Friday, November 15, 2024
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लखीमपुर खीरी की घटना CM योगी की छवि को बदनाम करने की गहरी साजिश: ‘किसान’ आंदोलन से उपजी हिंसा से पैदा हुए यक्ष प्रश्न

लखीमपुर से हिंसा की जो तस्वीरें और वीडियो आए हैं उनसे इस सोच को बल मिलता है कि हिंसा योजनाबद्ध तरीके से की गई है। अचानक होने वाली हिंसा में पिटने वाले व्यक्ति के मुँह पर कपड़ा या मास्क नहीं है पर पीटने वाले ने मुँह पर कपड़ा लपेट रखा है। इसके पीछे क्या कारण हो सकता सिवाय इसके कि पीटने वाले की शिनाख्त न हो सके।

‘किसान’ जो चाहते थे वह हो गया। धमकी कि भाजपा के एक भी नेता या मंत्री को निकलने नहीं दिया जाएगा, का क्रियान्वयन हो चुका है। किसानों द्वारा शुरू की गई हिंसा में ‘किसान’ और भाजपा कार्यकर्ताओं सहित आधा दर्जन से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। लखीमपुर खीरी में इस हिंसा के पश्चात राजनीतिक पर्यटन भी शुरू हो चुका है। प्रियंका गाँधी को कैमरे पर पुलिस वालों को धमकी देते हुए देखा गया। वे बता रही थीं कि चाहें तो पुलिस वालों को उन्हें मॉलेस्ट और किडनैप करने के आरोप में गिरफ्तार करवा दें।

सेक्युलर-लिबरल इकोसिस्टम के पत्रकार भी सक्रिय हैं। कई पत्रकारों ने फेक न्यूज़ ट्वीट किया और उसके वायरल होने के कुछ घंटे के बाद उन ट्वीट को डिलीट करके खुद के गले में सत्यवादी का तमगा भी टाँग लिया। राजनीतिक पर्यटन पर निकली प्रियंका गाँधी को क्रेडिट देने का कार्यक्रम शुरू हो चुका है। कई नेता लखीमपुर खीरी पहुँचने के लिए अपना-अपना सामान बाँध चुके हैं। अपने राज्य में समस्याओं से जूझने वाले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बघेल और पंजाब के मुख्यमंत्री चन्नी भी सब कुछ छोड़कर लखीमपुर पहुँचना चाहते हैं।

इस तरह की घटनाएँ जब होती हैं, तब आश्चर्य करने के लिए एक ही बात होती है और वो यह है कि सामान्य दिनों में अपने-अपने कार्यक्रमों में व्यस्त विपक्षी नेता कैसे ऐसी घटनाओं पर एक घंटे में ही तैयार होकर घटनास्थल की ओर रवाना हो लेते हैं।

पिछले सात वर्षों में बार-बार होने के कारण न तो ऐसी घटनाएँ आश्चर्यचकित करती हैं और न ही उससे फायदा उठाने का विपक्षी नेताओं का प्रयास। वैसे भी उत्तर प्रदेश में अगले वर्ष चुनाव होने वाले हैं तो इतना करना तो बनता है। समस्या यह नहीं है, बल्कि समस्या इस सोच से है कि जहाँ कुछ न हो वहाँ कुछ कर दिया जाए और उसके बाद उसका रोना रोया जाए। विपक्षी दलों ने इस राजनीतिक दर्शन को पिछले कई वर्षों से अपना रखा है, बिना इस बात की परवाह किये कि इससे क्या हासिल हुआ या भविष्य में क्या हासिल हो सकता है।

जहाँ कानून-व्यवस्था की समस्या न हो, वहाँ पैदा करके उसे भुनाने का प्रयास ऐसी रणनीति है जो बहुत पुरानी है और जिसे वर्तमान में लगातार तेजी से बदल रहे राजनीतिक परिदृश्य में शायद बार-बार आजमाया नहीं जा सकता, पर विपक्ष है कि इस रणनीति को छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं है। रणनीति कितनी सफल या असफल रही है, यह बहस का विषय रहेगा।

लखीमपुर से हिंसा की जो तस्वीरें और वीडियो आए हैं उनसे इस सोच को बल मिलता है कि हिंसा योजनाबद्ध तरीके से की गई है। अचानक होने वाली हिंसा में पिटने वाले व्यक्ति के मुँह पर कपड़ा या मास्क नहीं है पर पीटने वाले ने मुँह पर कपड़ा लपेट रखा है। इसके पीछे क्या कारण हो सकता सिवाय इसके कि पीटने वाले की शिनाख्त न हो सके। योजनाबद्ध तरीके से की गई हिंसा का एक उद्देश्य यह है कि भाजपा समर्थकों और कार्यकर्ताओं के मन में वही भ्रम पैदा करना है, जो भ्रम पश्चिम बंगाल के भाजपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों के मन में पैदा हुआ है कि पार्टी उनकी सुरक्षा के बारे में कुछ नहीं सोचती।


भाजपा शासित सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों में योगी आदित्यनाथ की छवि एक कुशल प्रशासक और बिना किसी लाग लपेट के कानून का राज स्थापित करने वाले नेता की है। उनकी कार्यशैली उन्हें एक ऐसे ब्रांड के रूप में प्रस्तुत करती है जो निडर है और हर हाल में उस उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था की स्थापना के लिए कटिबद्ध है, जो गुंडागर्दी के लिए बदनाम रहा है। ऐसे में यदि इस छवि को धक्का पहुँचाया जाए तो उस कार्यकर्त्ता और समर्थक के मन में उनकी कुशलता को लेकर भ्रम पैदा किया जा सकता है, जिसके मन में उनकी क्षमता को लेकर कोई संशय नहीं है। जो उन्हें नेतृत्व के लिहाज से श्रेष्ठ मानता है।

अब देखना यह होगा कि लखीमपुर में जो कुछ हुआ उससे योगी सरकार कैसे निपटती है। चूँकि हिंसा किसानों के नाम पर की गई है तो कोई भी सरकार या उसका नेतृत्व ऐसी किसी कार्रवाई से बचेंगे जो किसानों को नाराज कर सकती है, लेकिन यहीं योगी आदित्यनाथ की परीक्षा है। हर नेता किसी भी परिस्थिति में अपनी राजनीतिक पूँजी का ह्रास नहीं चाहता पर यदि उसकी कीमत दल के वही कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने इस राजनीतिक पूँजी को जमा करने में अपना पसीना बहाया है तब किसी भी कुशल नेतृत्व के लिए यह विचारणीय प्रश्न होगा कि यह कीमत कितनी बड़ी या छोटी है और क्या इसी कीमत पर राजनीतिक पूँजी की रक्षा संभव है?

यह प्रश्न केवल उत्तर प्रदेश में भाजपा के प्रदेश नेतृत्व के लिए ही नहीं बल्कि बल्कि दल के केंद्रीय नेतृत्व के लिए भी है। कार्यकर्ता नहीं तो दल के समर्थक ऐसा मानते रहे हैं कि केंद्रीय नेतृत्व अभी तक ‘किसानों’ द्वारा की गई तमाम हरकतों के प्रति उदासीन रहा है। ऐसे में समर्थकों और कार्यकर्ताओं के मन में फिर से आत्मविश्वास पैदा करने के लिए दल के केंद्रीय और प्रदेशीय नेतृत्व को निर्णायक कदम उठाने होंगे। जब चुनाव अधिक दूर नहीं है, नेतृत्व के पास निर्णायक कदम के लिए राजनीतिक जमीन कितनी है, यह देखना दिलचस्प होगा।

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