Monday, December 23, 2024
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प्रियंका गाँधी का ‘अहिंसा से मिली आज़ादी’ वाला झूठ: ये वायनाड के जनजातीय समाज का भी अपमान, आंबेडकर ने भी कहा था – अहिंसा से सब कुछ हासिल नहीं किया जा सकता

हमें इन तीनों घटनाओं को इसीलिए याद करानी पड़ रही है, क्योंकि कॉन्ग्रेस नेता प्रियंका गाँधी ने वायनाड में एक भाषण देते हुए कहा है कि भारत की स्वतंत्रता का आंदोलन अहिंसा पर आधारित था। राहुल गाँधी भी कई बार इस झूठ को दोहरा चुके हैं।

पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के मध्य में स्थित गणेश चंद्र एवेन्यू के पास एक INOX का एक सिनेमा हॉल है। इसके पास ही आपको 4 लोगों की प्रतिमाएँ दिखेंगी, साथ ही एक अजीब सी बंदूक की तस्वीर। बहुतों को इसके बारे में नहीं पता। इसका सम्बन्ध 26 अगस्त, 1914 से है जब कोलकाता के बीबीडी बाग़ में कुछ क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश गन स्टोर ‘रोड्डा एन्ड कंपनी’ से भारी मात्रा में हथियार लूटे थे। इनमें से कई क्रांतिकारियों में बाँटे गए, तो कई अंग्रेजों ने जब्त कर लिए।

हथियारों को ठिकाने लगाने में ‘गीताप्रेस’ के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार ने भी क्रांतिकारियों की मदद की थी। अंग्रेजों ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था, “डकैती/हत्या/हत्या के प्रयास के 54 मामलों में रोड्डा से लूटे गए पिस्तौलों का इस्तेमाल किया गया।” रास बिहारी बोस से लेकर बाघा जतिन तक, कइयों ने इन बंदूकों का इस्तेमाल किया। ये चारों मूर्तियाँ बिपिन बिहारी गांगुली, अनुकूल मुखर्जी, गिरीन्द्र नाथ बनर्जी और हरिदास दत्ता की हैं, जिन्होंने इस लूटकांड को अंजाम दिया था।

अब चलते हैं वायनाड, केरल की वो सुंदर जगह जहाँ से राहुल गाँधी ने 2019 में लोकसभा चुनाव जीता था। समय 102 साल और पीछे, सन् 1812 में। ये वो साल था, जब केरल की कुरुचियार जनजातीय समूह ने अंग्रेजों के खिलाफ बड़ा विद्रोह किया था। ये इतिहास की पुस्तकों में नहीं मिलता। इसके अलावा एक और जनजातीय समुदाय है यहीं का – कुरुमा। उसने भी ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के खिलाफ युद्ध छेड़ा था। थालाक्कल चंदू और रमन नाम्बि इस संघर्ष के नायक थे।

‘कोलपयट्टु’ नामक मर्शक आर्ट की लड़ाई में दक्ष नाम्बि के नेतृत्व में जनजातीय समाज के लोगों ने अंग्रेजों से जम कर लोहा लिया था। तीर-धनुष और भाले चलाने का प्रशिक्षण उन्होंने अपने समाज के लोगों को दिया। तब चिन्गेरी, पोक्कम, मुद्रामूला, गणपतवट्टोम और मुट्टी जैसी जगहों पर अंग्रेजों से जनजातीय समाज की लड़ाई हुई। उनकी मौत के बाद अंग्रेजों ने उनके सिर को काट कर उनके छोटे से बेटे के सामने प्रदर्शनी लगा दी थी, ताकि लोगों में भौ फैले। उत्तरी वायनाड और कूर्ग की सीमा पर उनकी मृत्यु हुई थी।

अब चलते हैं कर्नाटक के शिवमोगा में। यहाँ एक जगह है ईस्सूर, जहाँ अंग्रेजों की फ़ौज ने जम कर तबाही मचाई थी। चूँकि क्रांतिकारी आसपास के जंगलों में छिपे हुए थे, महिलाओं को अंग्रेजों ने शिकार बनाया। महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और उनके घरों को आग के हवाले कर दिया गया। 20 निर्दोषों को मार डाला गया। नाबालिगों को गिरफ्तार किया गया। ये घटना आज़ादी के आंदोलन के अंतिम चरण की है, 1942-43 की।

अंग्रेजों ने लोगों ने घरों से बाहरी मात्रा में लूट को अंजाम दिया था। रुपए और आभूषण लूट लिए गए थे। जमींदारों के घरों में भी छापेमारी कर के उन्हें प्रताड़ित किया गया था। दर्जनों को बेंगलुरु के सेन्ट्रल जेल में भेज दिया गया था। इन सबका कारण था – गाँव ने 1942 में खुद को आज़ाद घोषित कर दिया था। यहाँ के स्वतंत्रता सेनानियों को उचित सम्मान नहीं मिला। पूरे कर्नाटक को ईस्सूर से प्रेरणा मिली। एक कहावत चलने लगी कि पूरा कर्नाटक दे देंगे लेकिन ये जगह नहीं।

पश्चिम बंगाल, केरल और कर्नाटक की इन 3 घटनाओं का जिक्र करने के पीछे एक कारण है। पहली घटना बताती है कि क्रांतिकारियों को हथियारों की सख्त ज़रूरत थी, इसीलिए इस तरह की कई लूट की घटनाओं को अंजाम दिया गया। हथियार क्यों, अंग्रेजों से लड़ने के लिए। दूसरी घटना बताती है कि सुदूर जंगलों के आदिवासी भी बरछे-धनुष लेकर अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए हुए थे। तीसरी घटना बताती है कि क्रांतिकारियों से अंग्रेजों को इतनी दिक्कतें थीं कि उनके महिलाओं-बच्चों तक को वो नहीं छोड़ते थे।

हमें इन तीनों घटनाओं को इसीलिए याद करानी पड़ रही है, क्योंकि कॉन्ग्रेस नेता प्रियंका गाँधी ने वायनाड में एक भाषण देते हुए कहा है कि भारत की स्वतंत्रता का आंदोलन अहिंसा पर आधारित था। राहुल गाँधी भी कई बार इस झूठ को दोहरा चुके हैं। क्या ये उन क्रांतिकारियों का अपमान नहीं है, जिन्हें अंग्रेजों ने फाँसी पर लटका दिया? क्या ये उनके परिवारों का अपमान नहीं, जिन्होंने देश के लिए उनके योगदान का परिणाम उन्हें खो कर चुकाया?

पूछने को तो पहला सवाल यही पूछा जाना चाहिए कि अगर अहिंसा से आज़ादी मिली तो भगत सिंह, राजदुरु और सुखदेव ने किस चीज के लिए हँसी-ख़ुशी फाँसी के फंदे पर झूलना पसंद किया? सुभाष चंद्र बोस ने जर्मनी से लेकर जापान तक की यात्रा कर के एक संगठित सेना किसलिए बनाई? मंगल पांडेय ने विद्रोह का कौन सा बिगुल फूँका था? झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने बेटे को पीठ पर लाद कर युद्ध क्यों लड़ा था? इतनी कम उम्र में खुदीराम बोस ने क्यों बलिदान दिया?

आज़ादी उनलोगों ने नहीं दिलाई, जो कहते थे कि अहिंसा ही हमारा हथियार होना चाहिए लेकिन भारतीयों को विश्व युद्ध में अंग्रेजों के लिए लड़ने को भेज देते थे। ये कैसी अहिंसा? आज़ादी उनलोगों ने भी नहीं दिलाई, जो 12 दिन जेल में रह जाते थे तो उनका खानदान दिन-रात एक कर के उन्हें निकालता था। आज़ादी उस पार्टी ने भी नहीं दिलाई, जिसने देश को खंडित कर दिया। आज़ादी उनलोगों ने भी नहीं दिलाई, जो क्रांतिकारियों का केस तक लड़ने से इनकार कर देते थे।

इस झूठ को कॉन्ग्रेस पोषित वामपंथी इतिहासकारों ने इतनी बार पढ़ाया और दोहराया है कि लोगों के मन में बैठने लगा कि अहिंसा से ही आज़ादी मिली। कुछ इसी तरह का झूठ अंग्रेजों के समय भी फैलाया गया था, उनके द्वारा ही। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को ‘सिपाही विद्रोह’ बताया गया। वो तो भला हो वीर विनायक दामोदर सावरकर का, जिन्होंने लंदन में गहरा रिसर्च कर के पुस्तक लिखा और अंग्रेजों के इस प्रोपेगंडा का पर्दाफाश कर दिया।

कुल मिला कर बात ये है कि न तो आज़ादी अहिंसा से मिली और न ही कॉन्ग्रेस पार्टी ने दिलाई। खुद बाबासाहब भीमराव आंबेडकर ने लिखा है कि अहिंसा से सब कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। अहिंसा के धर्म को भी पालन करना उन्होंने अंसभव बताया है, क्योंकि कई ऐसे जीव हैं जो आँखों से दिखते भी नहीं। उन्होंने पूछा था कि कोई आपके घर में घुस कर आपकी पत्नी या बेटी का बलात्कार करे, तो क्या आप अहिंसा के धर्म का पालन करेंगे।

डॉ आंबेडकर की शब्दों में, “धर्मग्रंथ भी बुरे की हत्या को स्वीकृति देते हैं। सीमित दायरों में आधुनिक कानून भी इसे मंजूरी देता है। यदि आत्मरक्षा के लिए हिंसा के अलावा कोई चारा ही नहीं है, तो हिंसा का प्रयोग करना ही पड़ेगा।” उन्होंने अहिंसा की व्यापक परिभाषा को समझने पर जोर देते हुए कहा था कि महात्मा गाँधी जिसे अहिंसा कहते हैं, वो भी पूरी तरह अहिंसा नहीं है, क्योंकि किसी को दुःख पहुँचे तो वो भी हिंसा ही है।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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