लोकतांत्रिक देशों में पोलिटिकल करेक्टनेस की खातिर मुस्लिम समाज को लेकर कुछ कहना या न कहना अब एक मर्ज बन चुका है। यूरोपीय देश हों या अमेरिका, कनाडा हो या भारत, हर देश में केवल राजनीति ही नहीं, प्रशासन, मीडिया और न्याय-व्यवस्था तक इस मर्ज से पीड़ित है।
इन सबके ऊपर यह कि मर्ज बढ़ता जा रहा है और फिलहाल कोई इलाज नहीं सूझ रहा। पोलिटिकल करेक्टनेस की रक्षा में इलाज खोजने की कोशिश बंद कर देना एकमात्र इलाज दिखाई दे रहा है। जैसे सब उसी समाज से अनुरोध कर रहे हों कि; तुम्हीं कोई इलाज बताओ।
भारत में यह मर्ज पिछले चार दशकों में जिस तेज़ी से फैला है, वैसा उदाहरण बहुत कम देशों में दिखाई देता है। पहले, जब राजनीतिक आचरण और प्रतिक्रियाएँ केवल परंपरागत मीडिया पर दिखाई देते थे, तब किसी भी टिप्पणी में शब्दों का चयन तक बहुत योजनाबद्ध तरीके से किया जाता था। हाल यह था कि दल या नेता बोलने से पहले शब्दों पर मात्र इसलिए ध्यान रखते थे कि कहीं कोई नाराज न हो जाए। अब इसलिए ध्यान रखते हैं कि कहीं कोई हिंसा पर उतारू न हो जाए।
शरुआती दिनों में राजनीतिक दलों के नेता अपने वक्तव्यों में इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों को लेकर सावधानी बरतने लगे। आगे चलकर यह सावधानी ऐसी फली-फूली कि रमजान के दौरान ‘सेक्युलर’ नेता इफ्तार पार्टियों में शामिल होने के लिए अरबों की तरह पोशाक पहन कर आने लगे।
एक समय ऐसा भी आया जब यह बात केवल राजनीतिक दलों तक सीमित नहीं रही और संवैधानिक पदों पर बैठा लगभग हर व्यक्ति रमजान के दिनों में इफ्तार का आयोजन करने लगा। इसका असर यह हुआ कि ‘सेक्युलर’ नेता इन दिनों में मुस्लिम समाज के लोगों से भी अधिक मुस्लिम दिखाई देने लगे। मीडिया इफ्तार की कवरेज के लिए पूरी टीम खड़ी करने लगा। बीबीसी कश्मीरी आतंकवादियों के लिए गनमेन जैसे शब्दों का प्रयोग करने लगा।
मीडिया ने मुस्लिम समाज के लिए समुदाय विशेष जैसे शब्दों का प्रयोग शुरू किया। पोलिटिकल करेक्टनेस की महिमा थी कि प्रशासन ने भी इस समाज को छूट देनी शुरू की। भारत सरकार के विदेश मंत्रालय की ओर से मुस्लिम देशों से सम्बंधित किसी मुद्दे पर दिए जाने वाले वक्तव्यों और प्रेस नोट में इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों ने पोलिटिकल करेक्टनेस को उसकी पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया।
राजनीतिक दल पाकिस्तान या फिलिस्तीन के खिलाफ कुछ भी बोलने से कतराने लगे क्योंकि उन्हें लगता था कि भारतवर्ष का मुसलमान नाराज़ हो जाएगा। इसी पोलिटिकल करेक्टनेस का तकाजा था जो मणिशंकर ऐय्यर ने एक पाकिस्तानी न्यूज़ चैनल पर मोदी सरकार के बारे में कहा कि; उन्हें हटाइए, हमें ले आइए और राजनीति के इसी पहलू ने पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह से कहलवाया कि; देश के संशाधनों पर पहला अधिकार मुसलामानों का है।
कालांतर में शब्दों और प्रतिक्रियाओं को लेकर सतर्क लोगों ने अपने पोलिटिकल करेक्टनेस को नया आयाम दिया और इस समाज से जुड़े अधिकतर विषयों और घटनाओं पर प्रतिक्रिया देनी ही बंद कर दी। राजनीतिक प्रॉफिट-लॉस से उत्पन्न होने वाली पुरानी आदतों का असर यह हुआ कि जहाँ भी संदेह होता कि कोई बात समाज को नाराज़ कर सकती है, वह बात कही ही नहीं गई। सतर्कता के साथ दी जाने वाली प्रतिक्रिया की नीति को प्रतिक्रिया न देने वाली नीति ने रिप्लेस कर दिया।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के आने के बाद और अधिकतर लोगों की उस पर उपस्थिति के कारण किसी भी घटना पर तुरंत प्रतिक्रिया देना एक स्वाभाविक बात हो गई। सोशल मीडिया का चरित्र ही ऐसा है कि लगातार बदलती हेडलाइन के बीच त्वरित प्रतिक्रिया आवश्यक हो जाती है। ऐसे में सोची-समझी और सावधान प्रतिक्रिया के लिए स्पेस कम बचा है। यही कारण है कि सोशल मीडिया पोस्ट पर अब मुस्लिम समाज सबसे अधिक और सबसे पहले नाराज होता है। एक फेसबुक पोस्ट के कारण बंगलुरू में हुए दंगे इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। उसके पहले पश्चिम बंगाल में भी फेसबुक पोस्ट पर दंगे हुए थे। छोटी-छोटी बातों पर इस समाज को नाराज़ होते देर नहीं लगती।
बंगलुरू में हुए दंगे तो एक आम भारतीय के फेसबुक पोस्ट पर हुए थे और ऐसी घटनाओं का एक पूरा इतिहास रहा है। पर यह घटनाएँ अब आम भारतीयों के सोशल मीडिया पोस्ट तक सीमित नहीं रहीं और अब नेताओं और मंत्रियों के सोशल मीडिया पोस्ट पर भी होने लगी हैं।
केरल में जो हुआ, इसका सबसे बड़ा उदहारण है। एक खबर के अनुसार मुख्यमंत्री विजयन और पूर्व मुख्यमंत्री ओमेन चंडी को अपने-अपने फेसबुक पोस्ट में इसलिए बदलाव करना पड़ा क्योंकि हाल ही में इजराइल में हमास द्वारा किए हमले में मारी गईं केरल की सौम्या संतोष की मृत्यु पर दुःख प्रकट करते हुए मुख्यमंत्री विजयन ने लिखा था कि; सौम्या की मृत्यु उग्रवादियों द्वारा फायर किए गए रॉकेट की वजह से हुई।
भाजपा नेता शोभा सुरेंद्रन की मानें तो मुस्लिम समाज की ओर से इतना बड़ा बवाल हुआ कि मुख्यमंत्री विजयन और पूर्व मुख्यमंत्री चंडी को अपने फेसबुक पोस्ट को एडिट करके उग्रवादी शब्द हटाना पड़ा। केरल की हालत को लेकर आए दिन बहस छिड़ी रहती है कि कैसे राज्य में छोटी-छोटी बात पर मुस्लिम समाज के लोग न केवल नाराज हो जाते हैं बल्कि अपनी ताकत दिखाने का कोई मौका जाने नहीं देते।
अब हालात ऐसे हैं कि बवाल करके मुख्यमंत्री तक के फेसबुक एडिट करवाए जा रहे हैं। किसी और देश में रॉकेट हमला करने वालों को यदि भारत के एक राज्य के मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री उग्रवादी नहीं कह सकते तो फिर क्या होना है, उसका अनुमान लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है।
यह पोलिटिकल करेक्टनेस का ही असर है कि कान्ग्रेस के नेता ओमेन चंडी को फिलिस्तीन के समर्थकों ने याद दिलाया कि इंदिरा गाँधी और यासेर अराफात के सम्बन्ध कितने प्रगाढ़ थे। सीपीआई (एम) ने तो केंद्र सरकार को सुझाव दिए कि किन शब्दों में इजराइल की आलोचना करनी है और फिलिस्तीन का समर्थन करना है। सोशल मीडिया के जमाने में पोलिटिकल करेक्टनेस जहाँ एक तरफ कम हो रहा है, वहीं दूसरी तरफ दबाव में बढ़ भी रहा है। आने वाले समय में यह किस ओर जाएगा, यह देखना दिलचस्प होगा।