बालिग होने से पहले बच्चों की शादी करा देना आज से 20-25 साल पहले कोई बड़ी बात नहीं हुआ करती थी, लेकिन आज के समय में इनका होना चिंता का विषय है। कारण- शायद पहले लोगों में जागरुकता न रही हो, लेकिन अब बाल विवाह के दुष्प्रभावों को लेकर समाज में अभियान चलाए जाते हैं और इसकी रोकथाम के लिए कानून भी है।ॉ
बावजूद इसके भी अगर समाज में ये कुरीति जिंदा है तो स्थिति चिंताजनक है। मतलब साफ है कि लोग ये तो जान-समझ रहे हैं कि बचपन में शादी कर देने से बच्चों की जिंदगी चुनौतीपूर्ण हो जाएगी, उनपर मानसिक और शारीरिक बल पड़ेगा…लेकिन सब समझने के बाद भी वो इससे निजात नहीं पा रहे।
बाल विवाह पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और टिप्पणी
हाल में सुप्रीम कोर्ट में CJI डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने इस मामले पर सुनवाई की और 141 पन्नों के फैसला देते हुए साफ कहा, “बाल विवाह निषेध अधिनियम किसी भी ‘पर्सनल लॉ’ की परंपरा से बाधित नहीं हो सकता। ये बच्चों की आजादी, उनकी पसंद, उनके निर्णय लेने की क्षमता, बचपन में आनंद लेने के अधिकार को प्रभावित करता है।”
इसके साथ कोर्ट ने मामले पर फिक्र जाहिर करते हुए ‘सोसाइटी फॉर एनलाइटनमेंट एंड वॉलेंटरी एक्शन’ द्वारा 2017 में लगाई गई याचिका पर फैसला देते हुए कुछ निर्देश दिए-
- दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के मुताबिक कोर्ट ने कहा है कि बालविवाह रोकने के लिए राज्य और केंद्र शासित क्षेत्र जिला स्तर पर चाइल्ड मैरिज प्रिवेंशन ऑफिसर नियुक्त किए जाएँ।
- हर राज्य इस संबंध में 3 महीने में रिपोर्ट अपलोड करें।
- स्कूल, पंचायत, स्थानीय संस्थाओं में चाइल्डलाइन (1098) और महिला हेल्पलाइन (181) की जानकारी दी जाए। बच्चों को समझाया जाए कि कैसे मदद ली जाती है।
- स्कूलों, धार्मिक संस्थाओं और पंचायतों में जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाएँ। स्थानीय भाषा में प्रभावी होर्डिंग्स और स्लोगन बनाए जाएँ।
- ‘बाल विवाह मुक्त गाँव’ की पहल हो। ऐसे गांवों व ग्राम पंचायतों को ‘बाल विवाह मुक्त’ सर्टिफिकेट दिया जाए। सामुदायिक नेतृत्व को सक्रिय भूमिका के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
- राज्य बाल विवाह निषेध यूनिट बनाएँ। इसमें पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं को रखा जाए, जिनमें 2 महिलाएँ जरूर हों।
- मजिस्ट्रेट स्वत: संज्ञान लेकर निर्देश जारी कर सकेंगे। केंद्र, राज्य सरकारों के साथ मिलकर ऐसे मामलों के लिए फास्ट-ट्रैक कोर्ट बनाएँ।
- कोई सरकारी कर्मचारी बाल विवाह में शामिल पाया गया तो उस पर कानूनी कार्रवाई की जाए।
भारत में घटे बाल विवाह के मामले, लेकिन खत्म क्यों नहीं हुए
फैसला देने के साथ सुप्रीम कोर्ट ने इस दौरान 2019-2021 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-501 का हवाला दिया और बताया कि 18 साल से कम आयु की 23.3% और 21 साल से कम आयु के 17.7 लड़कों का बाल विवाद कराया जाता है। कोर्ट ने ये भी बताया कि ये फीसद में गिरावट 2006 में बाल विवाद निषेध अधिनियम के लागू होने के बाद हुई है। 2001-2006 के बीच बाल विवाह की दर 47% थी जो 2015-16 में घटकर 27% रह गई और 2019-21 में 23.3% हो गई।
ऊपर आँकड़े भले ही आपको यहाँ गिरते दिखें लेकिन बाल विवाह एक चिंता का विषय है। ऐसा इसलिए क्योंकि एक तरफ जहाँ सुप्रीम कोर्ट इसके रोकथाम के लिए तरीके सुझा रही है, निर्देश दे रही है। वहीं समाज में मुस्लिम पर्सनल लॉ जैसी चीजें भी हैं जो एक मजहब को पूरी तरह से आजादी देती हैं कि लड़की का निकाह 15 साल की उम्र में करवा दिया जाए। यानी अगर कोई मुस्लिम परिवार बच्ची के इस उम्र में एंटर करते ही उनकी शादी करा देता है तो इसका मतलब ये है कि वो उनके हिसाब से गलत नहीं है और कानून भी उन्हें कोई सजा न दे।
संविधान से ऊपर मुस्लिम पर्सनल लॉ
ये आजादी एक समुदाय एक ऐसे देश में मिली हुई है जहाँ की सरकार से लेकर न्याय व्यवस्था बाल विवाह जैसे मुद्दे पर चिंतित है और विचार कर रहे हैं कि अभी जो लड़कियों की शादी की उम्र 18 है उसे बढ़ाकर 21 कर देनी चाहिए। ऐसे देश में एक मजहब अपना पर्सनल लॉ चलाता है और देश के संविधान, उसमें लिखी बात, मानवाधिकार बचाने के लिए लागू कानून को मानने से इनकार कर देता है। क्या बाल विवाह से लड़ने के क्रम में देश में एक समान कानून लागू करने का काम नहीं होना चाहिए। या फिर संविधान का दुहाई सिर्फ अपने वो अधिकार माँगने के लिए ही की जाएगी जो उनसे छीने ही नहीं गए। या आजादी ऐसे मामलों में चाहिए जो समाज को आगे बढ़ाने की जगह सदियों पहले के समय में ढकेंले
बीते समय भारत में कई ऐसे प्रदर्शन हुए हैं जहाँ इस्लामी कट्टरपंथियों को संविधान का हवाला देते अधिकार की बात करते देखा गया, लेकिन बात जैसे ही इस्लामी कट्टरपंथी रवायतें बदलने (तीन तलाक से लेकर बुर्का पहनने) पर आई सब तुरंत एकजुट होकर अपने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की दुहाई के अनुसार चलने की बात कहने लगे और धमकियाँ दी जाने लगीं कि वो मुस्लिम पर्सनल लॉ में छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं करेंगे।
मालूम हो कि मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम, 1937 के तहत नाबालिगों (18 साल से कम उम्र की लड़ी) को निकाह की अनुमति दी गई है। कानून के अनुसार लड़की के यौवन में प्रवेश करते ही उसे वयस्क मान लिया जाता है और उसका निकाह जायज होता है।
गौर करने योग्य बात ये है कि कट्टरपंथियों के बनाए नियमों का असर सिर्फ समुदाय पर नहीं पड़ता बल्कि इससे देश की न्यायव्यवस्था भी प्रभावित होती है। ज्यादा पुराना नहीं, 2022 का मामला है। पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने एक मुस्लिम लड़की के निकाह को शरिया का हवाला देकर वैध माना था। इसके बाद झारखंड हाईकोर्ट ने भी एक मामले में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के तहत एक निकाह को जायज बता दिया था। अब सोचिए, एक देश, जहाँ हर वर्ग के लोग संविधान के हिसाब से चलते हों,अपराध करने से पहले कानून में दी गई सजा से डरते हों, वहीं उसी देश में एक मजहब को ये आजादी है कि वो अपनी बनाई व्यवस्था से अपनी महिलाओं पर अत्याचार करें। उनकी कम उम्र में निकाह करवा दें, उनसे तीन तलाक ले लें, फिर उन्हें हलाला के गर्त में ढकेल दें आदि-आदि।
देश का जिम्मेदार नागरिक होने के नाते बताइए क्या ये रवायत सही है? क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का असर सिर्फ उन्हीं तक है जो इसको मानते हैं। न्यायालय में फैसले देते समय इसका असर कैसे पड़ता है ये तो आपने पढ़ा ही…अब सामाजिक तौर पर भी सोचिए। जहाँ ऐसी चीजों को बढ़ावा मिलेगा क्या उससे दूसरा समुदाय प्रभावित नहीं होगा! क्या वो देखा-देखी में अपनी कम उम्र की बेटी की शादी के ख्याल मन में नहीं लाएँगे?
ये ध्यान रखने वाली बात है कि देश में बाल विवाह के आँकड़े कम जरूर हुए लेकिन देश से खत्म नहीं हुए हैं। सरकार कानून बनाकर प्रयास कर रही है, सामाजिक संगठन अभियान चलाकर लोगों को जारूक कर रहे हैं, न्याय व्यवस्था बच्चों के अधिकार छीनने वालों पर कार्रवाई कर रही हैं… लेकिन ये सारी चीजें तब तक काफी नहीं हैं जब तक कि जमीनी स्तर पर इस काम न हो। ऐसे पर्सनल लॉ रहेने की वजह से हमेशा संविधान से चलने वाले देश और मुस्लिम पर्सनल लॉ मानने वालों के भी टकराव होगा। संविधान में मिले अधिकार की बात करके देश में एक अन्य कानून को समान रूप से चलाते रहना उचित नहीं है।
क्या होगा बाल विवाह का असर
बाल विवाह के दुष्परिणाम अनेक हैं और ये किसी धर्म-मजहब को देख अपना असर नहीं दिखाते। कम उम्र में निकाह या शादी से बच्चियों की शिक्षा रुकती है, उनका सामाजिक विकास बाधित होता है, उन्हें घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है और स्वास्थ्य संबंधी परेशानियाँ आती हैं वो अलग। लड़कों पर पढ़ाई छोड़ जल्दी कमाने का दबाव होता है और लड़कियों पर परिवार बढ़ाने का। बाल विवाह को बढ़ावा देने वाले ये नहीं सोचते कि बढ़ती दुनिया को देख आगे चलकर उनके बच्चे कितना पिछड़ा महसूस करेंगे और उनकी क्षमताएँ कैसे मरती चली जाएँगी। अगर सिर्फ ये तर्क देकर इसे जायज ठहराया जाएगा कि किसी पर्सनल लॉ के कारण ये उचित है तो ये जिद्द केवल और केवल समाज के भावी युवाओं से उनके अधिकार छीनने का काम करेगी और बाल अवस्था में ही उन्हें शारीरिक व मानसिक रूप से कमजोर कर देगी, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं।