपने एक लेख में लिखते हैं, “गणराज्य का राजा या प्रमुख को हमेशा क्षत्रिय होता था… लिच्छवि, जो वर्तमान नेपाल में काठमांडू घाटी और उत्तरी बिहार के एक बड़े हिस्से पर शासन करते थे, लगभग 7,000 परिवार प्रमुखों एक सभा द्वारा शासित होते थे।” लिच्छवी गणराज्य में तीन प्रमुख पदाधिकारी मिलकर काम करते थे – शासक प्रमुख, उप प्रमुख और सेना प्रमुख।
वज्जि संघ के रूप में लिच्छवी, चेदी, शाक्य आदि जितने भी 8 महाजनपद थे बेहद ताकतवर थे। हालाँकि, गणराज्य होने के कारण इनके प्रमुख युद्ध जैसी राष्ट्रीय महत्व की विषय पर सर्वसम्मति से आगे बढ़ जाते थे, लेकिन आंतरिक राजनीतिक एवं प्रणाली को लेकर उनके बीच अक्सर खींचतान होती रहती थी। लिच्छवी, शाक्य, चेदी गणराज्य में भी यही कहानी थी।
लिच्छवी गणराज्य में कहा जाता है कि कुलीन 7000 परिवार के प्रमुख शामिल थे, जिनमें व्यापारी से लेकर हर वर्ग के लोग शामिल थे। इनमें स्त्रियाँ, ब्राह्मण, दास और नाई को शामिल होने की इजाजत नहीं थी। इस हर वर्ग के लोग अपने-अपने समाज के लिए सभाओं में खींचतान करते। उनके लिए अधिक-अधिक रियायत या फिर अपना प्रभाव चाहते थे।
इससे इन गणराज्यों में वैचारिक विभाजन हो गया। वैचारिक विभाजन के साथ ही उनमें सत्ता संघर्ष भी गहरा होता गया। ये सब कुछ सिर्फ राष्ट्र के बजाय सिर्फ अपने वर्ग को महत्व देने का परिणाम था। परिणाम ये हुआ कि लिच्छवी सहित ये सभी गणराज्य अपनी सत्ता को बचाए रखने पर विशेष ध्यान देने लगे। इससे इनके राजतंत्र वाले मगध एवं कोशल जैसे पड़ोसियों की इन पर निगाह पैनी होती गई।
आपसी खींचतान एवं संघर्ष में लिच्छवी कमजोर हो गए। जो लोकतंत्र की जननी थी, वो अब कमजोर हो चली थी। आखिरकार मगध साम्राज्य के साथ युद्ध में लिच्छवियों की हार हुई। इस तरह मगध ने एक-एक करके सभी जनपदों एवं महाजनपदों को अपने अंदर समाहित कर लिया। इस तरह 16 संघर्ष में लिच्छवि और वज्जियों का नाश हो गया। बाद में गुप्त साम्राज्य में अंतत: नष्ट हो गया।
लिच्छवी सहित अन्य गणराज्यों के पतन का प्रमुख कारण आंतरिक सत्ता संघर्ष एवं प्रभावशाली गुट द्वारा उस सिंहासन पर नियंत्रण की कोशिश के अलावा, उनमें समय के साथ लोकतांत्रिक शासन के प्रति प्रतिबद्धता कम होती गई। आंतरिक सत्ता संघर्ष से लिच्छवियों की एकता और सामूहिक निर्णय लेने की प्रक्रिया कमजोर हो गई। इससे शासन के अधिक निरंकुश और केंद्रीकृत रूपों का मार्ग प्रशस्त हुआ।
आधुनिक लोकतंत्र के लिए सीख
आपसी तालमेल, सत्ता संघर्ष, राष्ट्र के बजाय गुट को प्राथमिकता के कारण जिस लिच्छवी गणराज्य ने दुनिया को पहला लोकतंत्र दिया, वह कमजोर होकर तबाह हो गया। आज की आधुनिक राजनीति को उससे सीखने की जरूरत है। वर्तमान व्यवस्था को यह सीखने की जरूरत है कि सत्ता में किसी एक गुट का प्रभाव समाज उसे निरंकुश बना देता है। निरंकुश समाज में असंतोष उत्पन्न होता है और आखिरकार यह पतन का रास्ता सुनिश्चित करता है।
आज की राजनीति में जाति जनगणना के नाम पर गुटों का, जिसे जाति कहना उचित होगा, सत्ता संघर्ष चल रहा है। इसका केंद्र जाति जनगणना है। इस जाति जनगणना में किसी नेता ने ये नहीं कहा कि सर्वे इस बात की हो कि विकास में क्रम में कितने परिवार पीछे छूट गए हैं, उनकी संख्या गिनी जाए। जाति के आधार पर आज के समाज में अमीर-गरीब का निर्धारण नहीं हो सकता।
किसी राजनेता ने ये नहीं कहा कि इस देश में कितने ऐसे परिवार हैं, जिन्हें दोनों वक्त का भोजन नहीं मिल रहा है। कितने ऐसे परिवार हैं जिन्हें स्वास्थ्य-शिक्षा नहीं मिल रहा है। हर राजनीतिक दल ने सिर्फ यही बात कही कि जाति जनगणना की जाए, ताकि पता लगाया जा सके जातियों की जनसंख्या कितनी है ताकि उसके अनुपात में आरक्षण व्यवस्था लागू की जा सके।
यह माँग अव्यवहारिक एवं अखंडता के लिए खतरे वाला है। जैसा कि हमने देखा कि लिच्छवी सहित अन्य गणराज्यों में किसी कुल (आज के संदर्भ में जाति) का प्रभाव बढ़ा तो वह सत्ता पर अधिकार की बात सोचने लगा और उसका केंद्रीकरण हुआ। जाति जनगणना को आधार बनाकर पिछड़े वर्ग के लिए और आरक्षण की माँग की जा रही है।
वहीं, समय-समय पर पिछड़े वर्ग में अन्य जातियों को भी जोड़ने की माँग होती रहती है। सत्ता प्राप्ति के लिए इनमें अन्य जातियाँ जोड़ी भी जाति हैं, लेकिन उन्हें इसका लाभ नहीं मिल पाता, क्योंकि इन वर्गों में जो जातियाँ समृद्ध और सक्षम हो चुकी हैं वे इसका लाभ स्वयं उठा लेती है। इससे आपसी भेद एवं संघर्ष बढ़ने का खतरा हो जाता है।
जाति जनगणना हो, लेकिन निचले पायदान पर खड़े लोगों की भलाई के लिए हो। यह पता लगाने के लिए हो कि इस देश में हर जाति की संख्या कितनी है और उनमें कितने प्रतिशत गरीब एवं अक्षम हैं, ताकि उस वर्ग का संपूर्ण लाभ उठा लेने वाले सक्षम एवं समृद्ध लोगों को बाहर निकाला जा सके। खुद को लोकतंत्र का रक्षक कहने वाले राहुल गाँधी और तेजस्वी यादव जैसे नेता इसकी गंभीरता समझें।