कई बार कहा जाता है कि नारों से क्या होता है? हाल में जब दिल्ली के किसी विश्वविद्यालय में लगे नारों का मामला पुलिस तक पहुँचा और देशभर में उनकी फजीहत होने लगी, तो कुछ लोगों ने कहा कि भला यूनिवर्सिटी के छात्रों के नारों से क्या असर होगा?
ऐसे ही कुछ भी बोल गए होंगे, जाने देना चाहिए। ऐसा कहने या सोचने वालों की इतिहास की जानकारी या तो कम होती है, या फिर वो शुद्ध धूर्तता कर रहे होते हैं। बरसों पहले 1986 में एम कॉम की पढ़ाई कर रहे एक छात्र ने भी नारा लगाया था। करीब पैंतीस वर्ष पहले लगा ये नारा आज तक भारत में गूँज रहा है।
पक्ष के लोग या कहें कि भक्त इसे उत्साहवर्धन के लिए लगाते रहे, और विपक्ष के लोग या कहें कि कमभक्त इसे मजाक उड़ाने के लिए इस्तेमाल करते रहे। मध्यप्रदेश के राजगढ़ से एम कॉम कर रहे छात्र ने बजरंग दल के एक शिविर में जब ये नारा लगाया, तो फिर ये नारा रुका ही नहीं। नारा था – ‘राम लला हम आएँगे, मंदिर वहीं बनाएँगे!”
विपक्षी कमभक्तों ने इसमें ‘तारिख नहीं बताएँगे!’ जोड़कर इसका चुटकुला भी बनाना चाहा। ये उनके पूज्य गोएबेल्स की एक प्रचलित तकनीक है, जिसमें विपक्षी के तर्कों का जवाब देने के बदले उनका मजाक बनाया जाता है। कमभक्तों ने गोएबेल्स से अच्छी शिक्षा पाई थी, और काफी सफलतापूर्वक गोएबेल्स की तकनीक का इस्तेमाल करने की कोशिश भी की।
उस वक्त के छात्र बाबा सत्यनारायण मौर्य अब पचपन साल के हैं। उन्होंने छह दिसंबर 1992 को अयोध्या में मंच संचालन भी किया था। उस वक्त वो आन्दोलन में प्रचार प्रमुख की भूमिका में थे। अयोध्या में उस दौर में दीवारों पर लिखे नारों और श्री राम और हनुमान जी के चित्रों में भी उनका काफी योगदान था।
वो अब भी पेंटिंग करते हैं और थोड़े दिनों में शायद उनकी प्रदर्शनी अयोध्या में भी होगी। लेकिन बात तो हम नारों की कर रहे थे। इन नारों में भी विशेष तौर पर ‘जय श्री राम’ के या इससे मिलते-जुलते दूसरे नारों से कई वर्गों को खासी समस्या रही है। कुछ मक्कार तो इसे श्री राम का नाम खराब करने की साजिश तक बताते रहे हैं।
राजपुताना रायफल्स का अस्तित्व जनवरी 10, 1775 है। भारतीय सेना के इस अंग के शौर्य की गाथाएँ और पदक तो अनगिनत हैं, लेकिन देखने योग्य उनका युद्ध उद्घोष है। वो ‘राजा रामचंद्र की जय’ के उद्घोष के साथ युद्ध में उतरते हैं। तो जैसा कि कुछ लोग साबित करना चाहते हैं, वैसे श्री राम का नाम कोई 1990 के दौर में युद्ध उद्घोष भी नहीं बना।
दूसरे तरीकों से भी देखें तो ‘जय श्री राम’ के उद्घोष के साथ लंका दहन करते हनुमान जी या लंका पर आक्रमण करती वानर सेना को लोग 1990 से थोड़ा पहले ही, रामानंद सागर के रामायण में देख चुके थे। ये अलग बात है कि कुछ लोगों ने इस नारे से चिढ़ना शुरू कर दिया तो बंगाल में ये नारा कई बार सुनाई दिया।
एक कोई लल्लू-पंजू से पोस्टर बॉय भी इस नारे को नारी विरोधी सिद्ध करने के प्रयास में ‘जय सियाराम’ कहने की वकालत करते दिखे थे। वैसे तो वो खुद स्त्रियों के साथ अभद्रता करने के कारण जुर्माना भर चुके हैं लेकिन हम नारे तक ही सीमित रहेंगे।
यहाँ गौर करने लायक ये है कि आप बड़ी आसानी से श्री राम या श्री कृष्ण कह सकते हैं। क्या उतना ही सुविधाजनक श्री को शिव, शंकर, महादेव या ब्रह्मा के आगे लगाना लगता है, या शिव जी, शंकर जी, ब्रह्मा जी कहना ठीक लगता है?
इसका साधारण सा कारण ये है कि ‘श्री’ लक्ष्मी का भी एक नाम होता है। इसलिए विष्णु के अवतारों के आगे तो वो आसानी से जुड़ता है, बाकियों पर जबतक किसी विशेष गुण को ना दर्शा रहा हो, तब तक नहीं जोड़ा जाता। तो जय सिया राम कहें या जय श्री राम, स्त्री का नाम पहले आ ही जाता है।
नारों, नामों, या प्रतीकों की महत्ता भारतीय तरीके से समझनी हो तो ‘राम से बड़ा राम का नाम’ वाली उक्ति याद रखिए। अगर इससे समझ ना आए तो ‘स्वास्तिक’ के प्रतीक को देखिए। हिटलर इससे मिलते-जुलते एक इसाई प्रतीक, मुड़े हुए क्रॉस (हकेन-क्रूज़) का इस्तेमाल करता था।
धूर्ततापूर्ण तरीके से इसे जबरन हिन्दुओं का ‘स्वास्तिक’ नाम दे दिया गया। इतने वर्षों में किसी ने विरोध नहीं किया, इसलिए कमभक्त इसे ‘स्वास्तिक’ घोषित करने में कामयाब भी हो गए। आज कई देशों में हकेन-क्रूज से मिलते जुलते दिखने वाले ‘स्वास्तिक’ के प्रयोग के लिए अकारण प्रताड़ित भी किया जाता है।
कुछ ऐसी ही नीचता, भक्त शब्द के साथ करने का (गोएबेल्स के नेमकालिंग वाला) करने का प्रयास तो हम सभी ने हाल ही में देखा है। बाकी जैसे-जैसे तिथि नजदीक आती जा रही है, कई लोग अगस्त में ही दीपावली मानाने की तैयारी में भी दिखते हैं। वैसे इससे हमें दूसरा वाला नारा – काशी-मथुरा बाकी है, याद आ जाता है, मगर उससे दीयों के बजाए कुछ और ही जलने लगेगा! नहीं?