इस्लामवादियों ने किसी को झुकाने, अपने आधिपत्य को साबित करने और अपने आलोचकों को चुप कराने के लिए हिंसा को रणनीतिक टूल के रूप में हमेशा से इस्तेमाल किया है। सदियों से हिंसा को संस्थागत रूप देकर अपनी धार्मिक हठधर्मिता और मजहब के आलोचनात्मक मूल्यांकन को रोक दिया है।
जब भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा ने इस्लामिक हदीसों का उदाहरण देकर इस्लाम के पैगंबर मुहम्मद पर टिप्पणी की तो इस्लामवादियों ने हिंसा करने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई। इतना ही नहीं, इस हिंसा का उपयोग उन्होंने आलोचकों में डर पैदा करने और सरकार पर दबाव बनाने के लिए भी किया।
इस्लामवादी कभी नहीं चाहते कि इस्लाम की शिक्षाओं या पैगंबर मुहम्मद के जीवन की कभी खुली चर्चा की जाए। जो कोई भी इस्लाम या पैगंबर मुहम्मद पर बात करता है, उसे इस्लामवादियों से कड़ी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ता है और वे सड़कों पर हिंसा करते हैं। उनके लिए इस्लाम अहिंसक और उनके पैगंबर आलोच्य नहीं हैं।
अगर किसी ने इस्लाम या पैगंबर के बारे में कुछ कहा तो सड़कों पर उतर पर हिंसा का विद्रुप खेल खेलने से परहेज नहीं करते। ये इस्लामवादी झुंड और प्रचंड हिंसा के इस्तेमाल से सरकारों और अधिकारियों को अपनी बोली मनवाने के लिए मजबूर करने में काफी सफल रहे हैं। उन्होंने इस्लामी सिद्धांतों के सार्वजनिक बहस के किसी भी प्रयास को दबाने और भारत की सहस्राब्दी पुरानी बहुलतावादी संस्कृति को दबाने के लिए हिंसा को वीटो के रूप में इस्तेमाल करने के कौशल में महारत हासिल कर ली है।
भारतीय तटों पर इस्लामी आक्रमणकारियों के आगमन ने खानाबदोश जनजातियों की आदिम संस्कृति को नष्ट किया, जो ‘काफिरों’ और गैर-इस्लामियों के खिलाफ दमन के साधन के रूप में हिंसा का उपयोग करने से नहीं कतराते थे। हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों और अन्य धर्मों के लोगों पर अत्याचार किया गया, उन्हें सताया गया और मार डाला गया, क्योंकि उन्होंने अपने धर्म को छोड़ने और इस्लाम को अपनाने से इनकार कर दिया था।
भारत के अधिकांश इतिहास में हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच संघर्ष जारी रहा, क्योंकि मुस्लिम शासकों ने हिंदुओं का नरसंहार किया, उनके पूजा स्थलों को ध्वस्त कर दिया और उनकी महिलाओं को गुलाम के रूप में लिया। पिछली शताब्दी में इस्लामवादियों ने अपनी राजनीतिक और सामाजिक ताकत को मजबूत करने के लिए सड़कों पर हिंसा को एक रणनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। इस हथियार पर उन्होंने क्या हासिल किया, ऐसे पाँच प्रमुख बिंदुओं की चर्चा करेंगे।
भारतीय दंड संहिता में धारा 295A को शामिल करना
इस्लामवादियों ने अपनी माँगों को आगे बढ़ाने और मौजूदा सरकार से रियायतें हासिल करने के लिए लंबे समय से हिंसा का इस्तेमाल करते रहे हैं। हालाँकि, उनकी पहली सबसे बड़ी उपलब्धि भारतीय दंड संहिता (IPC) में धारा 295A को शामिल करने के साथ आई। धारा 295A किसी भी धर्म या उसके विश्वासों का अपमान कर धार्मिक भावनाओं को आहत करने संबंधित है।
धारा 295A की जड़ें 1927 से जुड़ी हैं, जब हिंदू देवी-देवताओं का मजाक उड़ाने वाले इस्लामवादियों के लगातार उकसावे के जवाब में ‘रंगीला रसूल’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित की गई थी। ‘रंगीला रसूल’ शीर्षक से एक पैम्फलेट लॉन्च किया, जो मुहम्मद के घरेलू जीवन पर एक व्यंग्य है।
इसे पैगंबर मुहम्मद का अपमान बताते हुए अविभाजित भारत के मुस्लिमों ने तीखी प्रतिक्रिया दी। इसके विरोध में इस्लामवादी सड़कों पर उतर आए और इसके लेखक और प्रकाशक की गिरफ्तारी की माँग की। प्रकाशक महाशय राजपाल को शुरू में गिरफ्तार किया गया था, लेकिन बाद में अदालत ने उन्हें रिहा कर दिया।
इसके बाद कई जगहों पर मौलानाओं द्वारा भड़काऊ भाषण दिए गए, जिसके बाद दंगे भड़क उठे। जमीयत-उलेमा-ए-हिंद की एक आधिकारिक शाखा अल-जमीयत ने एक लेख में चेतावनी दी थी कि ‘शरिया के तहत पैगंबर का अपमान करने की सजा मौत है और पैगंबर का अपमान करने वालों को मारना कानूनी रूप से जायज है’।
महाशय राजपाल की रिहाई के बाद विरोध और प्रदर्शनों को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने धार्मिक भावनाओं का अपमान करने के खिलाफ एक कानून बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसके बाद साल 1927 में भारतीय दंड संहिता में धारा 295A को सम्मिलित किया गया। हा
हालाँकि, कानून बनने के बाद भी इस्लामवादी ‘गुस्ताख-ए-रसूल की एक ही सजा, सर तन से जुदा’ का का पालन करते रहे और दो साल बाद 1929 में एक 19 वर्षीय इल्म उद दीन नाम के इस्लामवादी ने चाकू मारकर महाशय राजपाल की हत्या कर दी।
भारत का बँटवारा
भारत का विभाजन इतिहास का एक और खूनी अध्याय है, जब इस्लामवादियों ने हिंसा के और हिंदू विरोधी दंगों के जोर पर भारत का बँटवारा कर अपने लिए पाकिस्तान ले लिया। भारत की स्वतंत्रता के वर्षों पहले द्वि-राष्ट्र सिद्धांत देने वाली मुस्लिम लीग ने कट्टरपंथी मुसलमानों को शरिया द्वारा शासित एक इस्लामी देश का वादा करके संगठित किया।
हालाँकि, जब कॉन्ग्रेस ने मुस्लिम लीग की भारत विभाजन के माँग को खारिज कर दिया तो देश भर में हजारों और लाखों इस्लामवादी हिंसा के लिए सड़कों पर उतर आए। इस दौरान दंगे, हिंसा और बर्बरता करके उन्होंने अपनी माँगों को मनवाने के लिए बाध्य किया। अंत में कॉन्ग्रेस भारत विभाजन के लिए सहमत हो गई।
सैटेनिक वर्सेज के कारण छुपने के लिए बाध्य हुए सलमान रुश्दी
लेखक सलमान रुश्दी की 1989 में लिखित ‘द सैटेनिक वर्सेज’ को ईशनिंदा बताकर मुस्लिम समुदाय बड़े पैमाने पर बवाल कर दिया। इस्लामवादियों ने इस किताब को लेकर रुश्दी पर इस्लाम को ‘धोखेबाज, अज्ञानी और यौन रूप से विचलित धर्म’ के रूप में चित्रित करने का आरोप लगाया।
भारत भी रुश्दी की इस किताब से प्रभावित था। इस्लामवादियों के आगे झुकते हुए खुद को लोकतांत्रिक कहने वाला भारत द सैटेनिक वर्सेज पर पहले प्रतिबंध लगाकर कुछ चुनिंदा देशों में से एक बन गया। भारत के गृह मंत्रालय ने तब राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली कॉन्ग्रेस सरकार से सिफारिश की थी कि उक्त पुस्तक के प्रकाशन और बिक्री से भारत में दंगों जैसी स्थिति पैदा हो सकती है।
राजीव गाँधी सरकार ने गृह मंत्रालय की सिफारिश को स्वीकार कर लिया और किताब पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा कर दी। उधर ईरान के अयातुल्ला रूहोल्लाह खुमैनी ने मुस्लिमों से रुश्दी को मारने का फातवा जारी कर दिया था। यहाँ तक कि कॉन्ग्रेस ‘उदारवादी मुस्लिम’ सलमान खुर्शीद ने भी किताब पर प्रतिबंध को सही ठहराया था।
इस्लामवादियों के आगे आत्मसमर्पण करते हुए सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। हालाँकि, कई इस्लामी मुल्कों ने पुस्तक पर प्रारंभिक प्रतिबंध हटा दिया, लेकिन भारत ने प्रतिबंध को जारी रखा। इस पूरे प्रकरण ने कट्टरपंथी को अपने फैसलों को प्रभावित करने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता के लिए अपनी पुरानी प्रतिबद्धता को कमजोर करने की अनुमति देकर भारत सरकार उनकी आगे की रणनीति को आसान कर दिया।
शाह बानो मामले में राजीव गाँधी द्वारा घुटने टेकना
1986 में राजीव गाँधी की सरकार ने मुस्लिम कट्टरपंथियों के सामने आत्मसमर्पण कर एक खतरनाक मिसाल कायम की। मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम एवं अन्य मामले को लेकर कॉन्ग्रेस सरकार द्वारा पारित कानून को भारत के राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण के रूप में याद किया जाता है।
दरअसल, 62 वर्षीय मुस्लिम महिला शाह बानो ने अप्रैल 1978 में अदालत में एक याचिका दायर कर अपने तलाकशुदा पति और इंदौर (मध्य प्रदेश) के वकील मोहम्मद अहमद खान से गुजारा भत्ता की माँग की। शाह बानो के पति खान ने कहा कि वह किसी भी हर्जाने के लिए भुगतान के लिए बाध्य नहीं हैं, क्योंकि वह इस्लामी कानून के तहत उनकी पत्नी नहीं हैं।
दोनों की शादी 1932 में हुई थी और उनके पाँच बच्चे थे- तीन बेटे और दो बेटियाँ। शाह बानो ने अदालत में अपने पाँच बच्चों के लिए भरण-पोषण का दावा दायर किया। अगस्त 1979 में शाह बानो ने स्थानीय अदालत में भरण-पोषण का मामला जीता, जो खान को 25 रुपये प्रति माह के रखरखाव के साथ प्रदान करने का आदेश दिया। हालाँकि, खान ने इस आधार पर दावे को चुनौती दी कि भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ में पति को तलाक के बाद इद्दत अवधि के लिए केवल रखरखाव प्रदान करने की जरूरत होती है।
मामला जब सुप्रीम कोर्ट पहुँचा तब अप्रैल 1985 में एक ऐतिहासिक फैसले में कोर्ट ने शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के फैसले को यह कहते हुए बरकरार रखा कि वह अपने पति द्वारा भरण-पोषण के लिए भुगतान की हकदार थी।
इसके बाद इस्लामवादियों ने हिंसा की अपनी कला का इस्तेमाल करते हुए एक बार फिर हिंसा और डराने-धमकाने का सहारा लिया। मुस्लिम कट्टरपंथियों ने फैसले को मुस्लिम पर्सनल लॉ को कमजोर करने के प्रयास के रूप में इसके खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिए।
मुस्लिम कट्टरपंथियों और मौलवियों ने 1984 में चुनी गई तत्कालीन राजीव गाँधी सरकार को मुस्लिम महिला (तलाक पर संरक्षण अधिनियम), 1986 पारित करने के लिए बाध्य किया। इस कानून ने शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को उलट दिया। इस कानून ने तलाकशुदा मुस्लिम महिला को केवल इद्दत की अवधि के दौरान या तलाक के 90 दिनों तक भरण-पोषण की व्यवस्था की।
इस्लामी कट्टरपंथियों के दबाव में नरसिम्हा राव सरकार ने पूजा स्थल अधिनियम बनाया
1990 के दशक की शुरुआत में राम जन्मभूमि आंदोलन हिंसा और दंगों के साथ जुड़ गया, क्योंकि मुस्लिम कट्टरपंथियों ने विवादित बाबरी ढाँचे को लेकर हिंदू पक्ष की माँग के विरोध में सड़कों पर उतर गए। चूँकि आंदोलन अपने चरम पर था तो इस्लामवादियों का यह दबाव काम नहीं आया और वे रियायत की बात करने लगे।
नतीजतन, केंद्र में नरसिम्हा राव सरकार ने भारत में हिंदुओं द्वारा राम जन्मभूमि जैसे सुधार आंदोलनों को रोकने के उद्देश्य से एक नया कानून बनाया। यह कानून पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 था।
इस अधिनियम के उद्देश्यों में कहा गया है कि 15 अगस्त 1947 के दिन के स्वरूप वाले किसी पूजा स्थल के रूप या चरित्र में बदलाव से संबंधित को कोई भी वाद मान्य नहीं होगा और न्यायालय ऐस किसी वाद पर विचार नहीं कर सकता। हालाँकि, इसमें अयोध्या के राम मंदिर के मुद्दे को अलग रखा गया था।
इसका मतलब है कि यदि पूजा स्थल 15 अगस्त 1947 को एक मस्जिद है, तो इसका चरित्र एक मस्जिद ही रहेगा, भले ही वह मूल रूप से एक मंदिर क्यों ना हो। इस अधिनियम में पूजा स्थल के स्वरूप में किसी भी तरह के बदलाव की कोशिश के लिए सजा का प्रावधान किया गया है।
इस प्रकार, इस्लामवादी सरकार से अनुकूल कानून हासिल करने में सफल रहे, ताकि भविष्य में उनके कब्जे वाले हिंदू धार्मिक स्थलों को पुनः प्राप्त करने के लिए राम जन्मभूमि जैसा कोई आंदोलन न हो सके।
जब वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद के वुज़ुखाना के अंदर शिवलिंग की खोज की गई तो इस्लामवादियों ने हिंदुओं को पूजा स्थल अधिनियम- 1991 के प्रावधानों का हवाला दिया और कहा कि वे इस पर दावा नहीं कर सकते।