अगर कोई अच्छा कार्य कर रहा है तो उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। कुछ लोगों को जलन होती है और वे किसी को लगातार अच्छा करता देखते हुए भी उसकी प्रशंसा नहीं करते। इनसे भी ऊपर वाले लेवल में वो लोग आते हैं जो अच्छे कार्यों में भी बुराइयाँ निकाल लेते हैं। देश की मीडिया का एक बड़ा वर्ग इसी सिद्धांत पर काम कर रहा है, और ‘द हिन्दू’ ने अपनी मैगज़ीन में एक ऐसे प्रोपेगेंडा को आगे बढ़ाया है, जो हिटजॉब की सारी विशेषताएँ रखता है। दो-चार बच्चों से कुछ बातें की गईं और इसे साढ़े 4 लाख बच्चों की आम राय बना कर पेश कर दिया। जहाँ पूरे कर्नाटक की क़रीब 2814 स्कूलों और 4.43 लाख छात्रों की बात हो, वहाँ बमुश्किल 4 बच्चों व इक्के-दुक्के स्कूलों की स्थिति देख कर आम राय कैसे बनाई जा सकती है?
इसका तरीका ‘द हिन्दू’ से समझिए। जब पूरी दुनिया बच्चों से लेकर बूढ़ों तक को खाना खिलाने के लिए इस्कॉन द्वारा संचालित ‘अक्षय पात्र फाउंडेशन’ (AFP) की तारीफ़ करती है, ‘द हिन्दू’ ने एक लम्बे-चौड़े लेख के माध्यम से यह दर्शाने की कोशिश की है कि संस्था अपने ‘हिन्दू विधि-विधान’ को बच्चों पर थोप रही है। यहाँ हम परत दर परत आगे बढ़ते हुए इस लेख की पोल खोलेंगे और देखेंगे कि कैसे एक संस्था को सिर्फ़ इसीलिए बदनाम करने की कोशिश की जा रही है क्योंकि उसे एक हिन्दू संस्था द्वारा चलाया जाता है। आपको बता दें कि ‘अक्षय पात्र फाउंडेशन’ को ‘हरे कृष्णा मूवमेंट’ वाली संस्था इस्कॉन चलाती है।
इस लेख की शुरुआत होती है एक बच्चे के व्यक्तिगत अनुभव से। बेंगलुरु सेंट्रल के एक स्कूल का बच्चा मिड डे मील की जगह घर जाकर दोपहर का खाना खाता है क्योंकि उसे स्कूल में दिया जाने वाला खाना ‘नीरस’ लगता है। एक अन्य छात्रा बताती है कि उसे घर का खाना ज्यादा अच्छा लगता है, इसीलिए वह घर पर ही खाती है। एक अन्य स्कूल की छात्रा घर से टिफिन ले कर आती है, वह भी स्कूल में नहीं खाती। कुछ बच्चों द्वारा ऐसा करने के पीछे इस लेख में यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि वे खाने में प्याज-लहसुन न दिए जाने के कारण ऐसा कर रहे हैं। आश्चर्य की बात यह कि इस निष्कर्ष को यूँ ही निकला गया है, न कोई आँकड़ा, न कोई रिसर्च, न कोई सर्वे।
.@AkshayaPatra has been a spectacular success in nourishing the school-going children. Unfortunately, some people are very committed to find fault with all that works well in this country. -Sg #Akshayapatra
— Sadhguru (@SadhguruJV) June 2, 2019
एक अन्य निष्कर्ष यह भी निकाला गया है कि अक्षय पात्र फाउंडेशन ‘कथित तौर पर’ ऐसा मानता है कि प्याज-लहसुन तामसिक भोजन है और इसे साबित करने के लिए एक वॉलंटियर की दलील को पेश किया गया है। लेख में कथित एक्टिविस्ट्स को ख़ास जगह दी गई है, जो यह मानते हैं कि सरकार को एएफपी से करार ख़त्म कर किसी और को यह ज़िम्मेदारी दे देनी चाहिए। लेकिन, कोई विकल्प नहीं सुझाए गए हैं। इसके पीछे एक कारण यह भी है कि शायद इतने वृहद् स्तर पर और संसाधनों से संपन्न होने के साथ शायद ही कोई और एनजीओ ऐसी सेवा दे पाए। इसी लेख में एक अन्य जगह पर जब यह सवाल कर्नाटक के मुख्य शिक्षा सचिव से किया जाता है, तो उनका जवाब गौर करने लायक है। उन्होंने कहा:
“अगर हम करार ख़त्म कर दें तो इतने सारे बच्चों को खाना कौन खिलाएगा? इसमें ढाँचागत समस्याएँ हैं। एक रात में हम इतने सारे किचन का निर्माण नहीं कर सकते और इतनी बड़ी संख्या में खाना बनाने वालों की व्यवस्था भी नहीं कर सकते। प्रशासन दार्शनिक दलीलों पर कार्य नहीं करता। मैंने उन एक्टिविस्ट्स को सीधा-सीधा बोल दिया है- उनके सर बादलों में घुसे हुए हैं, मैं ज़मीन पर रहता हूँ।”
अगर इस लेख में कर्नाटक के मुख्य शिक्षा सचिव उमाशंकर के इस बयान को पहले या दूसरे पैराग्राफ में जगह दे दी होती तो शायद इस लेख का कोई औचित्य ही नहीं बनता। लेकिन, बड़ी चालाकी से उनके इस बयान को भीतर रखा गया है। अगर कोई संस्था इतने वृहद् स्तर पर कार्य कर रही है और उसके ख़िलाफ़ आज तक कोई बड़ी शिकायत नहीं आई है, तो उसे अचानक से प्याज-लहसुन के बहाने निकाल बाहर किया जाए, इसमें नुकसान किसका है? देश भर के 15,000 से भी अधिक स्कूलों और 17 लाख से भी अधिक बच्चों को अपनी सेवा देने वाली संस्था के ख़िलाफ़ प्याज-लहसुन का विवाद खड़ा करना कहाँ तक जायज है?
पहली बात, सरकार का लक्ष्य स्कूलों में बच्चों को स्वादिष्ट खाना खिलाने का नहीं बल्कि उन्हें उचित न्यूट्रीशन और उचित कैलोरी वाला भोजन देने का है। इसी लेख में बताया गया है कि एपीएफ की भोजन मेनू को National Institute of Nutrition (NIN) और The Central Food Technological Research Institute (CFTRI) के पास जाँच के लिए भेजा गया। एनआइएन ने एपीएफ की मेनू से सहमति जताई और इसमें उन्हें कोई दिक्कत नहीं दिखीं। एनआईएन ने साफ़-साफ़ कहा कि जितनी मात्रा में न्यूट्रीशन सरकार द्वारा निश्चित की गई है, बच्चों को उतना ही दिया जा रहा है।
This is a conspiracy against d Akshay Patra Foundation financed by the soul harvesters, because TAPF is a proudly Hindu organisation. TAPF has been providing meals for over 9 crore school children in India and are known for their stringent quality control, taste and hygiene. https://t.co/vYeULDR5oJ
— Shefali Vaidya ஷெஃபாலி வைத்யா शेफाली वैद्य (@ShefVaidya) June 2, 2019
इसके अलावा जो बेसिक सामग्री सरकार द्वारा निश्चित की गई हैं, वो भी एपीएफ की मेनू में पूरी तरह मौजूद है। इतना ही नहीं, एनआईएन ने यह भी पाया है कि जितनी किलो कैलोरी और प्रोटीन की मात्रा निर्धारित की गई है, एपीएफ के खाने में उतने ही होते हैं और कभी-कभी तो उससे थोड़े-बहुत ज्यादा भी पाए गए लेकिन कम नहीं। ये सभी चीजें केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा निर्धारित की गई हैं और अक्षय पात्र फाउंडेशन इन सभी मानकों पर खरी उतरती है। अब इन कथित एक्टिविस्ट्स का क्या होना चाहिए? इसके बावजूद 10 संस्थाओं व 94 कथित विशेषज्ञों द्वारा कुप्रचार चलाया गया और एनआईएन पर ही आरोप मढ़ दिए गए। जैसा कि इस तरह के कथित विशेषज्ञों की आदत रही है, ये अंत में संस्थाओं को ही निशाना बनाना शुरू कर देते हैं।
एपीएफ बच्चों को सही मात्रा में न्यूट्रीशन और कैलोरी युक्त भोजन उपलब्ध करा रही है, सरकार द्वारा निर्धारित सामग्री प्रयोग में ला रही है, तो दिक्कत क्या है? क्या अब यह एक्टिविस्ट्स निर्धारित करेंगे कि बच्चों को क्या खाना चाहिए और क्या नहीं? इसी लेख में एक जगह एक बच्चा बताता है कि उसे अंडे पसंद हैं और लेखक सवाल खड़ा करता है कि बच्चों को अंडे क्यों नहीं दिए जा रहे। इसके अलावा चिकेन की भी चर्चा की गई है। क्या यह सब इसीलिए किया जा रहा है क्योंकि इसे एक वैष्णव संस्था द्वारा संचालित किया जा रहा है, जिसके कई मंदिर हैं और जो शाकाहार को प्राथमिकता देता है। क्या किसी संगठन के कर्ताधर्ता के वैष्णव संत होने के कारण उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता?
हो सकता है कि कुछ दिनों बाद सूअर के मांस में न्यूट्रीशन गिनाते हुए पूछा जाए कि बच्चों को रेड मीट क्यों नहीं दी जा रही है? अगर इसके लिए विरोध करना है तो निःस्वार्थ भाव से काम कर रही संस्था को नहीं बल्कि सरकारों को निशाना बनाइए। सरकार को कहा जाए कि वो बच्चों को प्याज-लहसुन में तल कर मांस-मछली और अंडे वाली मेनू क्यों नहीं दे रही, बच्चों को दूध, साम्भर और खिचड़ी क्यों दी जा रही है? किसी बीमारी के समय बच्चों को वो दवाएँ नहीं दी जातीं जो स्वादिष्ट हों, बल्कि वो दवाएँ दी जाती हैं जो उस बीमारी को ठीक करे। ठीक इसी तरह बच्चों के लिए मेनू उनके शरीर की स्वास्थ्य ज़रूरतों को ध्यान में रख कर बनाया जाता है, केवल स्वाद को लेकर नहीं।
Let’s not forget that APF alone feeds around 4.43 lakh children (48%) out of 9.31 lakh children covered daily under mid-day meal scheme in Karnataka. No other organization is doing charity on such a massive scale when it comes to mid-day meal scheme.https://t.co/6xuR45VOzO
— Nityānanda Miśra (@MisraNityanand) June 2, 2019
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कर्नाटक के मुख्य शिक्षा सचिव भी बताते हैं कि सरकार यह निर्धारित नहीं करती कि बच्चों को कौन सा भोजन देना है, सरकार यह निर्धारित करती है कि दिए जाने वाले भोजन में प्रोटीन, कार्ब्स इत्यादि की मात्रा कितनी होनी चाहिए, और एपीएफ इन सभी मानकों पर कार्य करते हुए बच्चों को पूर्ण हाइजेनिक भोजन उपलब्ध कराती है। मुख्य सचिव ने बताया कि भोजन में उचित व निर्धारित मात्रा में मौसमी सब्जियाँ, ताज़ी सब्जियाँ, हरे पत्तों वाली सब्जियाँ, करी पत्ता, जीरा इत्यादि इस्तेमाल किए जा रहे हैं, जिसके कारण प्याज-लहसुन की ज़रूरत ही नहीं पड़ रही और ये सामग्रियाँ प्याज-लहसुन की कमी को अच्छी तरह पूरा करती हैं। लेकिन, एक प्रोपेगेंडाबाज़ एक्टिविस्ट का कुछ और ही कहना है।
वो पूछता है कि सरकार ने एनआईएन से यह क्यों कहा कि वह एपीएफ के खाने की जाँच कर यह बताए कि इसमें सरकार द्वारा निर्धारित नियमों का उल्लंघन हुआ है या नहीं, सरकार को सीधा पूछना चाहिए, “तुम बच्चों को प्याज-लहसुन क्यों नहीं दे रहे हो?” इन्हीं एक्टिविस्ट्स के तथ्यों को साबित करने के लिए 4 बच्चों से बात कर इसे 4.5 लाख बच्चों की राय के रूप में पेश किया गया है। सबसे ज्यादा बड़ी बात तो यह कि बच्चों को दी जाने वाली मिड डे मील में हर एक समस्या के लिए इस लेख के लेखक व एक्टिविस्ट्स द्वारा प्याज-लहसुन न दिए जाने को ही ज़िम्मेदार बताया गया है। अगर बच्चे खाना फेंक देते हैं, तो प्याज लहसुन नहीं दिया जा रहा है, इसीलिए वो फेंक देते हैं। एक बच्चा खाना खाने घर जा रहा है, क्योंकि खाने में प्याज-लहसुन नहीं दिया गया, इसीलिए। कोई बच्चा खाना अधूरा छोड़ देता है, मतलब प्याज-लहसुन वाला टेस्ट नहीं है, इसीलिए।
पूरे लेख में एक भी बच्चे ने कहीं भी प्याज-लहसुन का नाम तक नहीं लिया है लेकिन एक्टिविस्ट्स के हवाले से ऐसा दावा किया गया है कि एपीएफ बच्चों पर ‘हिन्दू विचार’ थोप रही है। ऐसा कैसे हो सकता है? एएफपी का करार सरकार से हुआ है, राज्य सरकार के शीर्ष अधिकारी कह रहे हैं कि नियमों का उल्लंघन नहीं किया, तो दिक्कत क्या है? कल को 2-4 एक्टिविस्ट्स आकर यह कह दें कि बच्चों को शिमला मिर्च क्यों नहीं दिया जा रहा है, तो क्या इस पर भी बवाल होगा? सबसे अजीब बात यह है कि शाकाहार को इस लेख में बिना तथ्यों के कथित उच्च जाति से जोड़ा गया है। क्या कहीं ऐसा कोई सर्वे ‘द हिन्दू’ ने किया है, जहाँ ऐसा पता चला हो कि कथित उच्च जाति के लोग शाकाहारी होते हैं और अन्य शाकाहार पसंद नहीं करते?
बात सपाट है, बच्चों को पौष्टिक, हाइजेनिक और सरकार द्वारा निर्धारित भोजन दिया जा रहा है, वो भी एक संस्था द्वारा यह कार्य वृहद् और व्यापक स्तर पर किया जा रहा है। ये बातें किसी को भी चुभनी नहीं चाहिए। अगर एनजीओ के पीछे एक वैष्णव संस्था है, तो उसकी तारीफ़ होनी चाहिए क्योंकि वो सरकार का काम हल्का कर रहे हैं, उन्हें अंडे, मांस, प्याज-लहसुन वगैरह-वगैरह न देने के लिए उनकी आलोचना नहीं होनी चाहिए। एपीएफ और सरकार का करार आज का नहीं, कई वर्षों पहले का है। यह संस्था किसी भी आपदा और विपत्ति के समय क्षेत्र में पहुँच कर लोगों की सेवा करती है, मुट्ठी भर कथित एक्टिविस्ट्स की तरह गले में प्लाकार्ड लगा कर घूमना आसान है, जनता के बीच जाकर उनकी सेवा करना मुश्किल।
I find it genuinely difficult to believe that Sattwik food prepared by a philanthropy associated with the Iskcon does not have good taste!!!
— Pratyasha Rath (@pratyasharath) June 2, 2019
The concern of being bland happens for other food included in MDMs also ranging from Khichdi to Panjiri to Dalma in Odisha. These r kids!
इस लेख में दावा किया गया है कि इस्कॉन ने इन बातों के जवाब में एक लम्बा मेल भेजा, लेकिन उनकी प्रतिक्रिया और जवाब को दो पंक्तियों में समेट दिया गया है। क्या ‘द हिन्दू’ को इस बात का डर था कि इस्कॉन का पक्ष दिखाने से उनके प्रोपेगेंडा की पोल खुल जाएगी? मुट्ठी भर कथित एक्टिविस्ट्स की राय और 2-4 बच्चों से बात कर एक व्यापक स्थिति का आकलन नहीं किया जाता, इसके लिए बाकायदा रिसर्च और अध्ययन की ज़रूरत होती है। अगर आपको मैगज़ीन में जगह ही कवर करनी है तो सभी 4 लाख बच्चों से पूछें कि क्या उन्हें प्याज-लहसुन न दिए जाने से कोई दिक्कत है?
सारे मंदिर अपना धन फलाँ चीज में ख़र्च कर दें, लाखों-करोड़ों का पेट भरने वाली एक सफल वैष्णव संस्था प्याज-लहसुन खिलाने लगे और दलित कुक ही खाना बनाएँ, ये बातें आती कहाँ से है? लेख में एक्टिविस्ट्स के हवाले से कहा गया है कि दलित कुक को प्राथमिकता दी जाए, इससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा। क्या अब बच्चों को खाना खिलाने में भी जाति घुसाई जाएगी? खाना बनाने वाले को इसीलिए हायर किया जाएगा क्योंकि वो अच्छा खाना बनाते हैं या सिर्फ़ इसीलिए क्योंकि वह दलित हैं? कर्नाटक में 20% के करीब दलित हैं और इस लेख में कहा गया है कि राज्य में 15% लोग शाकाहारी हैं और इनमें से अधिकतर कथित उच्च जाति के हैं। ओबीसी और वोक्कालिंगा को मिला कर कुल आबादी का 27% के करीब होता है।
फिर ‘द हिन्दू’ किस आधार पर यह लिख सकता है कि कथित उच्च जाति के लोग ही शाकाहारी होते हैं? क्या यह मान लिया जाए कि सामान्य वर्ग में आने वाले वोक्कालिंगा और ओबीसी को मिला दिया जाए तो इनमें 55% से अधिक लोग शाकाहारी हैं? अगर ऐसा नहीं है तो दलितों व अनुसूचित जातियों के लोग भी शाकाहारी हैं। फिर किस आधार पर यह कहा गया कि दलित शाकाहारी नहीं होते? यह तो चॉइस का मामला है। दलित परिवार हो या सामान्य वर्ग का, हो सकता है कि परिवार में कोई शाकाहारी हो और कोई नहीं हो। इसे जाति के नाम पर स्टीरियोटाइप कर देना अनुचित है, ख़ासकर बिना सबूत के।
यह एक प्रोपेगेंडापरस्त लेख है। इसमें दलितों व सामान्य वर्ग के बीच खाई पैदा करने की कोशिश की गई है। इसमें एक सफल संस्था को बिना सबूत इसीलिए बदनाम करने का प्रयास किया गया है, क्योंकि उसके पीछे एक हिन्दू संगठन है। हिन्दुओं में विभाजन पैदा करने के लिए दलित कुक की बात की गई है। यह लेख नहीं है, जहर है। ऐसा जहर, जिसमें बच्चों को घसीटा जा रहा है, उनके भोजन को लेकर अपना कुटिल हित साधा जा रहा है। ज़हर फैलाने का आसान उपाय है कि आप किसी भी ABC में जाति घुसेड़ दीजिए और दलितों के साथ अन्याय होने की बात कह दीजिए। जैसे, इंडियन क्रिकेट टीम में दलित खिलाड़ी क्यों नहीं हैं? इसी तरह इस लेख में भी तथ्य नहीं हैं, आँकड़े नहीं हैं, इस्कॉन की लम्बी प्रतिक्रिया को दो पंक्तियों में समेट दिया गया है। ऐसे ज़हरीले लेख से सावधान।