ऑन डिमांड एथीस्टों और पार्ट टाइम वामपंथियों से कार्ल मार्क्स चचा निराश हैं। मार्क्स चचा का कहना है कि वामपंथ और नास्तिकता ही इस सदी का सबसे बड़ा स्कैम है। कॉमरेड जब तक क्रांति-क्रांति चिल्लाता तब तक मार्क्स चचा को यकीन था कि यह आज नहीं तो कल आएगी। लेकिन एक सुबह क्रांतिकारी कॉमरेड का जो निकला, वह क्रांति नहीं बल्कि उसका मजहब था।
एक दिन कॉमरेड ‘अल्हम्दुलिल्लाह’ चिल्लाने लगा तो मार्क्स चचा के मुँह से भी अपशब्द निकल पड़े। लेकिन मार्क्स चचा का सवाल आज भी यही है कि क्रांति की बातें करता युवा पुलिस और दंगों की जाँच का नाम आते ही मुस्लिम क्यों बन जाता है? पुलिस की लाठी में ऐसी कौन सी ताकत है, जो उसे देखते ही क्रांतिकारियों का मजहब बाहर निकल आता है।
मार्क्स चचा का कहना है कि जमानत के लिए किसी कॉमरेड को गर्भ ठहरना, मुस्लिम बन जाने से श्रेयस्कर है। मगर मार्क्स चचा को क्या पता था कि सर पर ओले पड़ते ही वामपंथ को ‘गुड बाय’ कहने की बारी हर वक्त किसी पितृसत्ता से लड़ती वोक-महिला की नहीं होगी। जब कोई उमर खालिद UAPA के तहत गिरफ्तार होगा तो उसके पास जमानत के लिए उसकी प्रेग्नेंसी रिपोर्ट उसका दीन ही होगा।
याद कीजिए वह समय जब जेएनयू की फ्रीलांस प्रोटेस्टर, और ऑन डिमांड एथीस्ट, जिस पर चंदा भक्षी होने के भी आरोप रहे। शेहला रशीद ने जब शाह फैजल के साथ जम्मू एंड कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट को ज्वाइन किया था, तो अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत ही उन्होंने इस्लामी नारे से की थी।
जब तक ये क्रांतिजीव जेएनयू जैसे संस्थान में फ़्रीलांस और ‘आजाद’ प्रोटेस्टर के रूप में पहचानी जाती है, तब तक ये वामपंथी स्वरुप में रहती है। ये जेएनयू में रहते वक़्त ‘अकेली, आवारा और आजाद’ है, लेकिन जम्मू कश्मीर पहुँचते ही हिजाब और बुर्क़े में नजर आई। और देखते ही देखते एक वामपंथन मुस्लिम बन गई।
दुर्भाग्यवश शेहला का राजनीतिक जीवन महज 7 माह ही चला लेकिन यह एक अच्छा उदाहरण था यह साबित करने के लिए कि एक वामपंथी होने से पहले और बाद भी एक मुस्लिम के भीतर उसका मजहब जिंदा रहता है।
यह वही शेहला रशीद थी, जो खुद को वामपंथन कहती रही। मगर जिस वामपंथ में धर्म-मजहब की कोई पहचान है ही नहीं, वो शेहला रशीद शाहीन बाग़ में नागरिकता कानून विरोधी रैलियों में, मुस्लिमों के मजहबी उन्मादी नारों की बात करते हुए कहती रही कि अगर आप उनसे शर्मिंदा हैं तो आप हमारे सहयोगी नहीं हैं। अगर आपको इन नारों से दिक्कत है, तो आप भी समस्या का ही हिस्सा हैं।
और इनके वो मजहबी नारे क्या थे? वो नारे थे: हिन्दुओं से आजादी, हिन्दुत्व की कब्र खुदेगी, AMU की छाती पर, नारा ए तकबीर अल्लाहु अकबर, तेरा मेरा रिश्ता क्या ला इलाहा इल्लल्लाह…
यही शेहला रशीद के सहयोगी और छात्र नेता उमर खालिद के साथ भी हुआ है। वह उमर खालिद, जो हमेशा से ही पोटेंशियल वामपंथी और पोटेंशियल मुस्लिम बना रहा, UAPA के तहत गिरफ्तारी होते ही पूरा मुस्लिम निकल आया।
नागरिकता कानून के विरोध से शुरू हुआ यह खेल हमेशा से ही मजहबी था। यहाँ तक कि शशि थरूर तक इस बात से नाराज थे और उन्होंने कहा था कि मुस्लिमों को समझना चाहिए कि CAA/NRC के प्रदर्शन में ‘तेरा मेरा रिश्ता क्या’ जैसे नारों की जगह नहीं है क्योंकि वहाँ अल्लाह को लाया जा रहा है। ये बात कई मुस्लिमों को नहीं पची क्योंकि उनके लिए हर प्रदर्शन विशुद्ध रूप से मजहबी है क्योंकि उनके लिए पहचान का मतलब भारतीयता, नागरिकता और सामान्य बातों से परे सिर्फ और सिर्फ इस्लाम है, उम्माह है, कौम है।
आश्चर्य यह है कि ‘एंटी एस्टेब्लिशमेंट’ की रोटियाँ सेकने वाले ये गिरोह, ‘हम लड़ेंगे साथी’ की कसमें खाने वाले ये गिरोह ‘आजादी की चिलम फूँकते इन गिरोहों का पुलिस और संस्थाओं का नाम आते ही सबसे पहले मजहब क्यों बाहर निकल आता है?
जिस तरह से पूर्वोत्तर दिल्ली इस साल की शुरुआत में ही हिन्दू-विरोधी दंगों से दहक उठी, वह मुगलकालीन दौर की याद दिलाता है। इस्लामी नारे सड़कों पर थे। लोगों ने खुलकर स्वीकार किया कि शाहीनबाग़ पूरी तरह से मजहबी आंदोलन है। इस शाहीनबाग़ की पटकथा में जो कुछ घटित हुआ वह सब कुछ ही समय सबके सामने आ गया।
दिल्ली पुलिस ने दंगों की जाँच की तो इसमें सिमी और पीएफआई की फंडिंग से लेकर कई चौंकाने वाले खुलासे हुए। इसी में यह तथ्य भी सामने आया कि जेएनयू के ये कथित छात्रनेता दिल्ली दंगों की साजिशकर्ताओं के प्रत्यक्ष सम्पर्क में थे और इनके बीच दंगों, विरोध प्रदर्शनों को लेकर बन्द कमरों में रणनीति बना करती थी। यही उमर खालिद तब दिल्ली दंगों के प्रमुख आरोपित ताहिर हुसैन के भी सम्पर्क में था।
कुछ ही वर्ष पूर्व उमर खालिद को लेकर उसके कम्युनिस्ट साथियों ने दावे किए थे कि उमर खालिद मुस्लिम नहीं बल्कि, अन्य कॉमरेड्स की ही तरह सच्चा कम्युनिस्ट है। लेकिन जब-जब उमर खालिद विवादों में घिरा है और उसकी गिरफ्तारी की बात आई हैं, सबसे पहले उमर खालिद के भीतर का मजहब ही सामने रखा गया। इस बार फिर यह उमर खालिद इस्लाम का अनुयायी बताया जा रहा है और कहा जा रहा है कि दिल्ली दंगों में उसे उसके मजहब के कारण घसीटा जा रहा है।
खास बात यह है कि जब आम आदमी पार्टी का नेता ताहिर हुसैन पर दिल्ली पुलिस का शिकंजा कसा जाने लगा, तब उसका भी सबसे पहले मजहब ही बाहर निकल आया था और समुदाय विशेष द्वारा खुद को अल्पंसख्यक बताकर निशाना बनाए जाने का पारंपरिक विक्टिम कार्ड खेला गया। जिस अमानतुल्लाह खान की पूरी सर्दियाँ शाहीनबाग़ के मंच से भड़काऊ इस्लामी नारे लगाते हुए गुजरी, वह भी यही कहता मिला कि ताहिर हुसैन को उसके मजहब की वजह से निशाना बनाया जा रहा है। और कुछ ही दिन में खुद ताहिर हुसैन ने स्वीकार किया कि वो हिंदुओं को सबक सिखाना चाहता था।
वामपंथ की दयनीय मृत्यु
मार्क्सवाद खालिस अर्थशास्त्र से पैदा होकर एक अलग धर्म बनकर तैयार हुआ। ये कूप-मंडूक कम्युनिस्ट मार्क्सवादी किसी कट्टरपंथी मजहबी से भी ज्यादा उच्चकोटि के कट्टरपंथी हैं। खुद को विचारों का पुरुष सूक्त (पुरुषसूक्त, ऋग्वेद संहिता के दसवें मण्डल का एक प्रमुख सूक्त यानि मंत्र संग्रह) मानने वाले वामपंथ की यह वैचारिक मृत्यु दयनीय है।
कहाँ इस कॉमरेड को ‘आर्यों’ को विदेशी साबित करने में अपनी शक्ति का निवेश करना था और कहाँ वह अपने मजहब के प्रमाण पत्र बटोरता नजर आ रहा है। इन सब कॉमरेडों ने घोषणापत्र, यानी मेनिफेस्टो में धर्म को वामपंथ की परिधि से बाहर करने वाले कार्ल मार्क्स चचा की आत्मा को ठेस लगाई है। इनसे बेहतर तो शरजील इमाम था। सफूरा जरगर भी थी, लेकिन उसके नाम में उसका मजहब था और हाथों में प्रेग्नेंसी रिपोर्ट! मगर शरजील ने ना ही नास्तिकता का ढोंग किया और न ही कोई वामपंथ का मुखौटा चुना। उसने राजद्रोह के केस और गिरफ्तारी के बाद भी खुलकर अपने शब्दों को चुना और गर्व से कहा कि यह सब प्रगतिशील वामपंथ नहीं बल्कि इस्लामियत ही थी।
वामपंथ खुद को तार्किक बताता फिरता है, उसने ‘अन्धविश्वास’ से अपने हर संबंध को हमेशा नकारा है। लेकिन आज देखने को मिलता है कि आज क्रांतिजीव को वाद-विवाद, तर्क, अर्थशास्त्र, विज्ञान कुछ नहीं चाहिए, उसे अगर कुछ चाहिए तो सिर्फ क्रांति! यही क्रांति इसका धर्म है, यही कट्टरता ही इसका स्वभाव है और मौकापरस्ती ही इसका आखिरी ‘-इज़्म’ है।