देश में जबसे कोरोना की दूसरी लहर तीव्र हुई है, लगभग हर राज्य ने अपनी-अपनी योजना और आवश्यकतानुसार लॉक डाउन और कर्फ्यू लगाया। बाजारों तथा धार्मिक स्थलों में लोगों के जमावड़े पर रोक लगाई गई। महाराष्ट्र सरकार चूँकि कोरोना की पहली लहर पर भी काबू नहीं पा सकी थी, इसलिए इस दिशा में सबसे पहले उसकी पहल रही।
जिन राज्यों में चुनाव हो रहे थे, उनमें हो रही चुनावी रैलियों पर विपक्ष, मीडिया या बुद्धिजीवियों ने तब तक शोर नहीं मचाया जब तक केरल, तमिलनाडु और असम में मतदान न हो गया। इन राज्यों में मतदान के बाद अचानक लोगों को याद आया कि चुनावी रैलियों से संक्रमण फैलने का खतरा था। जैसे ही यह याद आया, लोगों ने बिना समय लगाए शोर मचाना शुरू किया।
जब यह शोर आरंभ हुआ तब पश्चिम बंगाल में चार चरणों का मतदान होना बाकी था। रैलियाँ हर राजनेता कर रहा था पर शोर ऐसा मचाया गया जैसे केवल नरेंद्र मोदी ही रैलियाँ कर रहे थे। चूँकि राज्य में तब संक्रमण तीव्र गति से नहीं फ़ैल रहा था और इसकी वजह से केवल पश्चिम बंगाल को आगे रखकर यह प्रोपेगंडा चलाना संभव नहीं था इसलिए इस बात पर जोर दिया गया कि पूरे भारत में संक्रमण के फैलाव के लिए केवल नरेंद्र मोदी की रैलियाँ ही जिम्मेदार हैं।
इसके साथ ही यह प्रोपेगेंडा भी चिपका दिया गया कि प्रधानमंत्री रैलियाँ करने के अलावा कुछ और नहीं करते। यह भी कि उन्होंने इस महामारी को रोकने की इच्छा शक्ति नहीं दिखाई। जब यह बातें बार-बार दोहराई जा रही थीं तब एक ही उद्देश्य था कि कैसे कोरोना से लड़ाई की बात पर केंद्र सरकार, खासकर प्रधानमंत्री मोदी को अक्षम बताया जाय।
इसी के साथ एक माहौल बनाया गया जिसमें संक्रमण तेजी से बढ़ने के लिए हिन्दू संस्थानों, मंदिरों, त्योहारों और कुंभ को जिम्मेदार साबित करने का प्रोपगैंडा चला। अयोध्या में रामनवमी का कार्यक्रम स्थगित होने के बावजूद बार-बार यह झूठ फैलाने की कोशिश की गई कि उत्तर प्रदेश सरकार अयोध्या में कार्यक्रम स्थगित नहीं करना चाहती और यह तब तक चला जब तक सरकार की ओर से आधिकारित तौर पर खंडन नहीं किया गया।
हरिद्वार मे कुंभ के आयोजन को लेकर भी केवल उत्तराखंड सरकार को ही नहीं बल्कि केंद्र सरकार को दोषी बताया गया। कुंभ आयोजन शुरू में रोका जाना चाहिए था या नहीं, यह बहस का विषय हो सकता है पर यह देखना भी आवश्यक था कि ऐसे विशाल आयोजनों के लिए तैयारी कितने पहले शुरू होती है और कौन से बिंदु तक आयोजन स्थगित करना संभव था।
सरकार ने कुंभ में स्नान के लिए आनेवाले श्रद्धालुओं के लिए प्रोटोकॉल निर्धारित किए पर हल्ला मचाने वाले बाज न आए और यह झूठ फैलाया गया कि प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया जा रहा। संक्रमण के लिए जमकर कुंभ को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश चलती रही।
यह व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर उत्तरदायित्व समझने वाला हिन्दू समाज और उसके संतों की सोच ही है, जिसने प्रधानमन्त्री की एक अपील पर बीच में ही कुंभ का समापन कर दिया। ऐसा होने के बाद भी मीडिया, विपक्षी नेताओं और तथाकथित बुद्धिजीवियों ने कुंभ को संक्रमण के लिए जिम्मेदार ठहराने का प्रोपगैंडा नहीं छोड़ा।
यहाँ प्रश्न यह है कि व्यक्तिगत या सामूहिक तौर पर आदर्श आचरण का सारा भार केवल हिन्दू समाज क्यों ले? क्या इसी तरह से उत्तरदायित्व का निर्वाह और कोई समाज करता है? और यदि नहीं करता है तो क्या उस समाज की आलोचना उसी तरह होती है, जिस तरह हिन्दू समाज की होती है?
महाराष्ट्र सरकार ने जब आंशिक लॉकडाउन लगाया तब आम आदमी के बाहर निकलने से लेकर दुकानों के खोलने पर बहुत कड़ाई बरती पर यही कड़ाई कुछ और बाजारों पर लागू नहीं की जा सकी। एक महीने तक रमजान चला है। साथ मिलकर नमाज पढ़ने से लेकर बाजारों में लगने वाली भीड़ पर प्रशासनिक कार्यवाई न की जा सकी।
त्रिपुरा (वेस्ट) के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने एक विवाह समारोह में घुस कर जो आचरण किया, वैसा आचरण किसी के साथ नहीं हो। कोरोना महामारी पर अंकुश लगाने को लेकिन यह तो हो ही सकता है कि जहाँ शालीनता से लॉकडाउन के नियमों का पालन करवाया जा सके।
महाराष्ट्र के एक मस्जिद से लोगों द्वारा पुलिस अफसर को खदेड़ने का वीडियो लोगों को देखने को मिला। चार मीनार के आस-पास की भीड़ की तस्वीरें हों या पंजाब के बाज़ारों से आई तस्वीरें, देख कर हर बार यही प्रश्न उठता है कि नियमों को लेकर जब मुस्लिम समाज द्वारा व्यक्तिगत या सामूहिक आचरण की बात आती है तो फिर प्रशासन को क्या हो जाता है? तब उन्हें क्या हो जाता है जो हिन्दू त्योहारों या धार्मिक समारोहों के खिलाफ लगातार बोलने में जरा भी नहीं हिचकते? क्या हो जाता है जो महामारी के संक्रमण रोकने की जिम्मेदारी केवल हिन्दू समाज पर डालना चाहते हैं?
विषाणु जनित संक्रमण या महामारी को फैलने से रोकने के लिए यह आवश्यक है कि संक्रमण की कड़ी को तोड़ा जाए। इसके लिए देश के हर नागरिक का आचरण इस उद्देश्य के हित में हो। ऐसे में यदि एक समाज इस बात को लेकर सतर्क रहता है और दूसरा नहीं रहता तो यह कड़ी टूटेगी कैसे?
व्यक्ति या समूह पर केवल अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी नहीं होती। उसके ऊपर हर व्यक्ति या समूह के सुरक्षा की जिम्मेदारी भी होती है। तथाकथित बुद्धिजीवियों, एजेंडा वाहकों और मीडिया द्वारा बात-बात पर यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि हिन्दू समाज का आचरण विज्ञान सम्मत नहीं है पर साबित इसके ठीक उलट होता है।
मुस्लिम समाज के व्यक्तिगत और सामूहिक आचरण के विश्लेषण की बात पर इन विशेषज्ञों की जुबान को लकवा मार जाता है। इस समाज का यह आचरण की जड़ इसी पोलिटिकल करेक्टनेस में है। इनके पास कुछ कहने के लिए नहीं रहता तो वे अपना तर्क इस बात पर खत्म करते हैं कि; हिन्दू समाज अपनी जिम्मेदारी निभाए और मुस्लिम समाज के आचरण या उस आचरण को लेकर प्रशासनिक चुप्पी पर कुछ न बोलें।
ऐसे लोगों से एक ही बात कहनी है; एजेंडा प्रसाद जी, आपकी यह बौद्धिक बेईमानी राष्ट्र को बहुत महँगी पड़ती है।