कहते हैं, राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता। दोस्ती दुश्मनी में बदल जाती है और दुश्मनी दोस्ती में। समय-समय की बात है। वशिष्ठ नारायण सिंह का राजनीति से कोई रिश्ता नहीं था। लेकिन, राजनीति ने समय रहते उनका फ़ायदा उठाया और जब उनसे कोई फ़ायदा नहीं दिखा तो उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया। यहाँ तक कि उनके मरने के बाद उनके पार्थिव शरीर को भी छोड़ दिया। आइंस्टीन की थ्योरी को चुनौती देने वाले वशिष्ठ नारायण सिंह को स्थानीय लोग ‘वैज्ञानिक जी’ के नाम से जानते थे। अफ़सोस ये कि उन्होंने इसके लिए जो पेपर तैयार किया था, वो चोरी हो गई थी।
इस सम्बन्ध में मैंने कुछ बुजुर्गों से वशिष्ठ नारायण सिंह को लेकर बात की। जैसा कि आपको पता है, उन्होंने अमेरिका जाने से पहले पटना यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की थी। वहाँ उन्हें पहले ही वर्ष में अंतिम वर्ष की परीक्षा दिला कर डिग्री दे दी गई थी। वशिष्ठ बाबू ऐसे थे कि उनके कारण विश्वविद्यालय को अपने नियम बदलने पड़े। पटना यूनिवर्सिटी में ही उनकी मुलकात अमेरिका के प्रोफेसर कैली से हुई। प्रोफ़ेसर कैली उनकी प्रतिभा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें अमेरिका आने का निमंत्रण दिया। वो अमेरिका गए और वहाँ भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया।
जब वह अमेरिका से वापस आए, उसके कुछ ही सालों बाद उनकी पत्नी का देहांत हो गया। इसके बाद से ही उनकी मानसिक स्थिति बिगड़ गई और उन्हें राँची अस्पताल में भर्ती कराया गया। कभी पटना यूनिवर्सिटी में संयुक्त बिहार टॉपर रहा व्यक्ति भूलने की बीमारी से जूझने लगा। उस समय उन्हें क़रीब से देख रहे लोग बताते हैं कि जब उनकी बीमारी के बारे में पता चला था, तब पटना यूनिवर्सिटी के छात्रों ने उनके इलाज के लिए चंदा इकठ्ठा किया था। इनमें कई ऐसे लोग शामिल थे, जो आज शासन-सत्ता में बड़े पदों पर काबिज हैं।
वशिष्ठ नारायण सिंह को पहला दिल का दौरा 1974 में पड़ा था। सुशील कुमार मोदी उन दिनों बड़े छात्र नेता हुआ करता थे। वो अभी बिहार के उप-मुख्यमंत्री हैं। वहीं अश्विनी कुमार चौबे भी उन लोगों में शामिल थे, जो वशिष्ठ बाबू के लिए चंदा इकठ्ठा कर रहे थे। वो आज केंद्र में स्वास्थ्य राज्यमंत्री हैं। लेकिन अफ़सोस की बात ये है कि उन्हीं के स्वास्थ्य महकमे ने वशिष्ठ नारायण सिंह के निधन के बाद उनके पार्थिव शरीर को 2 घंटे तक सड़क पर छोड़े रखा। वशिष्ठ नारायण सिंह कई दिनों से अपने भाई अयोध्या सिंह के यहाँ रह रहे थे। भाई और उनका परिवार ही वशिष्ठ बाबू की देख-रेख और सेवा-सुश्रुवा कर रहा था।
ये पीएमसीएच कैंपस में महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह का पार्थिव शरीर है, जिनके परिजनों को एम्बुलेंस तक मुहैया कराने की औपचारिकता अस्पताल प्रशासन ने नहीं निभाई। शर्मनाक है ये! जिस आदमी की उपलब्धियों पर बिहार समेत देश गर्व करता है, अंत में भी उसके साथ ऐसा व्यवहार? @NitishKumar ??? pic.twitter.com/48yjQFZkHx
— Brajesh Kumar Singh (@brajeshksingh) November 14, 2019
बच्चों से उन्हें ख़ास लगाव था। बीमारी के दौरान स्कूली बच्चे उनके पास आया करते थे और उनसे बातें करते थे। उन दिनों में भी वह अपने हाथ में एक कॉपी और एक पेन्सिल ज़रूर रखा करते थे। एक दिन में कई कॉपियाँ ख़त्म कर दिया करते थे। परिजन उन्हें भारत रत्न देने की माँग करते थे। कई नेताओं का उनके यहाँ आना-जाना लगा हुआ था लेकिन किसी ने कोई सहायता मुहैया नहीं कराई। एक एनजीओ ने उनके इलाज के लिए खर्च मुहैया कराया था और उनके भाई अयोध्या सिंह ने सभी जिम्मेदारियाँ संभाल रखी थीं। जिस व्यक्ति के निधन पर देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने शोक जताया, उनके पार्टिव शरीर को ले जाने के लिए एक एम्बुलेंस तक नहीं आई। आई भी तो पूरे 2 घंटे देर से।
कहते हैं, पटना यूनिवर्सिटी में लोग उन्हें देखने व छूने के लिए इतने लालायित रहते थे कि उनसे जानबूझ कर टकरा जाते थे। अमेरिका ने उन्हें ‘जीनियसों का जीनियस’ कहा था। जब वो अमेरिका से लौट कर आए थे, तब पटना यूनिवर्सिटी में अपना कमरा देखने गए थे। वहाँ उन्हें ये देख कर आश्चर्य हुआ कि उस कमरे के बाहर अभी भी उनका ही नाम लिखा हुआ था। वशिष्ठ नारायण सिंह को जानने वाले सभी लोग आज चकित हैं कि जब उनकी प्रतिभा का डंका बज रहा था, तब उनके इलाज के लिए चंदा जुटाने वाले आज बड़े पदों पर रहने के बावजूद कहाँ गायब हैं?
जब नासा के 31 कम्प्यूटर एक साथ ख़राब हो गए थे, तब वशिष्ठ नारायण सिंह का कैलकुलेशन एकदम सटीक रहा है। उन्होंने कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी से पीएचडी की। वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में वो एसोसिएट प्रोफ़ेसर रहे। भारत लौटने के बाद उन्होंने आईआईटी दिल्ली, आईआईटी मुंबई और आईएसआई कोलकाता में पढ़ाया। वो बाद में सिजोफ्रेनिया से पीड़ित हो गए। तब भी वो हाथ में पेन्सिल लेकर बालकनी की रेलिंग या दीवारों पर ही कुछ-कुछ लिखा करते थे और बुदबुदाते हुए कुछ कैलकुलेशन करते थे। सिजोफ्रेनिया उतनी बड़ी बीमारी भी नहीं है। अगर सरकार ध्यान देती तो उनका इलाज अच्छे से होता और वो ठीक हो सकते थे। भारत की प्रगति में उनका योगदान अभूतपूर्व हो सकता था।
गणितज्ञ डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह जी के निधन के समाचार से अत्यंत दुख हुआ। उनके जाने से देश ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अपनी एक विलक्षण प्रतिभा को खो दिया है। विनम्र श्रद्धांजलि!
— Narendra Modi (@narendramodi) November 14, 2019
जब उनके निधन के बाद एम्बुलेंस न दिए जाने की बात वायरल हो गई, तब लोगों ने बिहार सरकार व प्रशासन को लानतें भेजीं। इसके बाद सरकार ने राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम-संस्कार करने की घोषणा की। जीते-जी जिन्हें सम्मान न दिया जा सका, मरने के बाद भी जिन्हें सम्मान नहीं दिया गया- उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ। जो आज सत्ता में हैं, तब विपक्ष में थे और सरकार पर आरोप लगाते थे कि भारत में वशिष्ठ बाबू जैसे प्रतिभाओं की उपेक्षा की गई है। अब जब वही लोग सत्ता में हैं, उन्होंने उपेक्षा के सारे रिकॉर्ड ही ध्वस्त कर दिए।
वशिष्ठ नारायण सिंह चले गए। भारत में जो असाधारण प्रतिभा के धनी होते हैं, वो ऐसे ही चले जाते हैं। या तो उनका जीवन गुमनामी में गुजरता है, नहीं तो उन्हें विदेश से अच्छे ऑफर मिल जाते हैं। वशिष्ठ बाबू का मन विदेश में कुलबुलाते रहता था। वहाँ से भेजे गए पत्रों को देखें तो वो बार-बार लिखते थे कि अपने देश की, अपने जवार की मिट्टी में बात ही कुछ और है। वशिष्ठ नारायण सिंह ने लिखा था कि अमेरिका उन्हें ज्यादा दिन तक रोक नहीं पाएगा। वो भारत आए, देश के लिए। यदि देश ने, इसी समाज से, यहीँ की सत्ता ने उन्हें पंगु बना दिया। ऐसी स्थिति कोई क्यों न कहे कि भारत की ऐसी असाधारण प्रतिभाओं को लौट कर आना ही नहीं चाहिए।
डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह के निधन के बारे में सुनकर दुख हुआ। वे एक प्रख्यात गणितज्ञ थे। उनके परिवार व सहयोगियों के प्रति मेरी शोक-संवेदनाएं — राष्ट्रपति कोविन्द
— President of India (@rashtrapatibhvn) November 14, 2019
वशिष्ठ बाबू चले गए। उनकी आत्मा की शांति की प्रार्थना करते समय हमें उनसे क्षमा भी माँगनी चाहिए। शायद यह देश उन्हें डिजर्व नहीं करता था। वरना जिसके निधन पर 130 करोड़ जनसँख्या वाले देश का राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री शोक जताए, उसकी लाश को हॉस्पिटल प्रशासन सड़क पर छोड़ दे, ऐसा नहीं होता। उनके भाई अयोध्या सिंह का यह देश और समाज कृतज्ञ है, जिन्होंने अंतिम दिनों में वशिष्ठ बाबू की सेवा की। अधिकतर मामलों में किसी के साथ अन्याय होता है क्योंकि उसकी प्रतिभा की पहचान नहीं हो पाती। इस मामले में प्रतिभा का डंका भी बजा फिर भी सड़क पर उसकी लाश इन्तजार करती रही। काश! मरने के बाद भी तो जरा सा सम्मान मिल पाता!