जुमले में कहा जाता है “जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड”, यानि न्याय देने में देरी करना न्याय देने से इन्कार करना है। मगर क्या भारत की अदालतों की कार्यवाही में ऐसा ही होता है? एक नजर भी देखा जाए तो सच्चाई इस जुमले से कोसों दूर खड़ी मिल जाएगी। इसका एक नमूना बिहार की अदालतों में अभी हाल ही में देखने को मिला, जब एक पच्चीस साल पुराने मामले में सजाएँ सुनाई गईं।
जब तक ये फैसला आया तब तक अपराधियों में से एक मर चुका था, लेकिन पच्चीस साल बीतने पर भी एक दूसरा अपराधी फरार ही बताया जाता है। पच्चीस वर्ष पहले इस मामले के प्रकाश में आने पर हंगामा हुआ होगा?
सुपौल, जहाँ का ये बलात्कार का मामला था, बिहार की राजधानी से करीब तीन सौ किलोमीटर दूर है। जाहिर है वहाँ की खबरें स्थानीय अख़बारों में तो आती हैं, लेकिन कभी-कभी राज्य भर के अख़बार के एडिशन से छूट भी जाती हैं। इस मामले में आरोप लगाने वाली एक दलित युवती थी। जैसा कि अंदाजा लगाया जा सकता है, तब भी एफआईआर फ़ौरन दर्ज नहीं हुआ था, बल्कि अपराध के तीन दिन बाद दर्ज किया गया था।
अपराधियों का सरगना तब के जनता दल यानि लालू यादव की पार्टी का एक एमएलए योगेन्द्र नारायण सरदार था। उसके बेटे उमा सरदार और साथियों शम्भू और भूपेन्द्र यादव के अलावा रामपाल यादव और हरिलाल शर्मा पर भी अपहरण, बलात्कार, घर में जबरन घुसने और मार-पीट जैसे मुक़दमे दर्ज हुए थे।
तारीख पर तारीख पड़ती रही और मामला चलता रहा। चौबीस साल से ऊपर चली सुनवाई में अभियोजन पक्ष से 11 गवाहों के बयान जाँचें गए। तब त्रिवेणीगंज के एमएलए रहे योगेन्द्र नारायण सरदार ने 16 अक्टूबर 1994 की रात उस दलित युवती को उसके घर से उठाकर अपनी जीप में डाल लिया था।
अफ़सोस कि योगेन्द्र नारायण सरदार ने बलात्कार करने के लिए कोई कमजोर युवती नहीं चुनी! मौका पाते ही लड़की ने वार किया और योगेन्द्र नारायण यादव का बंध्याकरण कर डाला! भागने के बाद बड़ी मुश्किल से तीन दिन बाद जाकर मामला दर्ज हो पाया। इस मामले के आरोपी रामपाल यादव की सुनवाई के दौरान ही मौत हो गई। हरिलाल शर्मा अभी भी (पच्चीस वर्ष बाद) फरार बताया जाता है।
इसी वर्ष जनवरी की एकत्तीस तारीख को इस मामले का फैसला आया और चार अपराधियों को जुर्माने और जेल की सजा हुई। वैसे अपराधियों के वकील एनपी ठाकुर का कहना है कि निचली अदालत के फैसले के खिलाफ वो उच्च न्यायलय में जाएँगे। झोपड़ी में रहने वाली दलित युवती तीन सौ किलोमीटर दूर पटना आकर ये मुकदमा कैसे लड़ेगी और कैसे जीतेगी, पता नहीं।
बंध्याकरण का शिकार हो चुका लालू की पार्टी का पूर्व विधायक योगेन्द्र नारायण सरदार मुक़दमे के उच्च न्यायालय और फिर पता नहीं सर्वोच्च न्यायालय में जाने तक जीवित बचे या नहीं। इस मामले की याद बिहार को अभी इसलिए आनी चाहिए क्योंकि ये अक्टूबर 1994 का ही मामला था और इस अक्टूबर में इसे पच्चीस वर्ष बीत गए।
चुनावी रैलियों के बीच दिए गए एक विवादित बयान में लालू के ही सुपुत्र पूछते हैं “बाबू साहब के सामने सीना तानकर चलते थे ना?” जातीय वैमनस्य बढ़ाने के लिए दिया गया ये बयान शायद उन्होंने चार वोट ज्यादा पाने के लालच में दिया होगा। सच्चाई इससे भी उतनी ही दूर है जितनी “जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड” के जुमले से हो सकती है।
अपराधियों और पीड़िता का नाम देखते ही पता चल जाता है कि कौन सा समुदाय दलितों पर ये अमानवीय अत्याचार कर रहा था। संभवतः फिल्मों के जरिए गढ़े गए अत्याचारी ठाकुर, धूर्त बनिए और ठगी करते ब्राह्मण के जरिए उन्हें अपना “नैरेटिव” चलाने की सुविधा भी मिल जाती है।
यहाँ समस्या ये है कि आज के दौर का बिहार, शिक्षा-रोजगार जैसे मामलों में उतना भी पिछड़ा नहीं रह गया, जितना “जंगलराज” के दौर में उसे बनाकर रखा गया था। बिहार में किताबों के पढ़े जाने की दर भी ज्यादा है और अधिकांश अख़बारों का रीडरशिप भी बिहार में काफी अधिक है।
पिछले चुनावों में राजद सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर जरूर उभरी थी, लेकिन इस बार भी पिछले प्रदर्शन को दोहरा पाना उसके लिए मुश्किल होगा। राजनैतिक समीकरणों के बदलने पर संकर्षण ठाकुर ने अपनी किताब “बन्धु बिहारी” में लिखा भी है। लालू यादव के वाकपटु होने का जो फायदा राजद को मिलता रहा था, वो अब उसके पास नहीं है।
पहले दौर का मतदान अब जब हो चुका है तो अधिकांश राजनैतिक विश्लेषक भी अब ये स्वीकार लेंगे कि “एंटी इनकमबेंसी” का जैसा फायदा वो राजद के लिए मान रहे थे, उसे वैसा फैसला होता नजर नहीं आ रहा।
कहीं ना कहीं ऐसे अपराधियों के लालू यादव और उसकी पार्टी के साथ जुड़ा होना भी इसका एक कारण होता है। जब तक ऐसे अपराधिक तत्वों से राजद खुद को अलग घोषित नहीं कर पाती, लगता नहीं कि महिलाओं के वोट राजद के समर्थन में जाएँगे।