पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का सोमवार (31 अगस्त 2020) को देहांत हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक भावुक संदेश में उन्हें कद्दावर स्टेट्समैन बताते हुए कहा है कि उन्होंने देश की विकास यात्रा में अपनी अमिट छाप छोड़ी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने इसे अपूरणीय क्षति बताया है।
भारत रत्न प्रणब मुखर्जी ने 2018 में संघ के एक कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि शिरकत की थी। ‘संघ शिक्षा वर्ग-तृतीय’ नामक यह कार्यक्रम 7 जून 2018 को नागपुर के संघ मुख्यालय में हुआ था। प्रणब मुखर्जी के इस फैसले ने कॉन्ग्रेस को भी असहज कर दिया था। लेकिन उस दिन देश के प्राचीन इतिहास से लेकर उसकी संस्कृति तक प्रणब मुखर्जी ने जो कुछ कहा, वह बीते कल में भी प्रासंगिक था और आने वाले कल में भी प्रासंगिक रहेगा।
Any attempt at defining our nationhood in terms of dogma and identities or religion, region, hatred and intolerance will only lead to dilution of our identity: Dr Pranab Mukherjee at RSS’s Tritiya Varsh event in #Nagpur pic.twitter.com/wHpClA0Cde
— ANI (@ANI) June 7, 2018
प्रणब मुखर्जी की संघ के कार्यक्रम में उपस्थिति और भाषण ने देश को एक बड़ी बहस की ठोस ज़मीन दी थी। लोगों के लिए यह हैरान करने वाला था कि आखिर ऐसा हुआ कैसे? उन्होंने अपनी विचारधारा के विपरीत इतना बड़ा फैसला कैसे लिया? कुछ का मानना था कि वह इतिहास के प्राचीन पन्नों में इंगित धुँधली गाथाओं में उलझे रह गए। इसके उलट कुछ का कहना था कि वह मात्र भारत की गौरवगाथा का व्याख्यान था। इस प्रकार की तमाम प्रतिक्रियाएँ नज़र आईं लेकिन जो नहीं नज़र आया वह था उनकी मौजूदगी और बातों के असल मायने।
प्रणब मुखर्जी ने अपने संबोधन में भारत शब्द का उल्लेख कुल 27 बार किया। तीन बार हिन्दी में भारत कहा और 24 बार India। 12 बार Nationalism यानी राष्ट्रवाद का जिक्र किया। 9 बार Nation यानी देश और 5 बार Patriotism अर्थात देशभक्ति की बात की।
इनसे स्पष्ट होता है कि सम्पूर्ण भाषण में उनके विचारों की प्राथमिकता किस ओर थी? सीधा सा अर्थ है यदि देश के पहले पहले नागरिक को राष्ट्रवाद शब्द पर इतना ज़ोर देना पड़ा तो अब तक हम वाकई में इस शब्द के अर्थ के दायरे से कोसों दूर थे और हैं भी। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या राष्ट्रवाद को समझने के हमारे पैमाने सही हैं? यह ऐसा शब्द है जिसकी परिभाषा देने का प्रयास अनेक लोगों ने किया, लेकिन सवाल यह है कि उनमें से कितने सफल रहे? प्रणब मुखर्जी ने इस शब्द की अहमियत समझते हुए सुनने और समझने वालों को निराश नहीं किया। इसलिए उन्होंने सर्वप्रथम उन दार्शनिकों का उल्लेख किया जिन्होंने भारत की समृद्धता को समझने के शुरुआती क़दम उठाए।
इसके बाद उन्होंने देश के प्राचीन शिक्षण संस्थानों तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला का उल्लेख किया और कहा कि इस प्राचीन विश्वविद्यालय व्यवस्था का 1800 वर्षों से अधिक समय तक विश्व में वर्चस्व था। इतने दुर्लभ तथ्यों का अर्थ मात्र इतना सा था कि हम हमेशा से सम्पन्न, प्रबुद्ध, अखंड और प्रबल रहे हैं। जहाँ चंद्रगुप्त मौर्य और चक्रवर्ती सम्राट अशोक सरीखे राजाओं के हाथ में कमान रही। ‘राष्ट्रवाद’ हमारी संस्कृति का अटूट हिस्सा है।
उन्होंने कहा कि बारहवीं शताब्दी में तरायण का युद्ध हार कर इस देश ने 600 वर्षों का आततायी मुग़ल शासन झेला। उसके बाद भी उस संस्कृति की तमाम अच्छाइयाँ इस देश ने स्वयं में समाहित की। इतना ही नहीं अंग्रेजों के देश को तबाह करने के प्रयास के बावजूद इस देश ने अपना असल स्वरूप नहीं खोया।
प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि सबके लिए ज़रूरी है कि लोगों का लोगों से “संवाद” बना रहे। इसलिए कहा गया है “to the people, for the people, by the people”। एक सौ बीस करोड़ से अधिक आबादी, 122 भाषाओं और 7 मुख्य धर्मों वाले इस देश की अखंडता हमेशा बनी रहनी चाहिए।
सत्य यही है कि अपना जीवन एक विचारधारा को समर्पित कर देने के बाद अंत में एकदम उलट विचारों वाले लोगों के बीच आकर ऐसी बातें कहना अद्भुत निर्णय था। किसी और नेता के लिए ऐसा कल्पना करना भी असम्भव है।