Wednesday, April 24, 2024
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माँ कामाख्या की धरती पर लोक परंपराओं को मिला मंच, नृत्य-संगीत से लेकर उत्तर-पूर्व के खानपान तक का अनुभव एक जगह: ‘प्रज्ञा प्रवाह’ के प्रयास से जुटे 3700+ प्रतिनिधि

उम्मीद हैं कि अभिजात्य वर्ग के तथाकथित पाश्चात्य बुद्धिजीवियों की बजाए जमीनी वास्तविकताओं से परिचित लोगों को राष्ट्रीय मंच देने की माँग तेज होगी। भारत की लोक परंपरा सदैव ही ज्ञान आकांक्षी, प्रयोग आधारित और अनुभवजनित रही हैं।

भारत में जितनी भी लोक परंपराएँ प्रचलित रही हैं, उन सभी परंपराओं में आस्था और ज्ञान सबसे महत्वपूर्ण विषय रहे हैं। पिछले दिनों मुझे आस्था और ज्ञान के संगम ‘लोकमंथन 2022’ के आयोजन में माँ कामाख्या के पावन स्थल गुवाहाटी जाने का अवसर प्राप्त हुआ, जहाँ संपन्न हुए 4 दिवसीय राष्ट्रीय आयोजन के द्वारा समाज में व्याप्त विष को अमृत में बदलने का बौद्धिक प्रयास देखने को मिला। यह कार्यक्रम भारतीय विरासत के जड़ों को जानने, समझने और भविष्य के लिए संरक्षित करने का सफल प्रयास कहा जाना चाहिए।

इसे अकादमिक जगत के लिए आजादी के 75 वर्ष पूरे होने के इस अमृत काल में भारत के अगले 25 वर्षों की शिक्षा, शोध, ज्ञान एवं संवाद की परंपरा के रूपरेखा के तौर पर भी देखा जाना चाहिए। ‘प्रज्ञा प्रवाह’ और असम सरकार के संयुक्त तत्वाधान में 21 से 24 सितम्बर को गुवाहाटी में हुए लोकमंथन कार्यक्रम, ‘राष्ट्र सर्वोपरि’ की भावना से परिपूर्ण विचारकों एवं कर्मशील व्यक्तियों के लिए लोकमंच के रूप में उभर कर आया, जिसके द्वारा ‘भारत की लोक परंपराएँ’ और राष्ट्र की सामूहिक प्रज्ञा को एकीकृत कर उत्सव के रूप में मनाया गया।

भारत के उज्ज्वल भविष्य के लिए देश की गौरवशाली परंपराओं और विशिष्ट राष्ट्रीय चरित्रों को प्रदर्शित किया गया। वास्तव में कहे तो इस राष्ट्रीय विमर्श के द्वारा भारतीय अपेक्षाओं, सामाजिक व्यवस्था की परंपरा तथा समता के आधार पर समकालीन मुद्दों को साझा किया गया। इस बौद्धिक विमर्श में नए भारत की नींव के लिए लोक के समस्त आयामों को अंतर्निहित करने का प्रयास किया गया। कार्यक्रम के विभिन्न व्याख्यान सत्रों में लोक आस्था और विज्ञान की परंपरा, शक्ति की अवधारणा, पाक परंपरा, वंशावली लेखन का महत्व, शिक्षा में कहानी कहने की परंपरा, संगीत वाद्ययंत्र, धार्मिक यात्राएँ एवं अन्नदान की परंपरा, संस्कार और कर्तव्य, भारत की औद्योगिक जातियाँ, पर्यावरण और जैव-विविधता, जल संरक्षण आदि विषयों पर वैचारिक मंथन हुआ।

वहीं आयोजन के दूसरे हिस्से में कई लोक परंपराओं का प्रदर्शन किया गया, जिनमें असम के माँ कामख्या मंदिर की झाँकी विशेष रूप से आकर्षण का केंद्र रही। इसके साथ ही भारत के विभिन्न क्षेत्रों के प्रचलित वैवाहिक लोक परंपराओं, नृत्य-संगीत का प्रदर्शन, पारंपरिक जादू, मंत्र, टोटके, उत्तर-पूर्व के जनजातीय समुदाय के पारंपरिक खान-पान, परिधान और आर्थिक उपार्जन के प्राकृतिक स्रोतों को करीब से देखने एवं अनुभव करने का अवसर मिला।

कार्यक्रम की शुरुआत 21 सितम्बर को प्रदर्शनी उद्घाटन से हुआ, लेकिन वैचारिक सत्र की वास्तविक शुरुआत भारत के उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के वक्तव्य से, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा, प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय संयोजक जे नंदकुमार की उपस्थिति में हुआ। आम जनमानस के बीच जहाँ एक ओर राजनीतिक प्रतिनिधियों की उपस्थिति एवं उनके भाषण सुनने को मिले, वही दूसरी ओर पद्मश्री डॉ कपिल तिवारी, सोनल मानसिंह, गिरीश प्रभुणे जैसे भारत के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे कई पद्म विभूषण, पद्मश्री जैसे राजकीय सम्मानों से सम्मानित विद्वानों के साथ-साथ प्रतिष्ठित कर्मशील व्यक्तियों को मंच पर बराबर का स्थान प्राप्त हुआ।

कार्यक्रम का समापन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सहकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले एवं केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के वक्तव्य से हुआ, जो पूरे कार्यक्रम के संक्षिप्त निष्कर्ष के रूप में प्रतिनिधियों के सामने आया, जिसे उन्होंने भारत बोध के कई आयामों के रूप में व्याख्यायित किया। इस राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम में 3700 से अधिक प्रतिनिधियों का एक स्थान पर एकत्र हो पाना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है, जिसने असम और पूर्वोत्तर की संस्कृति के विभिन्न पहलुओं के लिए जिज्ञासा को प्रेरित किया है।

कार्यक्रम की सफलता संख्या बल की भागीदारी के साथ-साथ आम जनमानस पर उसके प्रभाव से भी आँका जाता हैं। ऐसे में एक बड़ी जिम्मेदारी है कि आयोजक इन एकत्र हुए प्रतिनिधियों से निष्कर्ष प्राप्त कर इसे देश हित के विकास कार्यों में सम्मिलित कर सकें। इस कार्यक्रम के जरिए विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिष्ठित नीति-निर्माताओं और अनुभवी विद्वानों के साथ बौद्धिक विमर्शों में भाग लेने वाले कर्मशीलों की उपस्थिति ने, अकादमिक जगत के लिए नए मापदंड तय कर दिए हैं।

ऐसे में उम्मीद हैं कि अभिजात्य वर्ग के तथाकथित पाश्चात्य बुद्धिजीवियों की बजाए जमीनी वास्तविकताओं से परिचित लोगों को राष्ट्रीय मंच देने की माँग तेज होगी। भारत की लोक परंपरा सदैव ही ज्ञान आकांक्षी, प्रयोग आधारित और अनुभवजनित रही हैं। यहाँ सूक्ष्म से स्थूल और स्थूल से गूढ़ तक के लिए देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप वैज्ञानिक तर्क मौजूद रहे हैं। ऐसे में जितने भी परंपराओं में परिवर्तन आवश्यक हुआ उनमें एक व्यापक संवाद परंपरा के बाद ही बदलाव संभव हो सके।

आज जिस पॉपुलर कल्चर के चश्मे से फोकलोर के दायरे में हम भारतीय लोक परंपराओं को देख रहे हैं निश्चय ही उसके संकीर्ण परिभाषाओं को बदलने की जरूरत हैं। जरूरत यह भी हैं कि भारतीय जनमानस अपने लोक परंपराओं को अपने यहाँ के लोक प्रयोगधर्मियों के द्वारा नजदीक से अनुभव करें न कि म्यूजियम या वार्षिक दिवसों में बदल कर एक दिन इकट्ठे हो ताली बजाएँ। भारतीय लोक के अनेक पहलुओं पर सांस्कृतिक और वैचारिक मंथन से यह भी उम्मीद बढ़ती हैं कि लोकमंथन जैसे सफल आयोजन देश भर के विभिन्न क्षेत्रों में शोध कर रहे शोधार्थियों, सांस्कृतिक कलाकारों एवं राष्ट्र प्रज्ञा के लिए तैयार हो रहे युवाओं के लिए नए लक्ष्य स्थापित करेगी।

साथ ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय ज्ञान परंपरा के समावेशन को विस्तार देगी। किसी भी राष्ट्र की समृद्ध लोक परंपराओं को अनुभव करके ही वास्तविक रूप से समझा जा सकता हैं और लोकमंथन 2022 के गुवाहाटी संस्करण का आयोजन इसी समृद्ध परंपरा को जीवंत कर राष्ट्रीय मंच पर लाने का एक सफल अनुभवजनित प्रयास रहा है।   

(लेखिका संगीता केशरी दिल्ली विश्वविद्यालय की शोधार्थी और ‘होप फाउंडेशन’ की मिडिया कंसल्टेंट् हैं।)

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