महाराष्ट्र में 105 सीटों वाली भाजपा बैठ कर पूरा नाटक देख रही है, वहीं 56 सीटों वाली शिवसेना, 44 सीटों वाली कॉंग्रेस और 54 सीटों वाली एनसीपी मिल कर सरकार गठन की कोशिशों में हैं। एनसीपी, जिसके मुखिया राज्य के सबसे अनुभवी नेता शरद पवार हैं के मुक़ाबले कॉन्ग्रेस और शिवसेना में उनके क़द का कोई मराठा नहीं है। अगर आप परिणाम घोषित होने के बाद से ही शरद पवार के रुख को देखेंगे तो आपको एक पल के लिए राजनीति के लालू, मुलायम और ममता भी फीके नज़र आने लगे। शरद पवार ने नतीजों के बाद विपक्ष में बैठने की बात कह सबको हैरत में डाल दिया था।
महाराष्ट्र चुनाव के बाद शरद पवार के रुख को समझने के लिए चुनाव के 2 दिन पहले की एक घटना को देखना पड़ेगा। 17 अक्टूबर को शरद पवार चुनाव प्रचार के लिए सतारा पहुँचे। वहाँ विरोधी उम्मीदवार कोई साधारण व्यक्ति नहीं था। भाजपा ने 13वें छत्रपति और शिवाजी महाराज के वंशज उदयनराजे भोसले को लोकसभा उपचुनाव के लिए उम्मीदवार बनाया था। 3 बार सांसद रह चुके भोंसले ने एनसीपी छोड़ कर भाजपा का दामन थामा था। उनके गढ़ में पवार ने कहा कि लोकसभा चुनाव के दौरान उम्मीवार चुनने में उनसे ग़लती हुई और अबकी इस ग़लती को सुधार करना है। तभी बारिश शुरू हो गई। पवार भींगते-भींगते बोलते रहे। पवार ने कहा कि इंद्रदेव ने आशीर्वाद दिया है और सतारा में चमत्कार होगा। बाकी नेता पानी से बचने के लिए आसरा ढूँढ़ते रहे, पवार भाषण देते रहे।
परिणाम ये हुआ कि सोशल मीडिया में उनका भाषण वायरल हो गया। लोकसभा उपचुनाव का परिणाम आया तो 5 महीने पहले ही बड़ी जीत दर्ज करने वाले उदयनराजे हार गए। विधानसभा चुनाव में एनसीपी को कम सीटें आई। नतीजों के बाद टीवी बहसों में पार्टी प्रवक्ताओं ने कॉन्ग्रेस को सीधा सन्देश दिया कि जितनी भी सीटें आई हैं, वो पवार की मेहनत के कारण आई हैं। कॉन्ग्रेस के आला नेताओं ने सक्रियता से प्रचार नहीं किया था, उन्हें पवार को नेता मानना पड़ा। यानी जो पवार का रुख, वो कॉन्ग्रेस का फ़ैसला। अशोक चव्हाण और पृथ्वीराज चव्हाण जैसे दिग्गजों के रहते भी कॉन्ग्रेस को पवार ने अपने ‘एहसान’ तले लाद दिया। दोनों चव्हाण सोनिया दरबार में हाजिरी लगाते रह गए।
शरद पवार ने चुनाव परिणाम घोषित होते विपक्ष में बैठने की बात कही। मीडिया ने लाख उनके मुँह में जवाब डालना चाहा, वो जनादेश की बात करते रहे। इधर शिवसेना-भाजपा की कलह के बीच उन्हें पता था कि जब तक ठाकरे की पार्टी राजग में बनी हुई है, उसके साथ बातचीत करने तो दूर, दिखना भी सही नहीं होगा। संजय राउत 2 बार पवार के पास गए, लेकिन उन्होंने भाव नहीं दिया। यही कारण है कि दोनों बार राउत यह कहने को मजबूर हुए कि वे पवार से सरकार गठन पर चर्चा करने नहीं आए थे। एक बार उन्होंने दीवाली का बहना बनाया तो दूसरी बार कहा कि राज्य के राजनीतिक परिदृश्य तक ही चर्चा सीमित रही।
अगर मेरी बात नहीं मानी तो मैं जनादेश का सम्मान करना लगेगा अभी और कुर्सी छोड़ स्टूल ले के विपक्ष में बैठ जाएगा-शरद पवार का लेटेस्ट बयान pic.twitter.com/iodb2liWbC
— anurag shukla (@anuragbarabanki) November 12, 2019
इसी बीच, शरद पवार दिल्ली आकर सोनिया से भी मिले। पवार के रुख में सबसे बड़ा बदलाव उसी समय दिखा लेकिन मीडिया ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। सोनिया से मुलाकात के तुरंत बाद पवार ने विपक्ष में रहने के जनादेश की बात दुहराई, लेकिन एक अतिरिक्त लाइन के साथ। पवार ने कहा कि भविष्य में क्या होगा, वो नहीं बता सकते। पवार की इस बात के गूढ़ निहितार्थ थे। इसका पता तब चला, तब मुंबई के ताज होटल में उद्धव ठाकरे उनसे मिलने पहुँचे और सोनिया ने उनसे बात करने के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे और अहमद पटेल सरीखे वफादार वरिष्ठ नेताओं को भेजा। बस, यहीं से शरदराव का ‘पवार प्ले’ चालू हो गया और इस पूरी प्रक्रिया के वे केंद्र बिंदु बन गए।
शिवसेना को मजबूर किया कि वह मोदी कैबिनेट के अपने इकलौते मंत्री अरविंद सावंत का इस्तीफा दिलवाए। फिर हिंदुत्व का पहरेदार होने का दंभ भरने वाली पार्टी को अपना रुख नरम करने को मजबूर किया। अब तो यह भी चर्चा है कि सरकार बनाने के लिए शिवसेना मुस्लिमों को आरक्षण देने और वीर सावरकर को भारत रत्न देने की मॉंग से भी पीछे हट गई। यह सब कुछ उस पवार के दबाव में शिवसेना ने किया जो कुछ दिन पहले तक उसके निशाने पर थे।
मुस्लिम आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है, जो शिवसेना को उसके कोर वोटर से दूर कर सकता है और संभावित नई सरकार के एजेंडे में इसके शामिल होने से शिवसेना को नए मुस्लिम वोट मिलेंगे नहीं, पुराने हिन्दू वोट ज़रूर छिटक सकते हैं। तभी तो पवार शिवसेना को हर उस चीज पर राजी करना चाहते हैं, जिससे उसका कोर वोटर उससे दूर जाए। पवार जानते हैं कि उन्हें किसी राष्ट्रीय पार्टी से ख़तरा नहीं है।
उस जमाने का बंबई दो नेताओं के कारण थम जाता था। एक जॉर्ज फर्नांडीस और दूसरे बाल ठाकरे। इनके बीच जगह बनाकर सत्ता भोगना साधारण काम नहीं था। लेकिन, पवार ने ऐसा ही किया था। शायद, यही कारण है कि बाल ठाकरे क़रीबी सम्बन्ध होने के बावजूद राजनीतिक रूप से पवार से दूरी बना कर ही चलते थे। उन्होंने साफ़-साफ़ कहा था कि शरद पवार जैसे ‘लुच्चे’ के साथ तो वो कभी नहीं जा सकते। बाल ठाकरे के भाषण सुन कर राजनीतिक में आए छगन भुजबल ने 1990 में शिवसेना तोड़ दी थी। मनोहर जोशी को नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने के बाद कॉन्ग्रेस में आए भुजबल को मंत्री बनाया गया था। ठाकरे को लगा कि पवार व्यक्तिगत संबंधों के कारण इस टूट के ख़िलाफ़ होंगे लेकिन पवार ने चुप्पी साध ली। बाल ठाकरे ने इस धोखे को याद रखा। ये वही शरद पवार हैं, जिन्होंने 1978 में वसंतदादा पाटिल की सरकार तोड़ दी और राज्य के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने थे। ठाकरे मानते थे कि शरद पवार ने अपने मेंटर यशवंतराव चव्हाण को भी धोखा दिया है।
Congress leaders from Delhi have meeting with Sharad Pawar | pic.twitter.com/lFICFmrS6P
— MUMBAI NEWS (@Mumbaikhabar9) November 12, 2019
तभी तो बालासाहब ने शरद पवार से चिढ कर उन्हें ‘नीच मानुष’ करार दिया था। ये वही शरद पवार हैं, जिन्होंने मुंबई बम ब्लास्ट के दौरान धमाकों की संख्या को 12 से 13 कर दिया था। उन्होंने 1 अतिरिक्त बम धमाका अपने मन से गढ़ा। उन धमाकों में केवल हिन्दू बहुल इलक़ों को निशाना बनाया गया था। पवार ने एक मस्जिद में विस्फोट होने की बात कह यह दिखाया कि यह ‘सेक्युलर’ धमाका था। ये वही शरद पवार हैं, जिन्होंने सोनिया गाँधी के विदेशी मूल के होने की बात को लेकर कॉन्ग्रेस तोड़ दी थी, लेकिन बाद में उसी कॉन्ग्रेस के साथ सत्ता का सुख भोगा।
याद कीजिए जब लोकसभा चुनाव के दौरान शरद पवार ने बारामती सीट से अपनी उम्मीदवारी को नकार दिया था। अपने गढ़ में भी उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा और कहा कि वो बहुत चुनाव लड़ चुके। तब पीएम मोदी ने उनके बारे में बोलते हुए कहा था:
“शरदराव पवार समझ जाते हैं कि हवा का रुख किस तरफ है। चारों तरफ भगवा बादल हैं। शरदराव एक चतुर राजनेता हैं, जिन्होंने बदली परिस्थितियों को भाँप लिया है। वह कभी भी ऐसी किसी चीज में शामिल नहीं होते, जो उन्हें या उनके परिवार को नुकसान पहुँचाए। इसलिए, उन्होंने चुनावी मैदान छोड़ दिया।”
कहते हैं, असली योद्धा वही होता है जिसे पता हो कि कब मैदान में डटे रहना है और कब मैदान छोड़ देना है। पवार को यह बखूबी पता है। महाराष्ट्र चुनाव परिणाम के बाद एकदम चुप्पी साध लेना और धैर्य से प्रतीक्षा करते हुए कुछ ही दिनों बाद सरकार गठन के प्रयासों पर हावी हो जाना इस 79 वर्षीय राजनेता का हुनर ही है। ज्यादा पीछे क्यों जाएँ? 1999 में भी तो शिवसेना और भाजपा झगड़ती रह गई थी, शरद पवार सत्ता हथिया ले गए थे। तब गोपीनाथ मुंडे को सीएम बनाने में जुटी भाजपा और उसे ‘कमलाबाई’ बता कर मोलभाव में जुटी शिवसेना के कलह के बीच विलासराव देशमुख सीएम बने और शरद पवार सत्ता के साझीदार।