भारत में विधायिका और कार्यपालिका की आलोचना सरेआम होती है। इनमें सुधार की जरूरत पर जोर दिया जाता है। लेकिन न्यायपालिका को लेकर एक तरह की खामोशी देखने को मिलती है। जबकि अदालतों में आम लोगों के 4.5 करोड़ केस पेंडिंग हैं। ‘तारीख पर तारीख़’ की व्यवस्था में केस लड़ते-लड़ते पीढ़ियाँ खप जाती हैं। लेकिन, कई ऐसे मामले हैं जब सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे आधी रात को भी खोले गए हैं।
हजारों बार ये कहावत दोहराई जा चुकी है कि न्याय में देरी का अर्थ है, न्याय न मिलना। अदालतों में मामलों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है और 2019 के बाद से तो औसतन हर मिनट 23 नए मामले दर्ज हो रहे हैं। ऊँची अदालतों में 41% ऐसे मामले हैं, जो 5 वर्ष से अधिक समय से पेंडिंग पड़े हुए हैं। 45 लाख से भी अधिक केस ऐसे हैं, जिन्हें दर्ज हुए 10 वर्ष से अधिक हो गए। उच्च-न्यायालयों में जजों की 42% सीटें खाली हैं। जज ही नहीं हैं तो सुनवाई कैसे होगी?
तेलंगाना, पटना, राजस्थान, ओडिशा और दिल्ली जैसे हाईकोर्ट में तो जजों के आधे पद खाली पड़े हुए हैं। निचली अदालतों में जजों की 21% सीटें खाली हैं। बिहार (40%)और हरियाणा (38%) में ये उच्च स्तर पर है। यहाँ तक कि फ़ास्ट ट्रैक अदालतों में भी 9.2 लाख केस पेंडिंग पड़े हुए हैं। भारत की जेलों में तो 4.8 कैदियों में से 3.3 लाख ऐसे हैं, जिनकी सुनवाई चल रही है। 5000 ऐसे हैं, जो सुनवाई के दौरान 5 वर्षों या उससे अधिक समय से जेल में बंद हैं।
निर्भया मामला: जब आरोपितों के लिए आधी रात को सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई
निर्भया मामले के बारे में अधिकतर लोगों को पता है, लेकिन आगे बढ़ने से पहले इस घटना का संक्षिप्त परिचय ज़रूरी है। 16 दिसंबर, 2012 को जब निर्भया (बदला हुआ नाम) अपने एक दोस्त के साथ बस में सफर कर रही थीं, एक नाबालिग समेत 6 लोगों ने मुनिरका बस स्टैंड से खुली उस चलती हुई बस में लड़की के साथ गैंगरेप किया और उसके पुरुष मित्र की पिटाई की। करीब दो सप्ताह तक चले इलाज के बाद निर्भया ने दम तोड़ दिया। 11 मार्च, 2013 में बलात्कारियों में से एक राम सिंह ने तिहाड़ जेल में आत्महत्या कर ली थी।
उसी साल 13 सितंबर को फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट ने सभी बलात्कारियों को मौत की सज़ा सुनाई। अगले साल 13 मार्च को दिल्ली हाईकोर्ट ने सज़ा बरक़रार रखी। 2017 में 5 मई को सुप्रीम कोर्ट ने भी फाँसी की सज़ा बरकरार रखी। इसके बाद समीक्षा याचिकाओं और माफ़ी याचिकाओं का दौर चला। निर्भया के परिवार को भी इस दौरान इन याचिकाओं के खिलाफ कोर्ट का रुख करना पड़ा। एक आरोपित ने मानसिक बीमारी का बहाना बनाया, इन सब में सुनवाई लम्बी खींचती रही।
मार्च 2020 में इन बलात्कारियों के लिए सुप्रीम कोर्ट को रात में सुनवाई करनी पड़ी, उनकी फाँसी के समय (सुबह 5:30 बजे) से कुछ ही घंटों पहले तक। एक आरोपित ने अपनी फाँसी रोकने के लिए याचिका लगा दी और सुप्रीम कोर्ट को आधी रात को ‘स्पेशल हियरिंग’ करनी पड़ी। उनके वकील ने सुप्रीम कोर्ट के एक उच्च-स्तरीय अधिकारी से इस बाबत संपर्क किया था। 3 जजों को रात को बैठ कर 45 मिनट सुनवाई करनी पड़ी।
#Nirbhaya ‘s mother said in TV interview : only for terrorist court opens at midnight NOT for daughter of India
— Rahul Pramod Mahajan (@TheRahulMahajan) December 20, 2015
हालाँकि, सुनवाई में याचिका रद्द की गई और बलात्कारियों की फाँसी का मार्ग प्रशस्त हुआ। वकील एपी सिंह ने सुनवाई को एकाध दिन और खींचने के लिए कुछ और बहाने बनाए। उसी शाम को पहले ये सभी हाईकोर्ट पहुँचे थे, जहाँ से फिर रात को सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाल दी गई। सोचिए, 8 सालों तक निर्भया के परिवार को किस दौर से गुजरना पड़ा होगा। दोष कब का साबित हो गया था, लेकिन अलग-अलग कानूनी दाँव-पेंच का इस्तेमाल कर-कर के इसे लटकाया जाता रहा।
जब एक आतंकी की फाँसी रुकवाने के लिए आधी रात को खुली देश की सर्वोच्च अदालत
याकूब मेमन और उसकी फाँसी रोकने के लिए हुई आधी रात की सुनवाई से पहले इस आतंकी से आपका परिचय करा देते हैं। जुलाई 1962 में जन्मा याकूब अब्दुल रज्जाक मेमन पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट (CA) था, लेकिन 1993 के बम धमाकों में उसका बड़ा रोल सामने आया। उसका भाई टाइगर मेमन भी इस आतंकी घटना में शामिल था। उसने अपनी कमाई दाऊद इब्राहिम और टाइगर मेमन को दी, मुंबई को दहलाने के लिए। 30 जुलाई, 2015 को उसे नागपुर में फाँसी पर लटकाया गया।
उसकी फाँसी रुकवाने के लिए प्रशांत भूषण सरीखे वकीलों ने आधी रात में सुप्रीम कोर्ट खुलवाई, जहाँ डेढ़ घंटे तक सुनवाई हुई। इसके बाद उसकी फाँसी रोकने वाली याचिका को खारिज किया गया। तत्कालीन मुख्य न्यायधीश एचएल दत्तू से लेकर जज दीपक मिश्रा के घरों तक के दरवाजे इसके लिए खटखटाए गए। उससे पहले सुबह के 3 बजे सुप्रीम कोर्ट कभी नहीं खुली थी। 3 जजों की पीठ ने ये सुनवाई की। सोचिए, 2007 में ही उसका दोष सिद्ध हो गया था, लेकिन फाँसी होते-होते 8 साल लग गए।
पूरी रात याकूब मेमन को बचाने के लिए ड्रामा चलता रहा। प्रशांत भूषण और वृंदा ग्रोवर जैसे अधिवक्ता इसका नेतृत्व कर रहे थे। रात के समय तत्कालीन अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी को सुप्रीम कोर्ट के सेक्रेटरी जनरल से फोन गया कि रात के ढाई बजे अर्जेन्ट सुनवाई है। पत्रकारों का भी जमावड़ा लग गया कोर्ट संख्या 4 में। वकील आनंद ग्रोवर ने आतंकी के लिए ‘जीवन के अधिकार’ की दलीलें दी। AG ने तब स्पष्ट कहा था कि फाँसी रुक गई तो ये मामला एक कभी न खत्म होने वाली प्रक्रिया में फँस जाएगा।
ऐसे अन्य मामले, जब रात को सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई
इसी तरह एक मामला है निठारी केस का, जिसे नोएडा सीरियल मर्डर के रूप में भी जानते हैं। मोनिंदर सिंह पंधेर और उसका नौकर सुरिंदर कोली इस मामले में मुख्य अभियुक्त है (ये मामला अब भी चल रहा)। 19 से अधिक बच्चों की हत्या के मामले इन दोनों पर चल रहे हैं। दोनों को मौत की सज़ा सुनाई जा चुकी है। CBI को मामला सौंपा गया। 17 बच्चों के कंकाल या अंग मिले, जिनके पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट से पता चला कि उनमें से 11 लड़कियाँ थीं। एक मृतक की उम्र 18 से अधिक भी है।
2005-06 में हुए इस हत्याकांड के लिए दोनों को फाँसी की सज़ा सुनाई गई, लेकिन जब मार्च 2014 में जब सुरिंदर कोली की मौत की सज़ा की तारीख और समय मुक़र्रर कर दिया गया था, तब उसके वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। फाँसी के तय समय से मात्र दो घंटे पहले। और सुप्रीम कोर्ट ने फाँसी पर रोक भी लगा दी। अब आप सोचिए, क्या एक आम आदमी की इतनी हैसियत है? निठारी मामले के बारे में आप जितना पढ़ेंगे, आपकी रूह उतनी ही काँपेगी।
Breaking: Supreme Court Chief Justice woke up middle of the night and stayed (for a week) Surinder Koli’s execution planned for the morning
— Ushinor Majumdar (@_Ushinor) September 7, 2014
2014 में भारत सरकार बनाम शत्रुघ्न चौहान मामले में 16 दोषियों को मौत की सज़ा शाम 4 बजे सुनाई गई थी, लेकिन उससे एक रात पहले सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पी सतशिवम के घर तक वकील पहुँच गए। रात के 11:30 में सुनवाई हुई और फाँसी पर रोक लगी। इसी तरह अप्रैल 2014 में हत्या के दोषी मंगलाल बरेरा के लिए कोर्ट रात में खुली। जम कर राजनीति हुई। इसी तरह 2018 में कॉन्ग्रेस पार्टी ने भाजपा पर कर्नाटक में उसकी सरकार गिराने का आरोप लगाया और रात में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई।
हालाँकि, ये सब कुछ नया नहीं है। शक्तिशाली और प्रभावशाली लोगों के लिए कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका – तीनों ही साध्य है। 1985 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश इएस वेंकटरमैया को रात के समय जगाया गया और उद्योगपति एलएम थापर को जमानत दी गई। दिसंबर 1992 में बाबरी ढाँचे के विध्वंस के बाद रात को सुप्रीम कोर्ट के जजों ने सुनवाई की। तत्कालीन CJI एमएन वेंकटचलिआह के आवास पर ही अदालती सुनवाई की प्रक्रिया हुई।
इसी सुनवाई के बाद आदेश दिया गया कि अयोध्या में यथास्थिति बरक़रार रखी जाए। राजधानी दिल्ली का एक रंगा-बिल्ला आपराधिक मामला भी है, जब तत्कालीन CJI जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़ (कार्यकाल फरवरी 1978 से जुलाई 1985 तक) की अध्यक्षता वाली पीठ ने देर रात बैठ कर उनकी फाँसी रोकने वाली याचिका पर सुनवाई की। 1998 में कल्याण सिंह बनाम जगदम्बिका पाल मामले में सदन में बहुमत साबित करने का आदेश देने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने आधी रात को सुनवाई की।
जैसा कि आपने देखा, इन सब में कोई ऐसा मामला नहीं है जहाँ कोई आम आदमी सुप्रीम कोर्ट पहुँचा हो और उसे न्याय देने के लिए सुनवाई हुई हो। लेकिन, बलात्कारियों, उद्योगपतियों और हत्यारों के लिए सुप्रीम कोर्ट रात में खुली और सुनवाई भी हुई। वकीलों की फ़ौज CJI के घर तक पहुँची और उन्हें जगाया। सवाल गलत-सही का नहीं, सवाल ये है कि क्या एक गरीब आदमी न्याय के लिए CJI के घर का दरवाजा जाकर खटखटाए तो क्या होगा? रात के समय, जब वो सो रहे हों…