विवेक अग्निहोत्री के निर्देशन में बनी फिल्म ‘द ताशकंद फाइल्स’ सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है। फिल्म के रिलीज़ से पहले कॉन्ग्रेस कुछ ज़्यादा बेचैन थी और कॉन्ग्रेस समर्थित कुछ पत्रकार भी, दोनों का बेचैन होना स्वाभाविक था। रिलीज़ के दो-दिन पहले कॉन्ग्रेस ने पूरी कोशिश की कि फिल्म की रिलीज को रोक दिया जाए, विवेक अग्निहोत्री को लीगल नोटिस भी भेजा गया। लेकिन, तमाम विवादों को दरकिनार करते हुए फिल्म अब सिनेमा घरों में है। कॉन्ग्रेस की परेशानी की वजह फिल्म की कहानी थी। कहानी देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमय मृत्यु की गुत्थी पर आधारित है।
विवेक रंजन अग्निहोत्री इससे पहले कई फिल्मे बना चुके हैं लेकिन इनकी फिल्म ‘बुद्धा इन अ ट्रैफिक जाम’ ने खासा ध्यान आकर्षित किया था। कई वामपंथी पत्रकार तो विवेक से तभी से चिढ़े हुए हैं। अब वो “द ताशकंद फाइल्स” के रूप में लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमय मौत की कहानी लेकर आए हैं। ऐसी कहानी ऐसी जो भारत की सबसे बड़ी मिस्ट्री के कुछ राज़ पर्दे पर खोल रही है। कुछ बड़े सवाल हैं जो आज के युवाओं को आकर्षित कर रहे हैं। बता दूँ कि भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मौत एक बेहद संजीदा मामला है जो आज तक हल नहीं हो पाया है। सवाल कई है, इस फिल्म के माध्यम से मनोरंजक अंदाज में उन रहस्यों की कई परतों को खोलने की कोशिश की गई है।
फिल्म में क्या है? लाल बहादुर शास्त्री के रहस्यमय मौत की पीछे के कारणों की पड़ताल में मैं नहीं जाना चाहूँगा। अभी प्रमुख मुद्दा ऐसे कई कूढ़मगज कॉन्ग्रेसी चाटुकार वामपंथी पत्रकार हैं जिन्होंने बिना फिल्म देखे ही अघोषित रूप से इस फिल्म का बहिष्कार किया और कुछ ने घोषित तौर पर भी अपने प्रोफेशन को धता बता फिल्म का दुष्प्रचार करने के लिए कमर कस ली है।
अभिव्यक्ति और कलात्मक स्वतंत्रता जैसे जुमलों का भयंकर दुरुपयोग करने में जिस गिरोह को महारत हासिल है वह किसी से छिपा नहीं है। लोकसभा चुनाव के दौरान इस वामपंथी गिरोह का नेक्सस कितना मजबूत है इसकी बानगी लगातार देखने को मिल रही है। कैसे ये पूरा गिरोह नैरेटिव गढ़ने में माहिर है। ये पूरा गिरोह छद्म आदर्शों की आड़ में एजेंडा सेटिंग, फेक न्यूज़ के साथ ही फेक माहौल गढ़ने में भी खुद को सिरमौर मानता है। ऐसा इस वजह से है कि इस गिरोह की पकड़ लेखन, साहित्य, फिल्म से लेकर लगभग हर क्षेत्र में है। जहाँ भी ये रहेंगे विचारधारा की चाशनी को बड़े-बड़े लफ्फबाजी में घोल कर पिलाने के बाद भी निष्पक्षता का चोला ओढ़े रहेंगे। इतना कुछ इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि आज एक बार फिर इनके रंग देख कर हैरान हूँ क्योंकि मुद्दा विवेक अग्निहोत्री की फिल्म “द ताशकंद फाइल्स” की रिलीज़ का है।
फिल्म सिनेमाघरों में आ चुकी है, फिल्म के प्रति दर्शकों का रेस्पॉन्स अच्छा है लेकिन वामपंथी फिल्म समीक्षक और कुछ फिल्म पत्रकारों को मिर्ची लगी हुई है। ये वही गिरोह है जो ताशकंद फाइल के रिलीज़ से पहले चाहता था कि फिल्म रिलीज़ ही न हो और अब ऐसी ख्वाहिश पाले बैठा है कि फिल्म फ्लॉप हो जाए। कुछ ने तो फिल्म का रिव्यु कर रेटिंग देने से भी इंकार कर दिया है।
शायद ये सभी वामपंथी मुर्गे इस भ्रम के शिकार हैं कि यदि बांग नहीं देंगे तो सूरज निकलेगा ही नहीं। ये शायद भूल रहे हैं कि ऐसा कहकर और करने से ये खुद अपनी भद्द पिटवा रहे हैं। कहाँ गई इनकी कलात्मक स्वतंत्रता या अभिव्यक्ति की रक्षा का संकल्प? खैर, निर्देशक ने अपनी अभिव्यक्ति कलाकारों के माध्यम से दर्शकों के सामने रख दी है, अब जनता को तय करने दीजिए कि फिल्म कैसी है। ये जो पूरा गिरोह, जो इस फिल्म की रेटिंग घटाने का अथक प्रयास कर अपने ही प्रोफेशन से बेईमानी पर उतर आया है।
कुछ तो इसे 0.5-1 की रेटिंग के बीच समेट कर अपनी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित करने में जुटे हैं तो कुछ ने सीधे-सीधे फिल्म की समीक्षा से ही इनकार कर दिया है। इसमें प्रमुख नाम हिंदुस्तान टाइम्स का पत्रकार राजा सेन है। राजा सेन ने फिल्म के रिव्यु से सीधे इनकार किया है। राजा की विवेक अग्निहोत्री से दुश्मनी जग ज़ाहिर है कि इससे पहले इन्होंने विवेक की फिल्म “बुद्धा इन अ ट्रैफिक जाम” की समीक्षा न करके विवेक अग्निहोत्री के राजनीतिक रुझान की समीक्षा में कई पेज काले किए थे।
Not reviewing #TheTashkentFiles this week, but here’s what I’d written about Vivek Agnihotri’s last film, #BuddhaInATrafficJam. https://t.co/3zaPEoZ9Wz
— Raja Sen (@RajaSen) April 11, 2019
वैसे भी, इस समय ये पूरा गिरोह बहुत सकते में हैं क्योंकि इनका कोई भी हथकंडा काम नहीं आ रहा। द ताशकंद फाइल्स ’देश के दूसरे प्रधानमंत्री, जय जवान जय किसान के प्रणेता लाल बहादुर शास्त्री की रहस्मयी मृत्यु के बारे में है। एक ऐसा रहस्य जिसने राष्ट्र को लंबे समय तक परेशान किया है और कुछ ऐसे चुभते सवाल जो सभी के ज़ेहन में थे लेकिन तब के किसी पत्रकार ने भारतीय राजनीति के पहले पारिवारिक राजवंश से पूछने की हिम्मत जुटा सका। और अब जब इस विमर्श को उठाया गया है तो ये पूरा गिरोह इस बात से आशंकित है कि फिल्म में ऐसा माहौल बनाया गया है कि नेहरू राजवंश की तत्कालीन मलिका इंदिरा सवालों के घेरे में आ जाएँगी।
वामपंथी बॉलीवुड गिरोह के एक दूसरे सैनिक असीम छाबड़ा ने फिल्म के पीआर एजेंट को जवाब दिया और कहा कि वह बिल्कुल भी फिल्म नहीं देखना चाहते हैं। छाबड़ा ने तो फिल्म देखने से इस अंदाज़ में इंकार किया जैसे अगर छाबड़ा नहीं गए तो दर्शक भी फिल्म से किनारा कर लेंगे। सिलसिला यही नहीं रुका राजीव मसंद और अनुपमा चोपड़ा जैसे फिल्म समीक्षकों ने भी विवेक अग्निहोत्री की फिल्म की समीक्षा करने से इनकार कर दिया है। यहाँ भी इन दोनों ने ऐसा करने के लिए कोई कारण नहीं दिया है, लेकिन लोग इनके कारणों से अच्छी तरह वाकिफ हैं। शायद इनकी घृणित विचारधारा ने ही इन्हें अपने पेशे के साथ विश्वासघात करने के लिए मजबूर किया होगा।
फिल्मों से करीबी सम्बन्ध रखने के कारण यह कह सकता हूँ कि फिल्म निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है। आज जो कुछ ये पूरा गिरोह कर रहा है, इसे हैंडल करना, किसी भी फिल्म निर्माता के लिए इतना आसान नहीं हो सकता है। ऑपइंडिया ने विवेक अग्निहोत्री से इस तरह के संगठित विरोध पर प्रतिक्रिया के लिए संपर्क किया।
क्या फिल्म उद्योग इस हद तक कुछ वामपंथी समीक्षकों शिकार हो सकता है?
उन्होंने कहा, “ऐसा नहीं होता अगर मैंने जवाहरलाल नेहरू के बारे में कोई फिल्म बनाई होती”। अग्निहोत्री ने कहा उन्हें विशेष रूप से बॉलीवुड के एलीट क्लास द्वारा टारगेट किया जा रहा है क्योंकि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थक रहे हैं।
यहाँ इस बात का जिक्र करना लाज़मी होगा कि बॉलीवुड एक एलीट क्लब की तरह है, जो वामपंथी राजनीतिक विचारधारा का गढ़ है, अगर कोई इन मठाधीशों वाली विचारधारा रखता है। अगर कोई उस खेमे का हिस्सा है जो पीएम मोदी को गाली देता है, तो वे अपने हैं, उन्हें ये पूरा गिरोह झाड़ पर चढ़ा के रखेगा। उसके किसी घटिया फिल्म के प्रचार में ये पूरा गिरोह एक साथ हुँआ-हुँआ करेगा और अगर कोई उन 900 लोगों का हिस्सा है जो प्रधानमंत्री और उनकी नीतियों का समर्थन करना चाहते हैं, तो इंडस्ट्री का यह गिरोह बहिष्कार और गाली तक का सहारा लेकर, परेशान करने की हर संभव कोशिश करता है। ये पूरा गिरोह असहिष्णुणता की सभी हदें पार करने के बाद भी इतना बड़ा हिप्पोक्रेट है कि दूसरे पर ही असहिष्णु होने का आरोप मढ़ नंगा हो सड़क पर भी निकल सकता है।
विवेक अग्निहोत्री ने इस गिरोह पर तंज करते हुए कहा कि यह ऐसे लोग हैं जो फिल्म उद्योग का राजनीतिकरण कर रहे हैं। हमने कभी किसी से नहीं पूछा कि वे एक मंदिर में ‘बिस्मिल्लाह’ क्यों गाएँगे और एक मस्जिद में ‘हरे राम हरे कृष्ण’ का जाप करते हुए गीत क्यों नहीं गाएँगे। यह सब उनके लिए मायने नहीं रखता है, लेकिन उद्योग के तथाकथित उदारवादियों के लिए, यह सिद्धांत हैं जो तय करता हैं कि किसी को फिल्में बनाने की अनुमति दी जानी चाहिए या नहीं।
ताशकंद फाइल लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमय मौत के बारे में बात करती हैं। विवेक ने कहा कि उनसे नफरत करने में इन “उदारवादियों” ने लाल बहादुर शास्त्री से सिर्फ इसलिए नफरत करना शुरू कर दिया है क्योंकि वह राष्ट्रवाद के प्रतीक थे। एक ग्रामीण नेता जो नेहरू की तरह अंग्रेजी में बात नहीं कर सकते थे।
विवेक अग्निहोत्री ने आगे कहा, “क्यों उन्हें ताशकंद फाइल के साथ ही समस्या है? जबकि मद्रास कैफे राजीव गाँधी की मृत्यु पर आधारित होते हुए भी एक शानदार फिल्म थी। ये दोनों फिल्में एक ही शैली और विषय वस्तु की हैं। इन्हे मद्रास कैफे से समस्या नहीं है लेकिन द ताशकंद फाइल्स से है? क्योंकि पहली इनकी विचारधारा को आगे बढ़ाती है। जबकि ताशकंद फाइल कुछ ज़रूरी सवाल खड़े करती है।”
“अगर मैंने जय प्रकाश नारायण या इंदिरा गाँधी पर एक फिल्म बनाई होती, तो उन्हें बहुत अच्छा लगता। तब ये पूरा गिरोह इसे वैज्ञानिक टेम्परामेंट के साथ कला को आगे बढ़ाने का काम कहता। लेकिन वहीं अगर मैंने श्यामा प्रसाद मुखर्जी पर फिल्म बनाई होती, तो वे मुझे मार डालते। बस यहाँ भी ये विरोध कर वही कर रहे हैं।”
आगे ‘अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के छद्म योद्धाओं’ की निंदा करते हुए, उन्होंने कहा कि लोगों का यह गिरोह केवल उनके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और भाषण के विचार में विश्वास रखता है, जो सिर्फ इस गिरोह के हैं। जो लोग इनकी विचारधारा से अलग हटकर, जो सच है या वे जिस असहज सच को उठाना चाहते हैं। जो लोग इस बने-बनाए ढाँचे से विद्रोह करने की हिम्मत रखते हैं, इस गिरोह को सबक सिखाने-समझाने की हिम्मत रखते हैं उसे ये हतोत्साहित करते हैं।
आज जो कुछ भी हो रहा है और घृणा के जिस स्तर पर एक फिल्म को देखे बिना भी ये पूरा गिरोह लॉबिंग कर एक तरह से बहिष्कार करने की मुद्रा में है। किसी भी फिल्म के लिए यह चलन खतरनाक है। आज ये पूरा गिरोह विवेक अग्निहोत्री को मोदी समर्थक होने के लिए दंडित कर रहा है। इससे इसकी चाटुकारिता ही नहीं बल्कि नकली निष्पक्षता की भी कलई खुल रही है।
खैर जितना ये पूरा वामपंथी गिरोह फिल्म के दुष्प्रचार में लगा है उतना ही दर्शक और पाठक भी ऐसे गिरोहों को मुहतोड़ जवाब दे फिल्म का अपने स्तर पर प्रचार कर रहे हैं। फिल्म और अपने काम को तवज्जो देने वाले कई फिल्म समीक्षकों ने फिल्म को 5 में से 3-4 स्टार दिया है। जहाँ तक मुझे पता है फिल्म अच्छी है। इस देश के सबसे रहस्यमय मौत की गुत्थी से परदे हटाती है बिना किसी तरह के जजमेंट थोपे हुए। मौका निकालिए देख आइए, फिर लिखिए अपनी फिल्म समीक्षा, ऐसा करना इन वामपंथी छद्म सेक्युलरों के मुँह पर करारा तमाचा होगा। इन्हे भी पता चलेगा कि देश इन मुर्गों को यह एहसास दिलाने के लिए एकजुट है कि सूरज को तुम्हारे बांग देने से कुछ नहीं लेना-देना। भ्रम से बाहर निकलो मठाधीशी जाने वाली है।