14 सितंबर 1949 – जब संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया। 14 सितंबर 1953 – जब से हिन्दी दिवस मनाने की शुरुआत हुई। हिन्दी के लिए असल मायनों में दो सबसे अहम मौके। ऐसी भाषा जो दुनिया की 5 सबसे ज्यादा बोली जाने वाली (देशी भाषा या बोलने-समझने लायक – दोनों स्तरों पर) भाषा में से एक है।
हिन्दी भाषा ने कालांतर में एक लंबी यात्रा तय की है और इस यात्रा में तमाम उतार-चढ़ाव थे। अनुमानित तौर पर हिन्दी भाषा में लगभग 7 लाख शब्द हैं और एक औसत व्यक्ति 50 हज़ार शब्दों तक सिमट कर रह जाता है।
प्रेमचंद इकलौते ऐसे व्यक्ति थे, जिनकी शब्द संख्या 1.50 लाख तक पहुँची थी। इस आँकड़े का मतलब? मतलब हम भाषा को कितना कम समझते हैं या क़ायदे से आधा भी नहीं! भारतीय दर्शन में तो शब्दों का दर्जा बहुत बड़ा है, शब्दों को ब्रह्म तुल्य माना जाता है। यानी जितना सत्य है, शब्दों से हट कर कुछ नहीं! और शब्द कहाँ से आए? भाषा से!
भाषा का अपना इतिहास है, विज्ञान है, अपनी एंथ्रोपोलॉजी (मानवशास्त्र) है। भाषा में सम्बोधन, भाव भंगिमाएँ, ध्वनि और संकेत हैं। बल्कि इसे कुछ यूँ कहा जाना चाहिए कि भाषा है तभी छंद है, अलंकार है, गद्य और पद्य है, अभिव्यक्ति और विचार है। हम भाषा अपने जन्म से ही समझना शुरू कर देते हैं, फिर पढ़ते हैं और वह जन्मांतर तक हमारे साथ रहती है।
अंग्रेज़ी भाषा में एक कहावत है जो हिन्दी भाषा की चौखट पर सटीक बैठती है Language is an emotion of collectiveness (भाषा में एकीकरण की भावना है)। भाषा है, तभी विचार हैं और विचार हैं तभी अभिव्यक्ति है। सीधी सी बात है – ‘भाषा नहीं तो अभिव्यक्ति नहीं।’ कोई विचार प्रसारित होता है, तो वह भाषा की ही देन है। इस बात के आधार पर भाषा की प्रासंगिकता और उपयोगिता पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है।
हम पूरी दुनिया में शायद इकलौते ऐसे देश हैं, जिसने हिन्दी भाषा को माता का दर्जा दिया है और यह कारण पर्याप्त है भाषा के लिए कट्टर बनने के लिए। माता के साथ स्नेह और सम्मान की भावनाएँ जुड़ी होती हैं और इन बातों से आज तक किसी भी तरह का समझौता नहीं हुआ है। एक यथार्थ यह भी है कि हम भले अपनी भाषा के लिए कितने कट्टर क्यों न बन जाएँ पर हिन्दी भाषा से ज़्यादा सहिष्णु भाषा भी कोई दूसरी नहीं है।
अपनी यात्रा में हिन्दी भाषा ने सबसे ज़्यादा उतार-चढ़ाव देखे हैं लेकिन इसी भाषा ने सभ्यता को जन्म दिया। हिन्दी भाषा की वजह से ही सामाजिक और सामुदायिक सुधार हुए। भाषा के स्वरूप में बदलाव लाने का मतलब भाषा की आत्मा कुचलने जैसा है और जब आत्मा ही नहीं होगी तो एक लाश को कितना और कैसै सजाया जा सकता है।
किसी जानकार ने लिखा है कि ‘भाषा या तो कठिन है या फिर नहीं है’ और सच्चाई यही है कि भाषा की सुंदरता उसके असल स्वरूप में है। यही कारण है कि आज की तिथि में हिन्दी दुनिया की चौथी सबसे ज़्यादा उपयोग की जाने वाली भाषा है।
शब्द शास्त्र में इसके लिए एक उक्ति है ‘उकतार्थानाम अप्रयोगः’ मायने, जिस अर्थ के लिए कोई शब्द या शब्दांश उपयोग होता है उसके लिए दोबारा कोई शब्द उपयोग नहीं किया जाएगा अन्यथा पुनरावृत्ति दोष होता है। हम कभी गौर नहीं करते लेकिन हिन्दी भाषा में विकल्प की कमी नहीं है। कालांतर में हमने ख़ुद से विकल्प सीमित किए हैं। हम कभी खोजने का प्रयास नहीं करते हैं कि सॉफ्टवेयर की हिन्दी क्रमानुदेश होती है और हार्डवेयर की धातु सामग्री।
हिन्दी भाषा में आज भी ऐसे अनेक शब्द हैं, जो आम जनमानस से अपरिचित हैं। कभी एक आम वार्ता में कोई कहे अनुशीलन, उद्विग्न, आरूढ़, अलभ्य, आभ्यातारिक, परिस्फुट, नैराश्य। वार्ता में ऐसे किसी भी शब्द का उल्लेख करने से वहाँ स्थिति असामान्य हो जाती है लेकिन क्या वाकई ऐसा होना चाहिए? इस श्रेणी के शब्दों का उपयोग करने वालों को ‘टैबू’ की तरह देखा जाता है। ऐसी कोई अनिवार्यता भी नहीं है कि इनका इस्तेमाल होना ही चाहिए पर कम से कम इन्हें जानना और समझना तो आवश्यक है।
इसलिए हरिशंकर परसाई ने लिखा है कि हिन्दी दिवस के दिन हिन्दी बोलने वाले हिन्दी बोलने वालों को कहते हैं कि हिन्दी में बोलना चाहिए। ऐसी हालात हमारे सामने कभी नहीं आनी चाहिए। हिन्दी का दायरा और महत्व केवल एक दिन तक सीमित नहीं किया जा सकता है और न ही किया जाना चाहिए। और हिन्दी के सम्बंध में दिया जाने वाला सबसे गलत तर्क है कि हिन्दी केवल उत्तर भारत की भाषा है।
सच्चाई यह है कि तमिलनाडु के मन्दिरों में हिन्दी भाषी भजन बजते हैं। कोयम्बटूर में अच्छी भली हिन्दी बोलने-समझने वाली आबादी है। केरल के कई संस्थानों में हिन्दी अनिवार्य है। इतना ही नहीं, पूर्वोत्तर के ऐसे कई क्षेत्र हैं, जहाँ पर्याप्त हिन्दी बोली जाती है। गुवाहाटी, शिलॉन्ग, चेरापूंजी, दार्जिलिंग, गैंगटोक और न जाने कितने क्षेत्र… जिनके बारे में हम जानते ही नहीं।
हिन्दी भाषा में अच्छा लिखने वालों की सूची और भी लंबी है, हिन्दी भाषा ने बहुतों को बहुत कुछ दिया शायद इतना, जितना लौटाया नहीं जा सकता। इस भाषा ने सभ्यताओं को गढ़ा है और अब यह भावनाएँ गढ़ती हैं। छोटी कक्षाओं से लेकर भाषण के मंचों तक और नुक्कड़ पर होने वाली बहसों से लेकर पुस्तकों में उकेरे गए हर अहम शब्द तक। भाषा ने पीढ़ियों का बुनियादी ढाँचा सुधारा है और आने वाले समय में भी सुधारेगी, ज़रूरत है तो इसका सम्मान करने की और इसे समझने की।