अब जब दिल्ली में चल रहे तथाकथित किसान आंदोलन के 3 महीने पूरे होने को हैं, हमें लगभग 1.5 वर्ष पहले शुरू हुए एक और ‘आंदोलन’ को याद करना चाहिए, जो अंत होते-होते दिल्ली के हिन्दू विरोधी दंगों में बदल गया था। ठीक उसी तरह, जैसे ‘किसान आंदोलन’ ने गणतंत्र दिवस के दिन 500 पुलिसकर्मियों को घायल कर दिया। अंतर इतना था कि शाहीन बाग़ के बाद हुए दंगों ने 50 से भी अधिक लोगों की जान ले ली।
आम लोगों को परेशान करने वाला आंदोलन, जिस पर मीडिया को था नाज
आइए, एक बार फिर से याद करते हैं कि कैसे एक ऐसे आंदोलन को संविधान बचाने की लड़ाई के रूप में दिखाया गया, जहाँ संविधान को ही गालियाँ दी गईं और महात्मा गाँधी को अपशब्द कहे गए। गाँधी और आंबेडकर की तस्वीरों के साथ राष्ट्रीय ध्वज लगा कर बैठे जिन प्रदर्शनकारियों के महिमामंडन में मीडिया जुटा था, वहाँ असल में भारत में अस्थिरता फैलाने की नींव डाली जा रही थी और देश को खंडित करने की बातें हो रही थीं।
सबसे पहले याद करते हैं कि कैसे शाहीन बाग़ आंदोलन की वजह से आम लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ा था। 100 दिनों से भी अधिक समय तक चले इस उपद्रव के दौरान उस सड़क को इतने ही दिनों तक रोक कर रखा गया, जहाँ से प्रतिदिन 1 लाख से भी ज्यादा गाड़ियाँ गुजरती थीं। बच्चों को स्कूल के लिए देर होती थी, मरीज सही समय पर अस्पताल न पहुँचने के कारण मरते थे और कामकाजी लोगों को दूसरे रास्तों से दफ्तर जाना पड़ता था।
ये विरोध प्रदर्शन एक खास मजहब का था, लेकिन वामपंथी मीडिया ने दिखाया कि यहाँ कश्मीरी पंडितों के साथ एकता दर्शाई जा रही है। जिन कश्मीरी पंडितों को इस्लामी कट्टरपंथ ने घाटी से भगा दिया, वही इस्लामी कट्टरपंथ उनका साथ देने की बातें करके मीडिया में महान बन रहा था और वामपंथी उसे बना भी रहे थे। वहाँ एक खास मजहब ने महिलाओं को ढाल बना कर भाजपा के खिलाफ एक राजनीतिक और मजहबी लड़ाई लड़ी।
फ़रवरी 2020 आते-आते छात्रों की बोर्ड परीक्षाएँ भी शुरू हो गई थीं। कई बार सुप्रीम कोर्ट में सड़क खाली कराने की याचिका डाली गई, लेकिन शुरू में इसे पुलिस का मामला बता कर ख़ारिज कर दिया गया। कोरोना वायरस के संक्रमण और लॉकडाउन के दौरान महामारी एक्ट का खुलेआम उल्लंघन हुआ। अंत में दिल्ली पुलिस ने उन्हें वहाँ से हटाया। दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार के बाद उनका उद्देश्य भी सफल हो ही गया था।
क्या कहा था सुप्रीम कोर्ट ने
इन प्रदर्शनकारियों ने ऐसा नंगा नाच मचाया था कि सुप्रीम कोर्ट तक को कहना पड़ा कि ‘विरोध प्रदर्शन के अधिकार’ का मतलब ये बिलकुल भी नहीं है कि आप कहीं भी और कभी भी अनिश्चितकाल के लिए बैठ जाएँ। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि शाहीन बाग़ आंदोलन के दौरान जिस तरह से सड़क को अवरुद्ध किया गया, वो स्वीकार्य नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि आप अपने अधिकार के लिए सार्वजनिक जगहों पर कब्ज़ा कर के दूसरों के अधिकारों के आड़े नहीं आ सकते।
सुप्रीम कोर्ट ने याद दिलाया था कि प्रदर्शन के अधिकार का उपयोग कुछ निश्चित कर्तव्यों को ध्यान में रख कर ही किया जाना चाहिए। प्रदर्शन दूसरों के मार्ग में बाधा नहीं बनना चाहिए। दलील दी गई थी कि ब्रिटिश राज में ऐसे ही प्रदर्शन होते थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक लोकतंत्र में होने वाले प्रदर्शनों की तुलना उससे नहीं होनी चाहिए। इसके खिलाफ समीक्षा याचिका भी दायर हुई, जिस पर सुनवाई के दौरान कोर्ट ने इस फैसले को सही माना।
वामपंथियों की सबसे बड़ी बात ये है कि वो सुप्रीम कोर्ट तक को नहीं बख्शते। राम मंदिर पर फैसले के दौरान भी देश के सर्वोच्च न्यायालय को जम कर खरी-खोटी सुनाई गई है। सबसे पहले CJI रहे दीपक मिश्रा के खिलाफ तीन जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस करवाई गई, उसके बाद उनके खिलाफ महाभियोग लाने की कोशिश की गई। उन्हीं तीन जजों में से एक रंजन गोगोई CJI बने, लेकिन राम मंदिर फैसले के बाद उन्हें भी ‘Spineless’ घोषित कर दिया गया।
“The right to protest cannot be anytime and everywhere. There cannot be continued occupation of public place affecting rights of others.”
— Manak Gupta (@manakgupta) February 13, 2021
Supreme Court dismisses review petition against Shaheen Bagh judgment https://t.co/oPfx7vctbO
अब यही गिरोह विशेष CJI एसए बोबडे पर निशाना साधते हुए कभी उन पर भाजपा नेता की बाइक की सवारी करने का आरोप लगाता है तो कभी सोशल मीडिया और उनके खिलाफ ट्रेंड चलाए जाते हैं। यही दबाव की राजनीति है। जिस संस्था को संविधान निर्माताओं ने संविधान की व्याख्या का अधिकार दिया है, उसके फैसले को भी प्रभावित करने की कोशिश होती है। फिर भी वामपंथी ‘संविधान प्रेमी’ होने का टैग नहीं खोते।
शाहीन बाग़ प्रदर्शनों के दौरान भी प्रशांत भूषण और इंदिरा जयसिंह जैसे न जाने कितने ही बड़े अधिवक्ता सुप्रीम कोर्ट में तैयार रहते थे, वामपंथियों को बचाने के लिए। उसी दौरान जामिया में भी हिंसा हुई, जहाँ उपद्रवी छात्रों की तरफ से बड़े-बड़े वकील सुप्रीम कोर्ट में पेश हुए। सुप्रीम कोर्ट ने तो कमिटी तक बना दी प्रदर्शनकारियों से बातचीत के लिए, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। कोरोना आने के बाद दिल्ली पुलिस ने उन्हें वहाँ से हटाया।
इस्लामी कट्टरपंथी से ज्यादा हिन्दू विरोधी आंदोलन था शाहीन बाग़
इसमें कोई शक नहीं है कि शाहीन बाग़ का आंदोलन इस्लामी कट्टरपंथी उपद्रव था, लेकिन इससे भी ज्यादा ये हिन्दू विरोधी अभियान था। एक ऐसा मंच, जहाँ से हिन्दू धर्म और हिन्दुओं के खिलाफ जो कुछ किया जा सकता था, किया गया। ऐसे पोस्टर्स शेयर किए गए, जिनमें पवित्र हिन्दू प्रतीक चिह्न स्वस्तिक को टूटते हुए दिखाया गया था। बुर्का पहनी महिलाओं को बिंदी लगाए हुए दिखाया गया। फैज की कविताओं के जरिए हिन्दू विरोधी नैरेटिव बनाए गए।
दिल्ली के शाहीन बाग़ की जब बात होती है तो पूरे देश में कई शाहीन बाग़ बनाने की कोशिश हुई, ये हमें नहीं भूलना चाहिए। भोपाल में मस्जिदों से ऐसे पैम्प्लेट्स बाँटे गए, जिनमें सिंधियों की दुकानों का बहिष्कार करने को कहा गया। क्यों? क्योंकि उन्होंने CAA का समर्थन किया था। ‘जिस दिन हम हिन्दुओं से ज्यादा हो गए, उन्हें पटक-पटक कर मारेंगे’ – एक बुर्कानशीं महिला का वीडियो सभी लोगों ने देखा।
तमिलनाडु में दुकानदारों को CAA के समर्थन में बनाई गई वस्तुओं को बेचने पर धमकाया गया। इसी शाहीन बाग़ में अफजल गुरु को हुई फाँसी की सज़ा को गलत ठहराया गया। एक तो किसी आतंकी को संसद हमले के 12 वर्षों बाद सज़ा मिली, इसके लिए पूरी वैधानिक प्रक्रिया अपनाई गई – फिर भी उसका समर्थन हुआ। शाहीन बाग़ में खुलेआम कहा गया कि ये मुस्लिमों का आंदोलन है और सेक्युलर नहीं है।
बाहर मीडिया तो था ही इसे सेक्युलर साबित करने के लिए। शरजील इमाम की चर्चा के बिना शाहीन बाग की बात अधूरी है, जो इसके आयोजकों में से एक था। उसने महात्मा गाँधी को फासिस्ट बताया, जिन्ना की तारीफ की, असम को भारत से खंडित कर अलग करने की बातें की और पूरे उत्तर-पूर्व को शेष भारत से अलग करने के लिए उकसाया। उसने ‘असम में कत्लेआम’ की झूठी अफवाह भी फैलाई।
हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि शाहीन बाग़ का उपद्रव हिन्दू 100 दिनों तक सहते रहे लेकिन देश में जहाँ-जहाँ भी CAA के समर्थन में रैलियाँ हुईं, उनमें से कई जगहों पर मुस्लिम भीड़ द्वारा उस पर हमला किया गया। केरल में दलितों को पानी नहीं पीने दिया गया, क्योंकि उन्होंने CAA का समर्थन किया था। ‘सेवा भारती’ ने उनकी मदद की। ‘तेरा मेरा रिश्ता क्या’ और ‘हिन्दुओं की कब्र खुदेगी’ वाले नारे हमें नहीं भूलने हैं।
मीडिया, फिल्म और राजनीतिक जगत की हस्तियों का खुला समर्थन
वामपंथियों की एक बेशर्मी भरी खासियत ये है कि उनके आंदोलन पूर्णतः राजनीतिक होकर भी ‘निष्पक्ष’ बन जाते हैं। राकेश टिकैत के मंच से RLD के जयंत चौधरी का भाषण होगा, लेकिन आंदोलन ‘निष्पक्ष’ रहेगा। कॉन्ग्रेस नेता सलमान खुर्शीद का वीडियो भी इसी तरह सामने आया था, जिसमें वो एक बुर्कानशीं महिला के छोटे बच्चे को CAA और मोदी विरोधी नारे सीखा रहे थे। लेकिन नहीं, आंदोलन तो गैर-राजनीतिक था न?
कॉन्ग्रेस के मणिशंकर अय्यर शाहीन बाग़ जाते हैं, लेकिन इसे गैर-राजनीतिक बताया जाता है। AAP नेता अमानतुल्लाह खान वहाँ सारी व्यवस्थाएँ संभाले रहता है, लेकिन इसे सेक्युलर आंदोलन बताया जाता है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल इसका समर्थन करते हैं, लेकिन इसे राजनीति से अलग बताया जाता है। एक पूर्णतः राजनीतिक उपद्रव, जो भाजपा के खिलाफ था, जिसमें विपक्षी दलों के कई नेताओं की भूमिका थी – उसे जनसामान्य का आंदोलन बताने की कोशिश हुई।
नसीरुद्दीन शाह ने देश भर में घूम-घूम कर कई स्थानों पर CAA विरोधी आंदोलनों को सम्बोधित किया। फरहान अख्तर बिना कुछ जाने-समझे प्रदर्शन स्थल पर जाकर बैठ गए। अभिनेता सुशांत सिंह शाहीन बाग़ गए। ज़ीशान अयूब और स्वरा भास्कर जैसे फ़िल्म जगत के लोगों का तो तब से काम-धाम ही यही बन गया। पूरे देश में हर राज्य में जगह-जगह शाहीन बाग़ बनाने की कोशिश हुई। उपद्रव की साजिश देश भर में थी।
मीडिया के कई पोर्टल्स का काम ही यही रह गया था कि वो शाहीन बाग़ से ‘पॉजिटिव स्टोरीज’ निकालें और दिखाएँ कि कैसे ये अरब स्प्रिंग से भी बड़ा आंदोलन है। जब जामिया में लदीदा फरदाना जैसी ‘छात्राओं’ को आगे करके उनके गिरने, दौड़ने और भागने के एक-एक मोमेंट्स HD कैमरे में कैद किए गए और बरखा दत्त जैसों से उन्हें ‘Shero’ बताया, तब भी सामने आया था कि कैसे मीडिया इसे एक बड़ा आंदोलन बनाने की तैयारी में है।
छात्रों की अराजकता के जरिए आंदोलन को दी गई थी धार
शाहीन बाग़ जिस तरह से देश के कई शहरों में हो रहा था, ठीक उसी तरह AMU और जामिया जैसे कई कॉलेज थे, जहाँ छात्रों ने मजहबी कट्टरता का अखाड़ा बना कर रख दिया था। दिसंबर 2019 में ही जामिया के बाहर जम कर हिंसा हुई और छात्र यूनिवर्सिटी में जाकर लाइब्रेरी में छिप गए। जब पुलिस कार्रवाई हुई तो वीडियो शेयर कर-करके दिल्ली पुलिस को बदनाम किया जाने लगा। CCTV फुटेज शेयर करने के मामले में पुलिस के साथ सहयोग नहीं किया गया।
बाद में ऐसे कई वीडियो आए जिससे उन तथाकथित छात्रों की पोल खुली। ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्था तक से बयान जारी करवाए गए। पुलिस के साथ झड़प हुई। बसें जलाई गईं। बाद में सारा फोकस ‘पुलिस की क्रूरता’ की बेहूदी बातों पर रखा गया। शाहीन बाग़ में किसी ने खिलौने वाले बंदूक से फायरिंग कर दी तो उसे ज्यादा तवज्जोह दी गई और इसके जरिए ‘हिन्दू आतंकवाद’ का शिगूफा फिर से छोड़ा गया।
इसी तरह अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पुलिस द्वारा माइक से बार-बार सहयोग के लिए कहे जाने के बावजूद हिंसा हुई। NHRC ने भी अपनी जाँच में माना कि छात्रों की तरफ से हिंसा शुरू की गई थी और पुलिस ने कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए मजबूरी में बल-प्रयोग किया। संस्था ने मना कि क्षेत्र को सांप्रदायिक दंगे से बचाने के लिए ये ज़रूरी था। ‘छात्रों’ के मास्क में मजहबी कट्टरवादियों ने अपना एजेंडा चलाया।
ठीक इसी तरह 80 वर्ष से ऊपर की उम्र की मुस्लिम दादियों को, जिन्हें CAA के बारे में कुछ पता ही नहीं था, टीवी चैनलों पर बहस में स्थान दिया गया और इसके सहारे अंतरराष्ट्रीय प्रोपेगंडा के लिए तस्वीरें जुटाई गईं। बिल्किस दादी को ‘Times’ ने सबसे प्रभावशाली महिलाओं की सूची में स्थान दिया। इसी तरह विदेशों में इस उपद्रव को ‘छात्रों और महिलाओं का आंदोलन’ कह कर प्रचारित किया गया, ताकि कोई आलोचना न कर सके।
शाहीन बाग़ आंदोलन ही था दिल्ली दंगों का कारण
अंत में, इन चीजों को देख कर कहा जा सकता है कि शाहीन बाग़ ही दिल्ली दंगों का कारण था। दिल्ली के अन्य स्थानों पर ही इसी तरह से मार्गों पर कब्ज़ा की कोशिश की गई और जब हिन्दुओं ने, आमजनों ने इसका विरोध किया तो उन्होंने दंगा शुरू कर दिया। शाहीन बाग़ में जो लोग शामिल थे, दिल्ली दंगा के आरोपित भी वही लोग थे। ताहिर हुसैन, इशरत जहाँ, उमर खालिद, खालिद सैफी और अमानतुल्लाह खान जैसे लोगों के इसमें नाम सामने आए।
अर्थात, 100 दिनों तक हिन्दू धर्म और उसके प्रतीक चिह्नों का अपमान हुआ तो ठीक, जब हिन्दुओं ने इसका विरोध किया तो ये भड़क गए। उन्होंने 100 दिनों तक सड़क कब्ज़ा कर रखी तो ठीक, एक कपिल मिश्रा ने सड़क खाली करने को कह दिया तो उन्होंने दंगे कर दिए। उन्होंने खुद के विरोध के अधिकारों का रट्टा लगा कर हिंसा की तो ठीक, हिन्दुओं ने आत्मरक्षा में प्रतिकार किया तो गलत। यही कारण है कि कई दिनों तक चला ये प्रोपेगंडा का खेल दंगे में बदल गया।