आज नागरिकता विधेयक में अड़ंगा लगाने के लिए हर क़ानूनी, मज़हबी, राजनीतिक पैंतरा आज़मा रहे अकबरुद्दीन ओवैसी के इतिहास में झाँकें तो तस्वीर एकदम बदल जाती है। आज जिन पाकिस्तान के ‘बेचारे’, सताए जा रहे अहमदियों की उन्हें इतनी चिंता हो रही है, कल तक वे उन्हें मजहब का अनुयाई मानने के लिए भी तैयार नहीं थे।
भारत में मौजूद मुट्ठी-भर अहमदियों की इस्लामियों में गिनती को रोकने की उन्होंने हरसंभव कोशिश की, ताकि भारत में कथित अल्पसंख्यकों की आधिकारिक जनसंख्या कम होने का हवाला देकर अल्पसंख्यक राजनीति का खेल खेलने में आसानी हो।
जुलाई, 2008 में आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वाईएसआर राजशेखर रेड्डी से मिलने भी ओवैसी मुसलअपने मजहब के लोगों के एक झुण्ड के साथ गए थे। उनकी माँग थी कि उनके गढ़ हैदराबाद में अहमदियों को रैली करने की अनुमति न हो। न केवल उन्होंने मुख्यमंत्री से यह माँग रखी बल्कि खबरें यह भी दावा करतीं हैं कि उनकी पार्टी के मुख्यालय में हुई मुलाकात में मजहबी गुटों ने रैली स्थल पर भी हमले की तैयारी कर ली। अंततः वाईएसआर ने उनकी बात मान ली, और अहमदियों को पुलिस ने रैली की अनुमति नहीं दी।
इन घटनाओं से यह बात साफ़ हो जाती है कि भारत के समुदाय विशेष में अहमदियों के लिए ऐसी कोई ख़ास सहानुभूति, यानि उनके लिए ऐसा कोई भाईचारा है नहीं जैसा नागरिकता विधेयक के संदर्भ में दिखाया जा रहा है- ओवैसी में तो बिलकुल नहीं।
इसके अलावा भारत सरकार ने इस्लाम के भीतर के विभाजन और भेदभाव को दूर करने का नहीं ले रखा है। अहमदिया चाहे मजहब द्वारा जितने भी सताए हों, वे अंत में इस्लाम में बने ही रहना चाहते हैं, मजहबी ही कहलाना चाहते हैं।
(मूलतः अंग्रेजी में प्रकाशित के भट्टाचार्जी के इस लेख का हिंदी रूपांतरण मृणाल प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव ने किया है।)