कोरोना की दूसरी लहर तेज और ख़तरनाक है। परिस्थितियों को उन्हें देखकर कहा जा सकता है कि दूसरी लहर ने हमें जिस रफ़्तार से हिट किया है, उसकी कल्पना अधिकतर भारतीयों ने नहीं की थी। यह अलग बात है कि लगभग तीन महीने पूर्व केंद्र सरकार ने राज्यों को कोरोना पर क़ाबू पाने के लिए अपने नियम ख़ुद बनाने का अधिकार भी दिया है।
पर आज एक समाचार में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का एक वक्तव्य पढ़ने को मिला जिसमें उन्होंने कहा है कि; केंद्र सरकार ने कोरोना की दूसरी लहर को लेकर राज्यों को आगाह नहीं किया। यदि आगाह कर देते तो हम तैयार रहते।
इस महामारी को लेकर बघेल की समझ क्या है वह नहीं पता, पर वक्तव्य पढ़कर लगा जैसे उन्हें इस बात का विश्वास था कि दूसरी लहर को लेकर भविष्यवाणी तूफ़ान के बारे में मौसम विभाग द्वारा की गई भविष्यवाणी जैसी होती है, जिसे केंद्र सरकार के विभाग क़रीब दो सप्ताह पहले बता सकते हैं। और यदि केंद्र सरकार बता देती तो बघेल सरकार तैयार रहती, भले ही बघेल आसाम में पार्टी के चुनाव प्रचार में व्यस्त थे।
महामारी के समय सूचना, वक्तव्य, निर्देश और राजनीति की भरमार है पर उससे इस महामारी को नियंत्रित करने में मदद नहीं मिल सकती। उद्धव ठाकरे की प्रधानमंत्री को लिखे गए पत्रों को ही ले लीजिए। वे कोरोना पर प्रधानमंत्री के साथ मीटिंग करते हैं पर उन्हें ही दूसरे दिन पत्र भी लिख डालते हैं, कभी इस माँग के साथ कि स्टेट डिज़ैस्टर मैनज्मेंट फंड का इस्तेमाल सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार कोरोना को प्राकृतिक आपदा घोषित कर दे और कभी यह बताने के लिए कि उन्होंने प्रधानमंत्री को फ़ोन किया था पर उनके कार्यालय से जवाब मिला कि प्रधानमंत्री बाहर हैं और अभी नहीं मिल सकते। शायद इसीलिए महाराष्ट्र का हाल यह है कि वहाँ तो पहली लहर ही ख़त्म नहीं हुई और जब देश के और राज्यों ने पहली लहर पर लगभग पूरी तरह से क़ाबू पा लिया था, महाराष्ट्र सरकार अपने राज्य के नागरिकों को कभी विश्वास ही नहीं दिला पाई।
इस मामले में दिल्ली का हाल भी कोई अलग नहीं रहा। दिल्ली के मुख्यमंत्री वीडियो बनाकर दावा करते रहे कि राज्य के अस्पतालों में पर्याप्त मात्रा में बेड उपलब्ध हैं और इधर जनता उनके इस दावे की पोल खोलती रही।
लगभग हर राज्य दवाई, ऑक्सीजन, इंजेक्शन की कमी से जूझ रहा है। अंतर बस इतना है कि उनमें से कुछ इस स्थिति से निकलने की कोशिश कर रहे हैं और कुछ इसी में बने रहने के लिए राजनीति करते जा रहे हैं।
अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी को ही ले लीजिए। कई मौक़े पर देखने को मिला कि ऑक्सीजन जब ख़त्म होने वाला रहता है, उसके तीन-चार घंटे पहले वक्तव्य आता है कि बस चार घंटे के लिए ही ऑक्सीजन है। यदि चार घंटे में मुहैया न कराया गया तो फलाने अस्पताल के मरीज़ न बच सकेंगे। यह कैसी व्यवस्था है जिसमें अस्पताल को चार घंटे पहले ही पता चलता है कि ऑक्सीजन ख़त्म होने वाला है और अब इसे लेकर शोर मचाना चाहिए? कहीं कोई स्टॉक रजिस्टर होता होगा या नहीं? क्या हम मान लें कि अस्पताल को यह नहीं पता है कि उसके पास कितना ऑक्सीजन है और कब ख़त्म होगा? या उसके पास कितने इंजेक्शन हैं और कब ख़त्म होंगे?
हमारे घरों में गृहणी भी यह जानती हैं कि रसोई में रखा गैस सिलेंडर कितने दिनों तक चलता है और यदि अचानक खाने वालों की संख्या बढ़ जाएगी तो कितनी जल्दी ख़त्म होगा। यदि एक गृहणी बिना किसी ERP सिस्टम के हिसाब लगा लेती हैं तो राज्यों और उसके अस्पतालों के पास तो सिस्टम है स्टॉक को ट्रैक करने का। शिफ़्ट इंचार्ज होते होंगे, जो जाने वाले इंचार्ज से पेपर लेते होंगे। फिर ऐसा क्यों है कि जीवन और मृत्यु के मामले तय करने वाला अस्पताल तंत्र अंत में ही जागता है? उसे इतनी देर से ही क्यों पता चलता है कि ऑक्सीजन बस ख़त्म ही होने वाला है?
टीकाकरण की योजना का क्रियान्वयन भी कई राज्यों में औसत से नीचे रहा है। महाराष्ट्र सरकार और सत्ताधारी दलों द्वारा टीके की उपलब्धतता को लेकर भी राजनीति की गई कि केंद्र सरकार राज्य को पर्याप्त मात्रा में टीके नहीं दे रही है। छत्तीसगढ़ तो उससे भी कई कदम आगे रहा जहाँ मुख्यमंत्री ने भी भारत में बनने वाले टीके को लेकर वक्तव्य दिया, उसे रद्दी बताया और देश तथा प्रदेश की जनता के मन में टीके को लेकर शंका पैदा की। शुरुआती दिनों में राजस्थान, गुजरात और कर्नाटक में भी टीकाकरण की रफ़्तार संतोषजनक नहीं थी। देखकर लगता है जैसे एक ही बात हमारी सरकारों को जोड़ती है और वह है अक्षमता। जैसे राज्य इस मामले में एक-दूसरे से होड़ लगा रहे हैं।
अब तक जो भी हुआ है उसे सुधारने का मौका सरकारों के पास फिर आएगा और वह मौक़ा होगा एक मई से शुरू होने वाले वृहद् टीकाकरण को सुचारु रूप से चलाना और उसकी योजना को पूरा करते हुए नागरिकों में एक विश्वास पैदा करना। इस बार ठीकरा केंद्र सरकार पर फोड़ना आसान न होगा क्योंकि केंद्र ने राज्यों को पर्याप्त अधिकार देने की घोषणा पहले ही कर दी है।
4 घंटे का ऑक्सीजन बचा है, 44 घंटों का क्यों नहीं? क्यों अंत में ही जागता है अस्पताल और राज्य सरकारों का तंत्र?
जीवन-मृत्यु के मामले तय करने वाला अस्पताल तंत्र अंत में ही क्यों जागता है? राज्य की सरकारें पहले से तैयार रहने के बजाय केंद्र सरकार का बाट क्यों जोहती हैं?
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