देश में राजनीतिक समीकरण तेज़ी से बदल रहे हैं। विपक्ष के एक धड़े ने अपनी रणनीति इस आधार पर बनानी शुरू कर दी है कि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भाजपा गठबंधन को बहुमत न मिले और जोड़-तोड़ से नई सरकार बनाई जाए। खिचड़ी सरकार को दोहराने के लिए कुछ दल पूरी तरह से तैयार बैठे हैं, भले ही जनता का निर्णय ईवीएम में क़ैद हो चुका हो (आख़िरी चरण का चुनाव 19 मई को होना है)।
आइए इस खेल के प्रमुख खिलाडियों के बारे में जानते हैं और चुनावी राजनीति के बीच जनता के बीच जो कुछ भी चल रहा है और जिसकी लगातार मीडिया रिपोर्टिंग हो रही है, उसके अलावा क्या सब चल रहा है, इस पर चर्चा करते हैं। अभी इस खेल के सबसे बड़े खिलाड़ी बने हुए हैं तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव। राव राज्य में एकतरफ़ा जीत दर्ज कर चुके हैं और असदुद्दीन ओवैसी द्वारा उन्हें प्रधानमंत्री मैटेरियल बताया जा चुका है।
के चंद्रशेखर राव (केसीआर) ने चुनाव से पहले भी देश के कई प्रमुख नेताओं से मुलाक़ात कर तीसरे मोर्चे के लिए प्रयास किया था लेकिन सभी दलों के अपने-अपने स्थानीय हितों के कारण उन्हें कुछ अच्छा रेस्पॉन्स नहीं मिला। केसीआर के लिए तेलंगाना में सब कुछ सेट है और उन्हें अपने राज्य में ज्यादा प्रतिस्पर्धा नहीं मिल रही है क्योंकि तेलंगाना में कॉन्ग्रेस और टीडीपी, दोनों का ही पत्ता गोल है। भाजपा तो अभी वहाँ पाँव जमाने में ही लगी हुई है। ऐसे में, केसीआर के पास दुनियाभर का समय है कि वह तीसरे मोर्चे के लिए समर्थन जुटाएँ और ख़ुद को विपक्ष के एक प्रमुख सूत्रधार के रूप में प्रस्तुत करें। अभी आंध्र के सीएम चंद्रबाबू नायडू इस भूमिका में हो सकते थे लेकिन चूँकि उन्हें ख़ुद का गढ़ बचाने में ही कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है और जगन रेड्डी से उन्हें कड़ी चुनौती मिल रही है, वह आंध्र और ईवीएम पर ही लटके पड़े हैं।
KCR meets Patnaik, talks of federal front
— Times of India (@timesofindia) December 24, 2018
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बिहार में लालू प्रसाद यादव के जेल में होने से विपक्ष को एक ऐसे सूत्रधार की लम्बे समय से ज़रूरत थी, जो भारत भर के बड़े विपक्षी नेताओं से अच्छे सम्बन्ध स्थापित कर जोड़-तोड़ का प्रधानमंत्री बनाने में अहम किरदार अदा करे। नब्बे के दशक में लालू ने देवे गौड़ा और फिर गुजराल को प्रधानमंत्री बनाने में अहम भूमिका निभाई थी। लालू विपक्ष गठबंधन के सूत्रधार हुआ करते थे और जनता दल के सबसे बड़े नेता होने के नाते इन समीकरणों में उनकी ख़ूब चलती थी। दक्षिण से आने वाले केसीआर को ख़ूब पता था कि लालू जेल में हैं और नायडू अपने ही राज्य के कठिन समीकरणों में फँस कर रह गए हैं, ऐसे में सही समय पर उन्होनें अपना भारत भ्रमण शुरू कर दिया। उनका अखिलेश यादव से भी मिलने का कार्यक्रम तय था और वे मिले भी लेकिन सपा ने कॉन्ग्रेस और केसीआर को धता बताते हुए बसपा से गठबंधन कर लिया।
सपा-बसपा अन्य राज्यों में कॉन्ग्रेस सरकार को समर्थन दे रहे हैं, ऐसे में ये दोनों ही दल किस पाले में जाएँगे, कहना मुश्किल है। हाल ही में केसीआर ने द्रमुक के मुखिया स्टालिन से मुलाक़ात की है। प्रधानमंत्री पद के लिए राहुल गाँधी के सबसे मुखर समर्थक बनें स्टालिन से तीसरे मोर्चे की वकालत करने वाले केसीआर की मुलाक़ात अहम है क्योंकि किसी अन्य बड़े विपक्षी नेता ने अभी तक राहुल का नाम पीएम पद के लिए नहीं सुझाया है। केसीआर ने स्टालिन से मुलाक़ात कर तीसरे मोर्चे की बात की और भाजपा गठबंधन को बहुमत न मिलने की स्थिति से कैसे निपटा जाएगा, पहले से ही इसकी तैयारी पर चर्चा की। स्टालिन ने केसीआर से बैठक में उन्हें भी कॉन्ग्रेस का समर्थन करने को कहा।
KCR meets Mamata; Efforts for non-BJP, non-Cong alliance https://t.co/19gZ1F5WZ2 #KChandrasekharRao #2019LSPolls pic.twitter.com/I7wew78ycV
— Mathrubhumi (@mathrubhumi) December 24, 2018
लेकिन, केसीआर कुछ और इरादे लेकर चेन्नई गए थे। उन्होंने स्टालिन का कॉन्ग्रेस प्रेम देख कर एक ऐसी सरकार के बारे में भी चर्चा की, जिसे कॉन्ग्रेस का समर्थन प्राप्त हो। इस सरकार में क्षेत्रीय विपक्षी पार्टियाँ शामिल होंगी। चंद्रशेखर सहित ऐसे कई प्रधानमंत्री रहे हैं, जिन्हें कॉन्ग्रेस का बाहर से समर्थन प्राप्त था लेकिन ऐसी कोई भी सरकार अपना पाँच वर्षों का कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। हाँ, इन सबके बीच क्षेत्रीय दलों को अपना हित साधने का अच्छा मौक़ा मिल जाता है। शुरू में ऐसी ख़बरें आईं थी कि केसीआर चुनाव बाद राजग में भी शामिल हो सकते हैं क्योंकि तेलंगाना में चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने कॉन्ग्रेस और भाजपा, दोनों से ही बराबर दूरी रखने की बात कही थी। लेकिन, केसीआर ने तीसरे मोर्चे के लिए अपने प्रयासों में तेज़ी लाकर भाजपा को यह सन्देश देने की कोशिश की है कि वह उन्हें ग्रांटेड न लें।
केसीआर की यह भी समस्या है कि उनके भाजपा के साथ जाने के बाद राज्य में मुस्लिम आबादी का झुकाव कॉन्ग्रेस की तरफ बढ़ सकता है और वो ऐसा कभी नहीं चाहेंगे कि कॉन्ग्रेस तेलंगाना में फिर से उभरे। केसीआर लालू यादव की जगह फिलहाल इसीलिए भी नहीं ले सकते क्योंकि तेलंगाना में बिहार की आधी से भी कम लोकसभा सीटें हैं और लालू की राष्ट्रीय राजनीति (यूपीए सरकार से पहले) के दौर में बिहार-झारखण्ड मिलाकर उनके प्रभाव में बहुत सारी लोकसभा सीटें आ जाती थीं। और, लालू कई बड़े राष्ट्रीय नेताओं के ख़ास क़रीबी भी थे। केसीआर के ताज़ा दौरों को उनके द्वारा राष्ट्रीय फलक पर ख़ुद को एक सूत्रधार के रूप में स्थापित करने और मीडिया में बने रहने के हथकंडे के तौर पर भी देखा जा सकता है।
Akhilesh meets KCR to discuss federal front, says only regional parties can halt BJP juggernaut https://t.co/Nc8NPGEmW0 pic.twitter.com/petc7rxl0C
— Hindustan Times (@htTweets) May 2, 2018
कुछ पार्टियों ने अपने पत्ते अभी भी नहीं खोले हैं। ओडिशा में प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा ने चुनाव प्रचार के दौरान वहाँ की सत्ताधारी पार्टी बीजद और मुख्यमंत्री पटनायक पर ख़ूब ज़ुबानी हमले किए लेकिन फोनी तूफ़ान के आने के बाद मोदी-पटनायक में जैसी केमिस्ट्री दिखी है, उससे पता चलता है कि राजग गठबंधन को अगर कुछ सीटें कम पड़ जाती हैं तो पटनायक अपना समर्थन दे सकते हैं। बीजद के अभी भी 19 सांसद हैं और पटनायक को यक़ीन है कि इन आँकड़े में ज्यादा कमी नहीं आएगी। केसीआर ने उनसे भी मुलाक़ात की थी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से भी उनकी बात हुई थी लेकिन ओडिशा में भाजपा के कर्ता-धर्ता केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान बीजद को राजग में लाने में एक अहम किरदार निभा सकते हैं।
तमिलनाडु का गणित ख़ासा टेढ़ा है क्योंकि दोनों ही बड़े दलों के मुखिया दिवंगत हो चुके हैं। कई दशकों से वहाँ की राजनीति में छाए करुणानिधि और जयललिता की मृत्यु के बाद किसी को भी नहीं पता कि ऊँट किस करवट बैठेगा। लोकसभा में देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी अन्नाद्रमुक नेतृत्व संकट से जूझ रही है और मौक़ा देख कर भाजपा ने उसे राजग में शामिल कर लिया। द्रमुक के पास स्टालिन के रूप में एक नेतृत्व है लेकिन पिछले चुनाव में पार्टी के भयावह प्रदर्शन को लेकर नेता अभी भी आशंकित हैं। लेकिन, अन्नाद्रमुक की सीटों की संख्या घटनी तय है, ऐसा सभी राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं। तभी पार्टी के लाख मना करने के बावजूद भाजपा ने राज्य के पूर्व नेता प्रतिपक्ष विजयकांत की पार्टी को गठबंधन में शामिल किया। अन्नाद्रमुक की सीटें घटेंगी तो इसका सीधा फ़ायदा द्रमुक को मिलेगा।
#Stalin stays cold to #KCR’s idea of federal front https://t.co/6AXV6lHjpK pic.twitter.com/euPUcElntO
— EconomicTimes (@EconomicTimes) May 14, 2019
राहुल गाँधी के समर्थन में मुखर स्टालिन कॉन्ग्रेस के पाले में जाकर खेल रहे हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उनकी पार्टी को अच्छी संख्या में सीटें मिलती हैं तो यूपीए गठबंधन में उनकी पूछ इसीलिए भी बढ़ेगी, क्योंकि वो चुनाव से पहले से ही राहुल की पीएम उम्मीदवारी का समर्थन करते रहे हैं। संख्याबल के मामले में स्टालिन केसीआर से ज्यादा मज़बूत बन कर उभर सकते हैं, लेकिन केसीआर की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा अभी उन पर हावी दिख रही है। उत्तर में लालू-मुलायम के अप्रासंगिक होने, दक्षिण के दोनों बड़े नेताओं की मृत्यु, विधानसभा चुनाव होने के कारण नायडू-पटनायक के अपने गढ़ में व्यस्त रहने (आंध्र और ओडिशा में विधानसभा चुनाव भी साथ में ही हुए हैं) और शरद पवार की सक्रियता कम होने (वो स्वयं चुनाव भी नहीं लड़ रहे) के कारण केसीआर जैसे छोटे पक्षी भी बड़ा पंख फैला रहे हैं।