इन दिनों प्रधानमंत्री मोदी की दाढ़ी को लेकर विरोधियों में बड़ी हाय-तौबा मची हुई है। मुद्दा कोई भी हो, उसे मोदी की दाढ़ी से जोड़ा जाना मानो अनिवार्य सा हो गया है। बस्तर से कॉन्ग्रेसी सांसद दीपक बैज ने जीडीपी के मुद्दे को इसके साथ जोड़ दिया, कॉन्ग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रेमचंद्र मिश्रा ने बंगाल-चुनाव के साथ तो वहीं तेजप्रताप यादव ने पेट्रोल के दामों के साथ। इतना ही नहीं बरखा दत्त और शशि थरूर के एक इंटरव्यू एवं पाकिस्तानी न्यूज़-चैनलों की कुछ डिबेट्स में भी मोदी की बढ़ती हुई दाढ़ी पर ‘गंभीर चर्चा’ हो चुकी है।
वैसे दाढ़ी-मूँछ रखना, नहीं रखना या कितनी रखनी है, यह विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत मसला है और राजनीतिक चर्चा में इसकी कोई जगह नहीं बनती। फिर भी, जब कई लोगों की बदहजमी का कारण मोदी की बढ़ती हुई दाढ़ी ही है, तो हमारे लिए इतिहास की गहराइयों में जाकर इस विषय को भी गंभीरता से समझना जरूरी हो जाता है।
केश और दाढ़ी रखना, यह भारत में अनादि काल से हिन्दू साधु-सन्यासियों की परंपरा रही है। गुरु गोबिंद सिंह ने भी जब खालसा-पंथ की घोषणा की तो ‘पाँच ककारों’ में इसे अनिवार्य रूप से शामिल किया गया था। इसी कारण मध्यभारत के इतिहास में एक समय ऐसा भी आया जब पंजाब के आसपास के विस्तार में सिखों एवं हिन्दुओं की एकता में ‘दाढ़ी-मूँछ’ एक महत्वपूर्ण पहलू बन गई थी जिस पर मुग़ल खूब खार खाते थे।
सिख धर्म के उदय में भले ही हिन्दू-मुस्लिम एकता का उदारवादी दृष्टिकोण था लेकिन सिखों को भी ‘काफिरों’ की संज्ञा मिलने में देर न लगी। सिख गुरुओं की हत्याएँ, गुरु गोबिंद सिंह के साहिबज़ादों को जिंदा दीवार में चुनवा देने की घटना एवं गुरु के अनुयायियों पर दमन यह सब उसी ‘मुसलमान बनाम काफ़िर’ की सोच का ही नतीजा था।
जब गुरु गोबिंद सिंह ने देखा कि इस्लाम के नाम पर हिन्दुओं एवं सिखों को काफिर बताकर खूब अत्याचार ढाये जा रहे हैं तब उन्होंने एक हिन्दू सन्यासी ‘लछमनदास’ को उन अत्याचारियों को दण्डित करने का जिम्मा दिया और उसे एक नया नाम दिया ‘बंदा’। वही बंदा जिसे मुस्लिम इतिहासकारों ने ‘इस्लाम के दुश्मन’ के रूप में वर्णित किया है।
सिख धर्म में बंदा की भूमिका एक सेनानायक की तौर पर देखी जा सकती है, जिसके काल में मुसलमानों में यह बात घर कर गई थी कि यदि बंदा जीत गया तो वे सब बर्बाद हो जाएँगे! बची-खुची कसर वजीर खान ने पूरी कर दी, जिसने मुल्ला-मौलवियों को राजी किया कि वे काफिरों के खिलाफ जंग छेड़ दें। यूँ तो बंदा का आंदोलन किसानों से जुडी एक क्रांति थी लेकिन मुसलमान शासकों के संरक्षण में पले-बड़े मस्लिम इतिहासकारों ने इस क्रांति को भी ‘इस्लाम विरोधी जिहाद’ साबित किया हुआ है।
खुशवंत सिंह अपनी किताब ‘सिखों का इतिहास’ में बंदा के विषय में लिखते हैं कि ‘यमुना से लेकर रावी और उसके पार, अगर किसी आदमी का जोर था, तो वह बंदा ही था और अगर किसी सत्ता की इज्जत थी, तो वह किसान फौजें (बंदा की फौजें) ही थी। सौभाग्यशाली दिनों में अगर बंदा ने थोड़ा और जोखिम उठाया होता, तो उसने दिल्ली और लाहौर को भी फतह कर लिया होता और इतिहास की पूरी दिशा ही बदल दी होती।’
मुगल इतिहासकार खफी खान तत्कालीन स्थिति पर लिखता है कि ‘इन काफिरों ने नया शासन चलाया, सिर और दाढ़ी के बाल काटने से मनाही कर दी। इस पथभ्रष्ट पंथ के विद्रोह और तबाही को शहंशाह की जानकरी में लाया गया जिससे उन्हें खासी ‘तकलीफ’ हुई।
सिखों के इतिहास पर यदि गौर करें तो यह कहना गलत नहीं होगा कि यदि सिख आंदोलन को हिंदुओं के बहुत बड़े बहुमत का सहयोग प्राप्त न होता तो कदाचित यह धर्म आज की वर्तमान स्थिति में नहीं पहुँच पाता। गौर करें तो इस्लाम के हमलों के खिलाफ यह हिंदुओं का प्रतिरोध ही था, जिसने सिख आंदोलन को सफल बनाया। ‘बहादुर शाहनामा’ से ज्ञात होता है कि चूँकि बंदा की क्रांति को हिन्दुओं को पूर्ण समर्थन था, इसी के खार में 1710 के सितंबर महीने में उसने हिन्दुओं को दाढ़ी बनाकर ही रहने की एक घोषणा जारी कर दी।
अब इतिहास के इसी वाकए को वर्तमान परिदृश्य के साथ जोड़कर देखें तो मोदी के दाढ़ी बढ़ाने पर विरोधियों को तकलीफ क्यों है, बखूबी समझा जा सकता है।
नोट: यह लेख अभिषेक सिंह राव द्वारा लिखा गया है