Sunday, December 22, 2024
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ज़मीर बेच कर कॉफ़ी पीने वाली मीडिया और लिबटार्डों का सामूहिक प्रलाप (भाग 2)

कठुआ की पीड़िता पर हुए अपराध का ज़िम्मा शिव के त्रिशूल तक चला गया, लेकिन ग़ाज़ियाबाद की पीड़िता के बलात्कार करने वाले मौलवी का पाप किसी लाउडस्पीकर युक्त मीनार पर नहीं टँगा। क्यों? क्योंकि मतलब कठुआ की पीड़िता से कभी था ही नहीं। मतलब साम्प्रदायिक रंग देने से था।

मीडिया और डर की खेती

आपको मीडिया के उन्हीं लोगों ने पागल बनाया है जिन्हें आप आदर्श मानते रहे। ऑल्टरनेट जर्नलिज़्म के नाम पर एक पूरी लॉबी खड़ी की गई, जिसका पूरा मक़सद घृणा का माहौल बनाना था। आप याद कीजिए कि कितनी बार आपको उन्हीं मीडिया के लोगों ने बंगाल की हिंसा, वहाँ के दंगों पर उसी मात्रा में रिपोर्टिंग की जितनी रोहित वेमुला, नजीब अहमद, अखलाक, गौरी लंकेश की हत्या पर हुई?

क्या बिहार का राजदेव रंजन पत्रकार नहीं था? फिर क्या कारण है कि बाईस पत्रकारों की हत्या पर एक ट्वीट तक न करने वाले लोग किसी गौरी लंकेश की हत्या पर सड़क पर उतर आते हैं, और कोर्ट से पहले आपको बताते हैं कि इसमें सीधे संघ या मोदी का ही हाथ है? क्या कारण है कि आपके पास सिर्फ ‘ख़ास समुदाय’ के नाम वाले लोगों की मौत की ही ख़बर पहुँचती है और नारंग, पुजारी, राजीव, अंकित जैसे दसियों नाम इस तरह नकारे जाते हैं कि गूगल का एल्गोरिदम भी उन्हें ढूँढे में समय लगाता है? आप ये समझिए कि इन हत्याओं को आप सर्च भी नहीं कर पा रहे क्योंकि इस पर उतनी बात ही नहीं हुई। क्या ये मौतें साम्प्रदायिक नहीं थीं? क्या इस्लामी भीड़ द्वारा हिन्दू की हत्या कम जघन्य हो जाती है?

फिर समुदाय विशेष की मौत को आगे किया जाता रहा और माहौल बनाया गया कि लोगों में डर का माहौल है। एंकर स्टूडियो के भीतर इस तरह का चेहरा लेकर आने लगा कि उसे स्टूडियो के बाहर कुछ हिंदुओं ने थप्पड़ मार कर चेहरा सुजा दिया है। एंकर इस तरह से मरा हुआ मुँह लेकर बैठने लगा, और भद्दे ग्राफ़िक्स की मदद से आपको बताने लगा कि हत्या तो बस ख़ास समुदाय की ही हो रही है, और कैसे डर फैलाया जा रहा है।

जबकि, असल मायनों में डर की खेती तो इन्हीं लोगों ने की। इन लोगों ने सोते-जागते इन बातों को इतनी बार बोला कि सामान्य आदमी उन्माद में आ गया कि सच में ये सरकार यही कर रही है। आखिर आप करेंगे भी तो क्या? अगर बार-बार आपको वही चेहरा दिखे, वैसे ही ट्वीट मिलें, वैसे ही लेख पढ़ना पड़े तो आप तो सोचेंगे ही कि देश में चल क्या रहा है! जबकि आप अपने ऑफिस में, अपने घरों के आस-पास वही माहौल देख रहे होंगे जो सालों से है। लोग शांत हैं, अपना काम कर रहे हैं। लेकिन मीडिया ने इस क़दर धावा बोला कि आपके लिए सूचना के लिए वास्तविक दुनिया से ज़्यादा सही ये आभासी लोग हो गए, जिन्होंने आपको जबरदस्ती बताया कि तुम्हारे पड़ोस का आदमी तुमको कल सुबह सब्जी के ठेले पर काट देगा।

यही अचीवमेंट रही इस मीडिया की। इन्होंने छोटे अपराधों को वैश्विक स्तर तक कवर किया, जहाँ अपराधी हिन्दू था। कठुआ की पीड़िता पर हुए अपराध का ज़िम्मा शिव के त्रिशूल तक चला गया, लेकिन ग़ाज़ियाबाद की पीड़िता के बलात्कार करने वाले मौलवी का पाप किसी लाउडस्पीकर युक्त मीनार पर नहीं टँगा। क्यों? क्योंकि मतलब कठुआ की पीड़िता से कभी था ही नहीं। मतलब मजहबी रंग देने से था।

बड़े मीडिया संस्थानों ने बड़ी ही सूक्ष्म चालाकी से किसी बलात्कारी मौलवी को ‘प्रीस्ट’ लिख कर प्रतीकात्मक चित्र में हिन्दू संत की तस्वीर लगा दी। कोई अल्पसंख्यक, सामान्य सामाजिक अपराध का शिकार हुआ तो उसकी पहचान को हेडलाइन में ऐसे दिखाया गया जैसे कि उसके मजहब के कारण ही उस पर हमला हुआ हो। लेकिन, जिन मामलों में किसी के हिन्दू होने के कारण ही उस पर हमला हुआ हो, वहाँ अपराधियों की पहचान छुपा ली गई। आज भी, अगर आपको किसी ख़बर में, शुरु से अंत तक अपराधी का नाम न मिले, तो आपको समझ जाना चाहिए कि अपराधी किसी मज़हब विशेष का ही होगा। आप सर्च कर लीजिए उस घटना का नाम, किसी छोटे पोर्टल पर आपको सही नाम मिल जाएँगे।

मीडिया ने डर की खेती की, उसे अपने प्रपंचों से सींचा। रतजगा कर के इनके मठाधीशों ने रोजगार के आँकड़ों को नकारा, छोटी झड़पों को दंगा कहा, दंगों पर बात ही नहीं की, भाजपा कार्यकर्ता की हत्या को ऐसे नॉर्मल बनाया कि दूसरे पार्टी के लोगों की भी हत्या हुई है, तो ये तो चलता है। मीडिया का वो हिस्सा, जो अपने आप को स्वघोषित तौर पर आदर्श, निष्पक्ष और महान कहता रहा, उसने इस पूरे चुनाव में लोगों को सिर्फ ठगा है।

इस लगातार चलते रहे झूठ का असर

इस झूठ का असर यह हुआ कि लोगों ने मीडिया पर विश्वास करना बंद कर दिया। उनके लिए व्हाट्सएप्प पर आने वाले मीम और झूठी सूचनाएँ ही सत्य बन कर दिखने लगीं। इस निराशा से नकारात्मकता और अनभिज्ञता से उपेक्षा का जन्म हुआ, जिसका असर यह हुआ कि अफ़वाहों को सच माना जाने लगा। इसका फायदा भी जितना मोदी को विरोधियों ने उठाया, उतना किसी ने नहीं। पिछले साल का अप्रैल याद कीजिए, जब चौदह लोगों की जान एक ऐसे आंदोलन ने ले ली, जिनका संचालन ‘दलित’ कर रहे थे। दलित का मतलब होता है वो लोग; जिनका दमन किया गया हो।

आप जरा सोचिए कि ये लोग सड़कों पर कैसे उतर आए? क्या इन्होंने तय किया कि अब बहुत हो गया, आंदोलन किया जाए? जी नहीं। इनके व्हाट्सएप्प ग्रुपों में यह बात फैलाई गई कि सरकार ने आरक्षण ख़त्म करने का ऐलान किया है। जबकि सही ख़बर यह थी कि सुप्रीम कोर्ट में SC/ST कानून पर चर्चा हुई और कोर्ट ने माना कि इनके कई प्रावधान ऐसे हैं, जिससे ‘नेचुरल जस्टिस’ के आदर्शों को ठेस पहुँचती है। अतः, उन्हें सही करना ज़रूरी है। लोगों में बात फैला दी गई कि आरक्षण ख़त्म हो रहा है, सड़कों पर लोग उतरे और आग लगा दी। फिर कहा गया कि आंदोलन सफल रहा। जितनी हिंसा, उतनी ज़्यादा सफलता होती है ऐसे आंदोलनों की।

मीडिया और विपक्ष ने एक दूसरे के पूरक का रोल निभाया और जनता को लगातार बेवक़ूफ़ समझ कर एक के बाद एक वाहियात काम किए। इसका परिणाम यह रहा कि लोगों ने मीडिया को मृत मान कर सोशल मीडिया की तरफ रुख़ किया। इसके कारण गिरोह के प्रमुख अखबारों, पोर्टलों, चैनलों को देखने वाले कम होते गए, और जो बचे, उनमें से भी अधिकतर वैसे लोग थे जो इसलिए देखते थे कि आज इन्होंने क्या प्रपंच बेचा है।

क्रेडिबिलटी का अभाव विपक्ष के नेताओं तक पहुँचा

पार्टियों ने सोचा कि मीडिया भी उनके साथ है और वो एक दूसरे के लिए मैग्निफायर का काम करेंगे तो जनता उन्हें सच मान लेगी। इस मूर्खता का ख़ामियाज़ा उन्होंने कई बार भुगता जब नोटबंदी पर बाँटे गए प्रपंच को लोगों ने नकार दिया और उत्तर प्रदेश में भारी बहुमत से भाजपा की सरकार बनी। उसी तरह जीएसटी जैसे पाथब्रेकिंग टैक्सेशन सिस्टम पर जम कर बेहूदगी की गई, लेकिन चुनावों में लोगों ने कई राज्यों में भाजपा को बहुमत दिया।

इन मुद्दों को जनता ने लगातार नकारा लेकिन विपक्ष पता नहीं किस ख़ुमारी में था कि इसी की डुगडुगी बजाता रहा और मीडिया भी हो-हो करते हुए इनके पीछे लगी रही। क्या पार्टियों के योजनाकारों को यह बात नहीं दिखी कि लोगों ने उनकी इस योजना को नकार दिया? या वो हिटलर के प्रोपेगेंडा मंत्री के नक़्शेक़दम पर चलने का ठान कर इस कार्य में लगे रहे कि ‘एक झूठ पकड़ो, उसे लगातार बोलते रहे, अतंतः लोग उसे सच मान लेंगे’। यही हुआ लेकिन लोगों ने उसे सच नहीं माना क्योंकि लोगों को सोशल मीडिया के साथ-साथ सही मायनों में ऑल्टरनेटिव मीडिया के दर्शन होने शुरु हो गए।

जबकि, इनकी चालाकी देखिए कि जितनी बातें इन्होंने भाजपा और मोदी के सर पर फेंकी है, वो सारे काम, बहुत ही सहजता और धूर्तता से यही मीडिया वाले खुद ही करते रहे। आपातकाल कह-कह कर इन्होंने इस भयावह शब्द और दौर को मजाक बना दिया। ‘डर का माहौल’ इन्होंने इतना ज़्यादा बाँट दिया कि लोगों ने उसे सामान्य मान कर आगे बढ़ना शुरु कर दिया। कुल मिला कर विपक्ष के पूरे कैम्पेन को अगर किसी ने पटरी से उतारा, तो वह है यहाँ की मेनस्ट्रीम मीडिया का वह हिस्सा जिसने घृणा में डूब कर घटिया पत्रकारिता की।

इस लेख के बाकी तीन हिस्से यहाँ पढ़ें:
भाग 1: विपक्ष और मीडिया का अंतिम तीर, जो कैक्टस बन कर उन्हीं को चुभने वाला है
भाग 3: वास्कोडिगामा की वो गन जो विपक्ष ने अपना नाम लेकर फायर किया
भाग 4: लिबरलों का घमंड, ‘मैं ही सही हूँ, जनता मूर्ख है’ पर जनता का कैक्टस से हमला

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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