याद कीजिए 1992 से 2019 के ये 27 साल, और याद कीजिए उन उपहासों को, उन कटाक्षों को, उन चुटकुलों को जिसमें ‘मंदिर वहीं बनाएँगे, डेट नहीं बताएँगे’ से ले कर, ‘अगर तुम्हारे राम हैं, तो वो टेंट में क्यों हैं?’, ‘जब वो भगवान हैं तो मंदिर क्यों नहीं बनवा लेते अपना?’ जैसी बातें हमें सुनाई देती रहीं। याद कीजिए सोशल मीडिया पर शेहला रशीद जैसे टुटपुँजिया, भाड़े पर मिलने वाले क्रांतिवीरों की जो साल गिना कर याद दिलाते थे कि कहाँ है तुम्हारा मंदिर।
ये मुद्दा काफी पहले सुलझ जाता अगर सरकारों की नीयत सुलझाने की रही होती। ये मुद्दा पहले सुलझ जाता अगर इन वामपंथियों और दूसरे मजहब विशेष के पक्षकारों को सीधी बात समझ में आ जाती कि जैसे उनका मक्का है, वैसे अयोध्या राम का, काशी महादेव का, मथुरा कृष्ण का है। लेकिन ऐसा होता भी तो कैसे, क्योंकि 1989 में वामपंथियों ने दूसरे मजहब वालों को भड़काया कि वो ये केस जीत सकते हैं, और उनके पक्ष में रोमिला थापर जैसे उपन्यासकारों को इतिहासवेत्ता कह कर उतार दिया।
लड़ाई खिंचती रही, हिन्दू चैन से, हाथ-पैर समेट कर, अपने ही देश में, सेकेंड क्लास नागरिक बन कर जीने को मजबूर रहा, उसे पूजा करने तक का अधिकार नहीं मिल सका इस हिन्दू बहुल राष्ट्र में। हिन्दुओं ने बस प्रतीक्षा की, दंगों को झेला है और अपने आराध्य के लिए, अपने अधिकार के लिए एक सतत लड़ाई लड़ी है। बाबरी मस्जिद के बनने से ले कर, अगले 200 सालों में (1528-1731) के बीच 64 बार मुगलों का हिन्दुओं से संघर्ष हुआ है, जो बताता है कि ये लड़ाई भारत की आजादी के बाद की नहीं है, ये तब से है जब से मंदिर की जगह एक हत्यारे, आक्रांता, लुटेरे ने मस्जिद बनवा दी।
उस समय सत्ता उनके पास थी, उन्होंने हजारों मंदिर तोड़े, करोड़ों हत्याएँ कीं (अगर आप बाबर के बाप पक्ष और माता पक्ष के चंगेज खान और तैमूर को जोड़ें तो), और हम उनके द्वारा बनवाए नासूरों को देखते रहे। इस राष्ट्र का कोई भी विवेकशील व्यक्ति किसी भी मुगल शासक के समर्थन में कैसे उठ सकता है! वो लुटेरे थे, उनके बाप लुटेरे थे, उनके बच्चे क्रूरतम शासक बन कर सामने आए। यहाँ के संसाधनों को लूटा, विश्वविद्यालयों में आग लगाई और गाँवों को उजाड़ दिया। आप कहते हैं कि उन्होंने ताजमहल बनवाया? अपने बाप के पैसे से बनवाया? किसने कहा था बनवाने? हमने बुलाया था क्या?
इतिहास को पोतने की कोशिश
जब इन बलात्कारियों को, इन आतंकियों के नाम की सड़कें देखते हैं तो आपको बुरा नहीं लगता? इनमें से एक ने भी भारतीय लोगों के लिए कुछ भी अच्छा नहीं किया। जो भी किया अपनी अय्याशी के लिए किया, यहाँ से कहीं गए नहीं क्योंकि हर जगह से भगाए जा चुके थे। यही इतिहास है, मुगल शासन कोई गौरवगाथा नहीं है कि उनके होने का जश्न मनाया जाए। इस्लामी शासन भारत के इतिहास पर उतना ही बड़ा धब्बा है, जितना अंग्रेजों की गुलामी।
भारत के इस्लाम के समर्थकों से कोई समस्या नहीं है, संविधान मजहब चुनने की स्वतंत्रता देता है। साथ ही, जो उस समय हिन्दू धर्म त्यागकर इसके अनुयाई बने, वो बेचारे डर कर बने, तलवार की नोक पर मजबूर किए गए, उनका क्या कसूर! लेकिन ऐसी भी क्या मजबूरी कि औरंगजेब और टीपू सुल्तान जैसों को अपना आदर्श मानते हैं! पाकिस्तान का तो समझ में आता है जिसके लिए गौरी और गजनी आदर्श हैं क्योंकि वो पाकिस्तान है। लेकिन यहाँ के लोग उन आतंकियों को कैसे हीरो मानते हैं, ये मेरी समझ से बाहर है।
1947 में मौका दिया गया था कि जिन्हें इन डकैतों को हीरो मानने वालों के देश में जाना है चले जाएँ, तब गए नहीं। तो, उम्मीद की जाती है कि भारतभूमि पर जिसने भी गलत निगाह डाली, चाहे आज आपका मजहब और उनका मजहब एक ही रहा हो, फिर भी इस धरती को अपने पाप से कलुषित करने वाले को आप स्नेह से न देखें। क्या कोई अपने घर में आए चोर, डकैत, बलात्कारी, कातिल या अपराधी को अपराध करने के बाद, अपने ही घर में रख कर, उसकी प्रशंसा में अपने मुहल्ले का नाम उस पर रख सकता है?
जी, भारत में यही हुआ है क्योंकि गाँधी नाम को हाईजैक करने वाले पापियों के खानदान ने ऐसा सुनिश्चित किया ताकि आतंकियों को हीरो की तरह पढ़ा जाए, उनके नाम पर सड़कें हों, शहर हों, गाँव बसे। स्टॉकहोम सिंड्रोम तो बहुत बाद की बात है, भारत में तो ये सैकड़ों सालों से आदर्श रूप में स्थापित हो चुका है।
इतिहास 1528 से शुरु नहीं होता, इसलिए हिसाब भी पहले से होगा
इतना सब कुछ हो गया इस देश में, लाखों मारे गए। आस्था और संस्कृति की रीढ़ तोड़ने के लिए मंदिर ध्वस्त किए गए, पांडुलिपियों के पुस्तकालयों में आग लगा दी गई और यहाँ के वामपंथियों को लगता है कि अन्याय बाबरी मस्जिद का टूटना है? बाबरी मस्जिद का टूटना भले ही भारतीय कानून की दृष्टि में एक आपराधिक घटना है, लेकिन हिन्दुओं के इतिहास के हिसाब से यह उस आस्था के साथ न्याय है जिसके मंदिर की दीवार पर मस्जिद खड़ी की गई थी।
इसलिए इतिहास और अन्याय का दौर 1528 या 1992 से शुरु नहीं होता, वो तब से शुरु होता है जब से इस्लामी आक्रान्ताओं ने इस धरती पर लूट-पाट के इरादे से कदम रखा था। अन्याय वहाँ से शुरु हुआ और आज तक होता आया है, बस सत्ता और सरकारें बदलती रहीं। रामलला इंतजार में रहे, हिन्दू प्रतीक्षारत रहा, किसी की हत्या नहीं की, दंगे नहीं किए, किया तो बस इंतजार कि हे राम, आओ और अपने अनुयायियों को शक्ति दो कि वो तुम्हें तुम्हारी जगह पर पूज सके।
‘द वायर’ के अमेरिकी मालिक सिद्धार्थ वरदराजन का एक गटरछाप विडियो आया था जिसमें उसने यह कहा कि ‘जिसने हिंसा की, उसी को उपहार में वह जगह दे दी गई’। वरदराजन के माँ-बाप ने उसके नाम के दोनों हिस्से सोच समझ कर रखे होंगे क्योंकि सिद्धार्थ को ज्ञान मिलता है तब वो गौतम बनता है, और वरदराज की पहली कहानी तो आप सबको याद ही है! यह मूर्ख व्यक्ति, या कहिए धूर्त पत्रकार, विडियो में खूब शमाँ बाँध कर बताता है कि कथित अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय हो गया और कोर्ट ने बिलकुल गलत फैसला किया।
और इसकी टाइमलाइन भी 1528 से ही शुरु होती है क्योंकि अजेंडा है बेचारे का। सुबह में इसके पोर्टल पर डी एन झा जैसे बेहूदे आदमी का बयान छपा था जो कहता पाया गया कि तुलसी के मानस में अयोध्या के तीर्थ स्थल होने का जिक्र नहीं है। जिक्र तो डी एन झा के बाप का भी नहीं है मानस में, तो क्या यह मान लिया जाए कि वो अंडे से फूट कर निकले थे और बाप को देखा ही नहीं?
वरदराजन और उसके जैसे कई लम्पटों का कहना है कि उनसे यह क्यों पूछा गया कि वो साबित करें कि नमाज पढ़ी जाती थी, क्योंकि मस्जिद है तो नमाज होती ही होगी। लेकिन वायर का यह प्रपंची मुखिया यह भूल गया कि उससे पहले मंदिर था, जहाँ मस्जिद बनने से बीस साल पहले गुरु नानक देव के वहाँ जाने का, पूजा करने का जिक्र है। और हाँ, अगर ‘पहले क्या था’ वाला गेम और खेलोगे तो इस्लाम का इतिहास चौदह सौ साल पहले खत्म हो जाता है, और हिन्दुओं के पुराण, उपनिषद, ग्रंथ, महाकाव्य, वेद आदि से ले कर राजा, चक्रवर्ती सम्राट और वंशावली आदि इस्लाम के अभ्युदय से हजारों साल पहले तक जाती है। और जो हुआ, वो इसी धरती पर हुआ है।
इसलिए, कामपंथी वामभक्त माओनंदनों और जिहादी आतंकियों के हिमायतियों और भारत में मजहबी हिंसा का जहर घोलने वालों के लिए इतिहास तभी से शुरु होता है, जब से उनके मन को सही लगे। इसलिए आप देखेंगे कि हर पोर्टल, चाहे वो वायर हो, बिग बीसी हो, टेलिग्राफ जैसे बंद होते अखबार हों या वामपंथियों के खानदानी स्तंभकार, हर कोई यही लिख रहा है कि जिसने मस्जिद तोड़ी, उसी को जमीन दे दी गई।
ओवैसी बेचारा वैसे ही अपने लोगाँ के बीच कहता फिर रहा कि ‘घर मेरा तोड़े ना? तो घर मेरे को मिलना ना? तोड़ने वाले को मिलना? बोलो आप, जिसका घर तोड़े उसको मिलना ना?’। बेचारा बीच में अंग्रेजी में बोला ‘व्हाट ए वंडरफुल आइडिया’, भीड़ को कुछ समझ में नहीं आया, वो बस ओवैसी को अंग्रेजी बोलता देख ही हो-हो करने लगे।
अब ओवैसी से एक हिन्दू पूछे कि ‘1528 में मेरा घर में घुस के, मेरा मकान तुम लोग तोड़े ना? तो कायदे से घर तो उसका हुआ ना? उसको मिलना ना?’ तो ओवैसी बोलेगा कि उतना पुराना कायकू याद रखना, 1992 वाला नजदीक का होता, उसको याद रखने का। तब से नापने का कि किसका घर किदर से शुरू होता, किदर को खत्म होता… ऐसा नहीं चलता ओवैसी जी, आप टाइम के बाद आए, टाइम आपके बाद नहीं आया। ये बाताँ समझने का!
वो जो उकसाते थे, मजे लेते थे, उनके धुआँ निकल रहा है
ऑल्टन्यूज के गंजे संस्थापक प्रतीक सिन्हा जैसे लौंडों ने ट्विटर पर साल याद दिला-दिला कर मजे लिए थे। वो पूछते थे कि कब बनेगा मंदिर, अब तो भाजपा भी आ गई। हिन्दुओं ने कुछ नहीं कहा, बस इंतजार किया क्योंकि साठ सालों से राजनैतिक स्तर पर दोयम दर्जे का नागरिक बन चुके हिन्दू कभी कुछ नहीं कहते। इसीलिए, दुर्गा को वेश्या कहा जाता है, त्रिशूल पर कंडोम चढ़ाया जाता है, कृष्ण को मोलेस्टर बताया जाता है, सरस्वती की नग्न पेंटिंग बनती है, और हिन्दू चुप रहता है।
हिन्दू चुप इसलिए रहता है क्योंकि वो सहिष्णुता का वैश्विक मानदंड है। है कोई मजहब या रिलीजन जिसमें हिन्दुओं-सी सहिष्णुता हो? जिसने दूसरे मजहब के देशों पर कभी भी आक्रमण न किया हो? लेकिन, कमलेश तिवारी को कोर्ट भी अपराधी नहीं साबित कर पाई, और उसका गला बेरहमी से रेत दिया। ये है हमारे देश का हिन्दू कि उसकी मंदिर पर मस्जिद बना दी गई, और जब दो भाइयों ने उस पर झंडा लहराया, तो उसे घर से निकाल कर गोली मार दी गई।
हिन्दू तब भी चुप रहा। हिन्दू, प्रतीक सिन्हा जैसे दो कौड़ी के लौंडों के छेड़ने पर चुप रहा क्योंकि उसकी आस्था जानती है कि समय का पहिया घूमता है और कण-कण में जाग्रत ईश्वर, उसकी परीक्षा भी लेंगे, और उसके संतोष का, उसकी प्रतीक्षा का, उसके स्नेह और लगन का प्रतिफल भी देंगे। इसलिए ट्रोलों की पूरी फौज, वामपंथियों की पूरी लॉबी, गुंडों के गिरोह और पत्रकारिता के समुदाय विशेष की सतत चिरकुटई को सुप्रीम कोर्ट का जब तमाचा पड़ा, तो वो दस दिन पहले तक ‘कोर्ट का फैसला सबको मान्य होना चाहिए’ पर पलट गए, पिनक गए, उनकी सुलग गई और स्थान विशेष से धुआँ निकलने लगा।
ज्ञान की बातें करने वाले लोग
कॉन्ग्रेस की डूबती नैया से पानी उपछता नेशनल हेरल्ड, जिसके मालिकों ने नेहरू से ले कर राजीव-सोनिया-राहुल तक, हर संभव प्रयास किया कि तुष्टीकरण का फायदा उन्हें मिलता रहे, दार्शनिक अंदाज में लिखता है कि ‘क्या रक्तपात, हिंसा और जबरदस्ती के बाद बने मंदिर में भगवान रह पाएँगे? क्या ऐसे मंदिर में प्रार्थना कभी सुनी जाएगी अगर भगवान वहाँ रहना भी चाहें?’
इसमें दो-तीन बातें हैं, जो नेशनल हेरल्ड के एडिटर को गौर से देखनी चाहिए। पहली यह कि हिन्दुओं के पास एक रामबाण इलाज है: गंगा जल, जहाँ छिड़क दो पवित्र हो जाता है। दूसरी बात, वहाँ भगवान रहें या न रहें, कॉन्ग्रेसियों को क्या? अपनी देवी को पूजते रहो, भला तो वहीं से होता है। तीसरी बात, हिन्दुओं का रहने दो कि प्रार्थना सुनी जाएगी कि नहीं, हाँ, ये ज़रूर है कि मौसमी हिन्दू बने जनेऊधारी दत्तात्रेय गोत्र के क्रॉसब्रीड या चुनावों के समय गंगा की बेटी बन कर घूमने वालों की प्रार्थना तो वोटर ने ही नहीं सुनी, भगवान तो बिलकुल नहीं सुनेंगे।
इसके बाद आते हैं स्कूल-कॉलेज वाले, तस्लीमा नसरीन टाइप लोग। इन्हें लगता है कि वो जमीन है, वैसी ही जमीन जो कहीं भी हो सकती है। अपनी खुद की जमीन खो चुकी तस्लीमा नसरीन आज भी ‘घर से बेघर’ होने को ले कर नोस्टैल्जिक हो जाती हैं, और ट्वीट करती हैं कि ‘आशा करती हूँ मेरे रहने की परमिट खत्म नहीं की जाएगी’, लेकिन अयोध्या में हॉस्पिटल बनना चाहिए!
अयोध्या में वहाँ मंदिर थे, तीन बड़े मंदिर: रामजन्मभूमि, जिस पर बाबर ने अपने नाम के साथ ‘मस्जिद-ए-जन्मस्थान’ बनवा दी; ठाकुर का मंदिर और स्वर्गद्वार मंदिर, एक को औरंगजेब ने तोड़ दिया गया, और तीसरे पर भी वहाँ मस्जिद बना दी गई। इसलिए, ऐसे लोगों को यह जानना चाहिए कि स्कूल-अस्पताल के लिए बहुत जमीन है। तमाम मंदिरों के ट्रस्ट स्वयं ही अस्पताल और स्कूल चला रहे हैं। राममंदिर का भी ट्रस्ट बनेगा तो स्कूल-कॉलेज खुलेगा।
वामपंथियों की बिलबिलाहट और लोगों की खुशी
जहाँ आम भारतीय, हिन्दू और कई दूसरे मजहब के लोगों समेत, इस बात पर प्रसन्न हैं कि जो भी हुआ, इतने सालों बाद फैसला तो आया, वहीं जेएनयू के कामरेडों से ले कर बड़े मीडिया संस्थानों के पत्रकार और कुख्यात विचारक नाखुश हैं। कोई कह रही है कि ‘सुन्नी वक्फ बोर्ड को दी गई पाँच एकड़ जमीन पर भारत की शानदार लोकतांत्रिक विरासत और उदारवादी धर्मनिरपेक्ष संविधान का ‘भव्य’ मकबरा बना दिया जाए?’
ये तो आपका मसला है कि जो पाँच एकड़ मिले हैं वहाँ मदरसा खुलवा दो, मस्जिद बनवा लो, किसी की चौदहवीं बीवी का मकबरा बनवा लो, मॉल बनवा लो या पंक्चर की दुकान लगा दो। ये सुन्नी वक्फ बोर्ड का मसला है, वो जो चाहें करें, किसी को कोई आपत्ति नहीं क्योंकि यही बात सालों से हिन्दू पक्ष कह रहा था कि प्यार से दे दो जमीन, वरना कानूनी लड़ाई में हारोगे और बाद में रोते फिरोगे।
अयोध्या नहीं दी, तो लड़ कर ले ली गई। आगे काशी है, मथुरा है, वृंदावन है… क्या करें हमारे देवी-देवता ही इतने हैं, और सबके लिए हमने कश्मीर से कन्याकुमारी तक ‘भव्य’ मंदिर बनवाए थे। अब आतंकियों ने उन्हें तोड़ कर अपने मस्जिद या महल बनवा लिए तो, एक शेर याद आता है कि ‘ब्रो, सब दिन होत न एक समाना’। जो हमारा है, जो हमारा था, वो चाहे दबा दो धरती के नीचे या आग लगा कर हमारी किताबें जला दो, खुदाई में मूर्तियाँ निकलेंगी, और दिमाग की स्मृतियों से वापस सारी किताबें भी लिख लेंगे।
कुछ लोग तो राममंदिर के फैसले का हिन्दुओं के पक्ष में जाने से ज्यादा इस बात पर आह्लादित हैं कि लिबरलों और वामपंथियों में खलबली मची हुई है कि क्या-क्या लिख दें, क्या-क्या बोल दें! कोई ये कहता फिर रहा है कि हिन्दू राष्ट्र बनने वाला है, कोई कह रहा है कि न्यायपालिका सरकार की नौकरी में जुट गई है, कोई ये भी कह रहा है कि अब यो काशी-मथुरा भी माँगेंगे! हिन्दू राष्ट्र और जुडिशरी के सरकार की नौकरी में जुटने की बात का तो पता नहीं, पर हाँ, काशी-मथुरा तो बाकी है ही!
एनडीटीवी वाले नाच रहे हैं कि उनके दोनों चैनल अयोध्या के फैसले वाले दिन नंबर एक पर ट्रेंड कर रहे थे। ट्रेंड करने के कई मतलब हो सकते हैं, लेकिन ‘जाकी रही भावना जैसी’ के तर्ज पर उन्हें लग रहा है कि वो कुछ क्वालिटी न्यूज दे रहे थे। जबकि, इसके उलट सत्य यह हो सकता है कि लोग ये देखने को जा रहे हों कि आखिर एनडीटीवी वाले क्या बेहूदगी कर रहे हैं। जैसे कि, लोकसभा चुनावों के परिणाम या बड़े विधानसभा चुनावों के परिणामों को दिन लोग रवीश कुमार का चेहरा देखने के लिए एनडीटीवी ऑन कर लेते हैं। इसका मतलब ये थोड़े ही है कि तुम बढ़िया काम कर रहे हो!
रही बात वामपंथियों के ट्वीट, पोस्ट, लेख, स्तम्भ, विडियो आदि की, तो हमारा यही मानना है कि ‘बोलने दे, तकलीफ़ हुआ है बेचारों को’।