जेएनयू का नाम सुनते ही कोई ऐसा शोध याद आ जाए जिसने भारतीय समाज की दिशा बदल दी हो, ऐसा आज तक नहीं हुआ। जेएनयू का नाम सुनने पर जो सबसे पहले शब्द जेहन में आते हैं वो ये हैं: नक्सलियों का गढ़, भारतविरोधी नारेबाजी करने वाले, टुकड़े-टुकड़े गैंग, और हाँ सुशिक्षित बच्चों का फेवरेट नारा- नीम का पत्ता कड़वा है, मोदी साला भड़वा है’।
ये है जेएनयू की कुल कमाई। कुछ लोग ये भी कहते हैं कि इस विश्वविद्यालय को इस तरह से परिभाषित नहीं करना चाहिए, ज्यादातर बच्चे अच्छे हैं। जबकि इसके उलट, ज्यादातर बच्चे उन्हीं वामपंथियों को वोट देकर छात्र संघ में भेजते हैं जो ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ के चीफ आर्किटेक्ट हैं। अगर उनकी विचारधारा इस तरह की नहीं है, तो फिर ये नक्सली सोच वाली पार्टियाँ कैसे सबसे ज्यादा वोट पा जाती हैं? मुझे उनके जीतने से समस्या नहीं है, कम से कम ये स्वीकार तो करो कि तुम लोगों का नेता कैसा है, और वो क्या चाहता है?
आज कल जेएनयू फिर से चर्चा में है। जेएनयू चर्चा में कभी भी अच्छी बात के लिए नहीं आता। हमेशा किसी आंदोलन, किसी का घेराव, किसी के एम्बुलेंस को रोकने, किसी महिला के कपड़े फाड़ने, प्रधानमंत्री को भड़वा और भंगी बुलाने या फिर अपनी विचारधारा से अलग किसी भी व्यक्ति को कैम्पस में घुसने न देने आदि के कारण ही जेएनयू के छात्र चर्चा में आते हैं।
हाल ही में खबर आई कि जेएनयू में हॉस्टल का रेंट 3000% बढ़ा दिया गया। सही बात है, ये सुन कर किसी का भी दिमाग हिल जाएगा कि ये क्या बात हुई कि तीस गुणा रेंट बढ़ा दिया। लेकिन हेडलाइन से नीचे उतरने पर पता चला कि हॉस्टल में एक बेड का रेंट 10 रुपया प्रति महीना है। जी, दिल्ली में 10 रुपया प्रति महीना। इसे बढ़ा कर 300 रुपया किया गया है तो बच्चे सड़कों पर हैं। ताजा खबर यह आई है कि फीस की बढ़ोत्तरी को वापस ले लिया गया है।
कोई ये बता दे कि दिल्ली में किस जगह पर एक कमरे का किराया, जेएनयू के बढ़े हुए चार्ज के भी बराबर है? इसके साथ-साथ खाना बनाने वाले, सफाई करने वाले, अन्य मेस सहायकों के लिए विद्यार्थियों से 1700 रुपया प्रति महीना लेने की बात हुई है। मतलब हॉस्टल में रहने का पूरा खर्चा 2000 रुपया आ रहा है। इस पर भी बवाल हो रहा है।
बिहार-यूपी-झारखंड आदि जगहों से आने वाले हजारों बच्चे जब नरेला से लेकर नजफगढ़, नेहरू विहार, गांधी विहार आदि जगहों पर रहने जाते हैं तो उसका एक कमरे का रेंट 7-8000 से कम नहीं होता। ये इलाके छात्रों के रहने के इलाके हैं, जिसे सस्ता कहा जाता है। पूरे महीने का खर्चा 12-15,000 से कम नहीं आता। लेकिन यहाँ 300 रुपया देने में कष्ट हो रहा है।
भावुक कहानियाँ रची जा रही हैं
रवीश कुमार ने किसी ‘जे सुशील’ की कहानी छापी है कि उसने अपने संस्थान में टॉप किया था, नौकरी नहीं मिली, बस स्टॉप पर पेट में गमछा बाँध कर सोया, किसी ने गैरकानूनी तरीके से हॉस्टल में रहने की जगह दी। कहानी बहुत भावुक करने वाली है। लेकिन इसके उलट मेरे भी पास एक भावुक कहानी है। एक आदमी है बेगूसराय के रतनमन बभनगामा गाँव में। उसका नाम है राम विलास सिंह।
उसके हिस्से कुल डेढ़ बीघा जमीन है, परिवार में पत्नी और तीन बच्चे, और एक माँ। जीविकोपार्जन के लिए और कोई साधन नहीं। उसके बच्चे का एक अच्छे स्कूल में एडमिशन हो जाता है, 1997 में फीस करीब 35,000/वर्ष। उसकी आमदनी इतनी नहीं थी कि वो पैसे दे पाता। कर्ज लेता है, और बच्चे को सैनिक स्कूल तिलैया भेजता है।
लेकिन। पहले कर्ज के बाद वो सो नहीं जाता। वो अपनी आय बढ़ाने के लिए उपाय ढूँढता है, वो नए तरीके आजमाता है ताकि उसे दोबारा कर्ज न लेना पड़े। वो मेहनत करता है ताकि उसके बच्चे को बेहतरीन शिक्षा मिले। ऐसा नहीं है कि सात सालों के स्कूल और अगले पाँच साल तक दिल्ली में रहने वाले उस बच्चे के लिए राम विलास ने दोबारा कर्ज नहीं लिया। लिया, लेकिन उसी जमीन से, उसी एक जोड़ी बैल और दो-तीन गाय से उसने इतनी कमाई की कि उसका बेटा सैनिक स्कूल से पढ़कर, किरोड़ीमल कॉलेज में पहुँचा, फिर देश के बड़े मीडिया संस्थानों में नौकरी की।
राम विलास सिंह मेरे पिता हैं और उनका नाम पास के दस गाँव के लोग सिर्फ इसलिए जानते हैं कि ये आदमी बहुत मेहनती है। मेरे पिता भी पेट पर गमछा बाँध कर अपने बचपन में सोते थे। उसके लिए सरकार को नहीं कोसा, बल्कि जो उनकी भुजाओं की शक्ति से दोहन योग्य था, उन्होंने वैसा किया। आप गरीब पैदा होते हैं, ये प्रकृति की क्रूरता कह लीजिए, लेकिन अगर आप 20 साल तक भी गरीब ही हैं, तो ये आपकी गलती है।
फीस ही एक मुद्दा नहीं: जेएनयू के ‘IStandWithJNU’ वाले छात्र
जब मैंने ट्विटर पर लिखा कि जेएनयू पर चर्चा करूँगा तो मुझे वहाँ के एक छात्र ने बताया कि फीस ही एक मुद्दा नहीं है। जानने की कोशिश की तो उन्होंने कई बातें बताईं जिसमें रात में कैम्पस के कुछ गेटों को बंद करना, बाहरी असामाजिक तत्वों को घुसने से रोकने, छात्र अनुशासन हेतु कुछ नियमों की चर्चा है। साथ ही पार्थसारथी रॉक पर रात में जाने से लगी रोक, रात में स्टडी रूम को बंद करने की बात, SIS बिल्डिंग को जोड़ने वाले रास्ते बंद करना, सोते छात्रों को वार्डन द्वारा जगाना आदि भी चर्चा के बिंदु हैं।
उसके बाद उस लड़के ने ‘एडमिन से छात्र ही नहीं स्टाफ भी गुस्सा हैं’ आदि की बात करते हुए बताया कि कई कर्मचारियों को निकाला गया है, बोनस नहीं दिया जा रहा आदि की भी बातें की। बताया कि प्रशासन बस बच्चों को तंग करना चाह रहा है अनुशासित करने की आड़ में।
आप इन सारी बातों को अलग संदर्भ से अलग कर के देखें तो लगेगा कि सारी बातें जायज हैं। अगर कैम्पस है तो पूरी रात खुला होना चाहिए, स्टडी रूम खुला होना चाहिए, गेट आदि खुले रहें ताकि बच्चे बाहर आ-जा सकें। लेकिन जेएनयू को आप आज के संदर्भ में ही देख सकते हैं, चालीस साल पहले के नहीं।
संदर्भ यह है कि अगर यहाँ के पुराने छात्र हॉस्टलों में डटे रहते हैं, तो उन्हें निकालने के लिए रात में वार्डन छापा मारेगा ही। अगर यहाँ गैर-जेएनयू वाले भीड़ का हिस्सा बन कर आंदोलन का हिस्सा बनते हैं, उपद्रव करते हैं, तो रात में रास्ते बंद करना आवश्यक है। अगर यहाँ किसी के भी आने-जाने पर रोक नहीं है, और उसका परिणाम यह होता है कि भीड़ जुटती है, आतंकियों का समर्थन करती है, और इस राष्ट्र के खिलाफ नारे लगते हैं, तो बेशक हर हॉस्टल के गेट पर न सिर्फ ताला लगना चाहिए, बल्कि दिन में तीन बार सारे बच्चों की हाजिरी भी लगनी चाहिए। इन बच्चों और वहाँ के स्टाफ आदि के अलावा जो भी वहाँ मिलें, उन्हें उचित कारण न होने पर कैम्पस से तुरंत बाहर किया जाना चाहिए।
पार्थसारथी रॉक पर रात में क्यों जाना है? कैम्पस अगर गार्डों का कमी के कारण आपकी सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकता, तो फिर विद्यार्थियों को आंदोलन करने की बजाय प्रशासन का साथ देना चाहिए। सब लोग चंदा कर के गार्ड की तनख्वाह दें। अगर लगता है कि पैसा नहीं दे सकते, तो दो-दो घंटे की ड्यूटी दीजिए ताकि नजीब अहमद की तरह बच्चे गायब न हों कैम्पस से।
इन सारी माँगों में एक माँग मुझे उचित लगती है वो यह है कि स्टडी रूम पूरी रात खुली होनी चाहिए। कैम्पस पढ़ाई की जगह है, और लोग रात-बेरात जब पढ़ाई लगे, पढ़ना चाहेंगे। उसकी समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। इस पर आप ये नहीं कह सकते कि गार्ड नहीं हैं। सीसीटीवी कैमरा लगा दीजिए, बायोमेट्रिक पंच इन की व्यवस्था कर दीजिए, सुरक्षा सुनिश्चित हो जाएगी।
जेएनयू वालों को इसलिए भी गाली पड़ती है, क्योंकि ये लोग कभी भी ढंग की बातों को लेकर आंदोलन नहीं करते। कुछ समय पूर्व विद्यार्थियों को इससे समस्या हो गई थी कि उनकी उपस्थिति क्यों दर्ज करनी जरूरी है। वाह! मतलब शिक्षा लेने आए हैं, कैम्पस में रहते हैं, लेकिन क्लास कर रहे हैं, कि बाहर घूम रहे हैं, इस पर कोई उनसे सवाल न करे! इसे इन्होंने स्वतंत्रता का हनन तक कहा है। अगर इतना ही कम नहीं था, तो इनके शिक्षकों को भी इस बात से आपत्ति हुई कि वो बायोमेट्रिक सिस्टम से अपनी अटेंडेंस नहीं लगाएँगे।
आप यह देखिए कि ये किस तरह का कल्चर बनाना चाह रहे हैं। एक तरफ दलील यह कि हम तो पढ़ने वाले बच्चे हैं, गरीब हैं, दस रुपया ही फीस दे सकते हैं, हमें पढ़ने दो, अनुशासन की आड़ में परेशान मत करो। दूसरी तरफ, जो न्यूनतम उम्मीद प्रशासन करता है इन लोगों से, उसे भी पूरा करने में इन्हें ‘स्वतंत्रता का हनन’ और ‘सरकार का दवाब’ जैसे बड़े वाक्यांशों के ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना पड़ जाता है।
शिक्षा का फंडामेंटल अधिकार वाले कुतर्की
अब एक मूर्खतापूर्ण बातें करने वाला समूह वह है जो ‘बेहतरीन शिक्षा पर सबका संवैधानिक अधिकार है’ लिखता दिख रहा है। वो यह कहता फिर रहा है कि जेएनयू जैसे संस्थानों में शिक्षा मुफ्त होनी चाहिए, गरीब का बच्चा कहाँ पढ़ेगा आदि। यहाँ ये लोग भूल जाते हैं कि गरीब का बच्चा यहाँ पढ़ने आता है, लेकिन वो यहीं रुक क्यों जाता है? क्या जेएनयू में वो लोग नहीं रह रहे जो कहीं नौकरी करते हैं, लेकिन किसी भी विषय में प्रवेश लेकर जेएनयू की सब्सिडी वाली व्यवस्था का सतत लाभ ले रहे हैं?
कोई इसका ऑडिट करेगा कि कितने लोग बार-बार विषय बदल कर रहते हैं यहाँ? कोई इस बात पर चर्चा करेगा कि गरीब का बच्चा आखिर दो बार एमए, एमफिल, पीएचडी क्यों कर रहा है? मैं ये नहीं कह रहा कि नहीं करना चाहिए, लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि एमए के बाद गरीब के बच्चे को नौकरी करने की कोशिश करनी चाहिए? क्योंकि गरीब का बच्चा अगर पीएचडी और पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च कर रहा है, और वहीं किसी गरीब की बच्ची से शादी कर लेता है, तो उनके बच्चे भी गरीब के ही बच्चे कहे जाएँगे।
ये कैसी विडंबना है कि ‘गरीब का बच्चा’ के नाम पर आपने हर साल उन बच्चों का रास्ता बंद रखा है जो वाकई ऐसी शिक्षा पाकर, तीन साल में निकल जाएँगे और नौकरी कर अपने परिवार को ग़रीबी से बाहर निकालेंगे। दाढ़ी पके हुए लड़के अगर ‘गरीब का बच्चा’ की लड़ाई लड़ रहे हैं तो उन्हें पार्थसारथी रॉक पर बिखरे बीयर के बोतलों को सर पर मारना चाहिए, ताकि उनके दिमाग के कुछ तंतुओं में ऊर्जा प्रवाह शुरु हो और वो सही सोचना चालू करें।
शिक्षा एक मौलिक अधिकार है, और पूजा करना भी एक मौलिक अधिकार है। लेकिन, कोई ये कह कर अड़ जाए कि मैं तो रामेश्वरम् में ही पूजा करूँगा और सरकार उसका खर्चा उठाए, तो ये कुतर्क है। मौलिक अधिकार के नाम पर आप ये भी कह सकते हैं गरीब के बच्चे को भी IIT और IIM में जगह मिलनी चाहिए। जबकि, यहाँ गरीबी प्रवेश का आधार नहीं है, कौशल है।
उसी तरह, शिक्षा मौलिक अधिकार है, तो सरकार की जिम्मेदारी शिक्षण संस्थान खोलने, उन्हें सुचारू रूप से चलाने की है, न कि यह कि शिक्षा मुफ्त कर दी जाए। वैसे, आदर्श स्थिति तो यही है कि शिक्षा मुफ्त कर दी जाए, लेकिन क्या आपके बजट में वैसी संभावना है? यहाँ 13 लाख बच्चे कुपोषण से हर साल मरते हैं, बच्चों के टीकाकरण के पैसे बजट में नहीं निकल पाते और हम वहाँ देख रहे हैं कि शिक्षा तो मौलिक अधिकार है, मुफ्त होनी चाहिए।
फिर गरीब छात्र कहाँ जाएँ?
ऐसा तो है नहीं कि गरीब छात्रों को लिए सरकार ने कोई प्रावधान किया ही नहीं है! प्राथमिक शिक्षा से लेकर कॉलेज, यूनिवर्सिटी तक आरक्षण की सुविधा है। यह सुविधा इसीलिए है क्योंकि इस देश में एक बहुत बड़ा तबका गरीब है, वंचित है, शोषित है। सरकारों ने हर स्तर पर इसे स्वीकारा है और इस बार तो सामान्य वर्ग के गरीब लोगों को भी आरक्षण की सुविधा दी गई है।
आरक्षण न सिर्फ प्रवेश पाने के लिए है, बल्कि फॉर्म भरने से लेकर एडमिशन फीस तक हर स्तर पर आर्थिक मदद के रूप में है। जितनी मदद की जा सकती है, और जिस तरह का शिक्षा बजट है, उस दायरे में मदद हो रही है। इसलिए ‘गरीबों के बच्चे कहाँ जाएँगे’ वाली बात बेमानी लगती है। दिल्ली विश्वविद्यालय की भी फीस पता कर लीजिए कितनी है। इस तरह के सारे कॉलेज सरकारी पैसों से ही चलते हैं और बच्चों से न्यूनतम योगदान माँगा जाता है।
हो सकता है कि आने वाले समय में हमारी अर्थव्यवस्था उस स्तर पर पहुँचे कि शिक्षा मुफ्त हो जाए, हर व्यक्ति को स्वास्थ्य सुविधा मिले। लेकिन आज का सत्य यही है कि साल-दर-साल शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकारें समुचित ध्यान नहीं दे पा रहीं। इसलिए, यह सोचना बहुत अच्छा है कि शिक्षा मौलिक अधिकार है, लेकिन मौलिक अधिकार को ऐसे मत देखिए कि फलाना आदमी अरमानी का सूट पहनता है तो हर गरीब को सरकार सूट बाँट दे। नहीं, गरीब को मेहनत करनी चाहिए और सूट खरीद कर पहनना चाहिए।
जेएनयू वालों को सोचना चाहिए कि उनके शोधों पर समाज का ध्यान क्यों नहीं जाता है? आखिर सकारात्मक बातें गायब क्यों है कि लोग ऐसे बेहतरीन विश्वविद्यालयों की नौटंकी से इतना उब गए हैं कि उसे बंद करने के लिए सोशल मीडिया पर कैम्पेन चलाने लगते हैं? आखिर ऐसी क्या ‘स्वतंत्रता’ इन विद्यार्थियों को चाहिए जहाँ उनकी अपनी सुरक्षा तक की उन्हें चिंता नहीं, कि बाहर से कोई आएगा और नजीब अहमद को गायब कर देगा?
कैम्पस है, तो कैम्पस के लोग सुनिश्चित करें कि वहाँ छात्र-छात्राएँ ही विचरेंगे न कि उनके दोस्त, उनके दोस्त के दोस्त और उनके दोस्त के दोस्त के दोस्त का दोस्त! एक तरफ किसी लड़की को सीडी देने के बहाने नशा खिला कर बलात्कार कर दिया जाता है और दूसरी तरफ बच्चे चाहते हैं कि छात्र-छात्राएँ एक दूसरे के छात्रावासों में आते-जाते रहें?
दोनों को कुछ काम है तो वो काम क्या सार्वजिनक जगहों पर नहीं हो सकता? उसके लिए हॉस्टल का एक छोटा कमरा क्यों चाहिए? पुस्तकालय में जाइए, कैंटीन में जाइए, मैदान में जाइए, पार्क में जाइए, क्लासरूम में जाइए! हॉस्टल में ही क्यों जाना है? किताबों की लेन-देन हॉस्टल के गेट पर भी हो सकती है। चूँकि वहाँ बलात्कार जैसे अपराध हो रहे हैं, मोलेस्टेशन में जेएनयू देश का प्रतिनिधित्व कर रहा है, तब इस तरह की माँगों का क्या औचित्य है?
जेएनयू के सारे आंदोलनरत विद्यार्थियों को यह ध्यान रखना चाहिए कि उनका मूल उद्देश्य विद्यार्जन करते हुए राष्ट्र निर्माण में सहयोग देना है, न कि अनंतकाल तक छात्रावास में, विषय बदल-बदल कर कैम्पस में टिके रहना और रात में पार्थसारथी रॉक पर जाने की जिद बाँधना। अगर सारे छात्र-छात्राएँ अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी ले लें, अपने माता-पिता से अनुमति ले लें कि उन्हें अंधेरे में कैम्पस के खास गेटों से बाहर जाना है, किसी चट्टान पर विचरना है, किसी विपरीत लिंग वाले विद्यार्थी के कमरे में जाना है, तो प्रशासन निश्चिंत हो कर सो जाएगा।
आपकी ही सुरक्षा की बातों के लिए प्रशासन एहतियाती कदम उठा रहा है तो उसके लिए आंदोलन करना बताता है कि आपकी मंशा सही नहीं है। हर बात को ‘सरकार हमें दबाना चाहती है’ के नाम पर खेल जाना, सर्वथा अनुचित है। आंदोलन के नाम पर वीसी को कमरे में बंद कर देना, रोगी शिक्षक को घेर लेना, महिला के कपड़े फाड़ देना, बताता है कि प्राथमिकताएँ हिली हुई हैं।
छात्र जीवन में आंदोलन करना, विरोधी स्वर तीव्र रखना, रेबेल होना, सत्ता के खिलाफ चर्चा करना आदि एक वांछित गुण है, क्योंकि इससे आपके सोचने-समझने की क्षमता का विकास होता है। लेकिन, इसी आंदोलन के नाम पर आपकी नारेबाजी में गाली, देश को तोड़ने की बात, अश्लील हरकतें, सामने वाले की परेशानी को दरकिनार करने जैसी बातें, बताती हैं कि ये आंदोलन मानसिक या शैक्षणिक नहीं है, ये आंदोलन शक्ति का क्रूर प्रदर्शन है कि हाँ, हमारे पास लोग हैं, जो रास्ता रोक सकते हैं, कपड़ा फाड़ सकते हैं, आगजनी कर सकते हैं।
फिर तो करते रहिए। आप अगर इसे सही मानते हैं तो फिर वो भी सही हैं जो आपको ‘फ्री लोडर’, ‘अंकल-आंटी ऑफ जेएनयू’, ‘एंटी नेशनल’ कहते हुए ‘शट डाउन जेएनयू’ जैसे हैशटैग चलाते हैं।