2 मई 2021 को चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे आए। पश्चिम बंगाल में टीएमसी, असम में बीजेपी और केरल में लेफ्ट फ्रंट सत्ता बचाने में सफल रहा है। पुदुच्चेरी में एनडीए को मौका मिला है तो तमिलनाडु डीएमके के खाते में गई।
सबसे ज्यादा चर्चा बंगाल में तृणमूल कॉन्ग्रेस (TMC) की जीत को लेकर हो रही है। लेकिन, बंगाल के जनादेश में छिपे वे संदेश जो फिलहाल नहीं पढ़े जा रहे वह बताते हैं कि इस बार भले केरल में वामपंथियों की सत्ता बच गई हो, लेकिन उनके इस आखिरी किले का भरभराना भी अब समय की बात है। अगले चुनावों में वहाँ शायद त्रिपुरा जैसे ही बड़ा उलटफेर देखने को मिल जाए।
हालाँकि मेट्रो मैन ई श्रीधरन की हार और केरल में एक बार फिर सिंगल डिजिट में बीजेपी की सीटों के सिमट जाने से भले आज यह दूर की कौड़ी लगती हो, लेकिन 2016 में बंगाल में जब बीजेपी ने 3 सीटें हासिल की थी तब भी कोई यह मानने को तैयार नहीं था कि 2021 के विधानसभा चुनावों में वह टीएमसी से सीधे मुकाबिल होगी और उसकी सीटें 70 के पार जाएगी।
पर राजनीति इसी का नाम है। जितनी चीजें, जितने समीकरण कागज पर उभरते हैं, उससे बहुत कुछ अलग जमीन पर पक रहा होता है। जो चीजें स्पष्ट तौर पर दिखती हैं, उससे गहरे राज छिपे संदेशों में होते हैं जो भविष्य की राजनीतिक उलटफेर की ओर इशारा कर रहे होते हैं।
अब इसको सिलसिलेवार तरीके से समझते हैं। असल में बंगाल के नक्सलबाड़ी से, जिसने माओवादियों के हिंसक आंदोलन का उभार दिया था, बीजेपी ने आसानी से जीत दर्ज की है। वामपंथियों के समर्थन वाले कॉन्ग्रेस पत्याशी तीसरे नंबर पर और टीएसमी दूसरे नंबर पर रही है। आधिकारिक तौर पर खबर लिखे जाने तक यहाँ के बीजेपी प्रत्याशी आनंदमय बर्मन की जीत का ऐलान नहीं हुआ था, लेकिन वह कुल वोटों का करीब 58% हासिल करने में कामयाब रहे थे। उनके और टीएमसी प्रत्याशी के बीच 70 हजार से ज्यादा वोटों का फासला था।
यह बताता है कि बंगाल में बीजेपी न केवल मुख्य विपक्षी पार्टी बनने में कामयाब रही है, बल्कि उसने यह तय कर दिया है कि भविष्य में बंगाल में लेफ्ट का अस्तित्व नहीं बचे, जो एक दशक पहले तक उनका अभेद्य किला माना जाता था।
यही कारण है कि 2016 के चुनावों में बंगाल में 10.16% वोट हासिल कर तीन सीट जीतने वाली बीजेपी इस बार करीब 38% वोट हासिल करते दिख रही है। ऐसा ही कुछ साल पहले ही बीजेपी ने त्रिपुरा में कर दिखाया था, जब उसने 43.59% मत हासिल करते हुए 25 साल से सत्तारूढ़ वामदलों को सत्ता से बाहर कर दिया था।
बंगाल में इस बार सीपीआई को 0.25% वोट तो सीपीआईएम को 4.64% वोट मिले हैं। लेफ्ट का खाता भी नहीं खुल रहा। 2016 के विधानसभा चुनावों में सीपीआई को 1.45% वोट प्राप्त हुए थे और पार्टी 1 सीट जीतने में सफल रही थी। सीपीआईएम 19.75% वोट हासिल कर 26 सीटें जीतने में सफल रही थी। बावजूद इस बार लेफ्ट का सूपड़ा साफ हो गया जबकि उन्होंने कॉन्ग्रेस से गठबंधन कर रखा था।
केरल में इस बार वामदल सरकार बचाने में सफल रहे हैं। लेकिन यह उनकी खुद की मजबूती से ज्यादा कॉन्ग्रेस के नेतृत्व वाली यूडीएफ की कमजोरी के कारण ही मुमकिन हुआ है। इसके कारण ही केरल की परंपरा के उलट इस बार सरकार सत्ता बचाने में सफल रही है।
2016 में केरल में लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (LDF) ने बहुमत हासिल कर सरकार बनाई थी। गठबंधन के प्रमुख वामदलों सीपीआईएम और सीपीआई को क्रमशः 26.7% और 8.2% मत प्राप्त हुए थे। 2021 में हुए विधानसभा चुनाव में LDF गठबंधन एक बार फिर सत्ता में वापस आ रहा है, लेकिन प्रमुख वामपंथी दलों के वोट शेयर में कमी देखने को मिल रही है। 2021 के चुनावों में सीपीआईएम और सीपीआई को क्रमशः 24.8% और 7.2% मत हासिल होते दिख रहे हैं। सीपीआई और सीपीआईएम के अलावा अन्य वामपंथी दलों का अस्तित्व न के बराबर है।
जिस तरह से त्रिपुरा और बंगाल जैसे अनजान प्रदेशों में बीजेपी ने संगठन खड़ा कर खुद का विस्तार किया है, यदि ऐसा ही केरल में हुआ तो नतीजे भी मनमाफिक मिलने तय हैं। केरल में संघ और उसके आनुषंगिक संगठन भी वामपंथी हिंसा के बावजूद अरसे से लगातार काम कर रहे हैं। केरल में फिलहाल बीजेपी का वोट शेयर करीब 11 फीसदी है। करीब-करीब उतना ही जितना 2016 में बंगाल में था। जिस तरह से बंगाल में ताकत झोंक पार्टी आज 38 फीसदी के करीब पहुॅंच ही, यदि ऐसा ही केरल में हुआ तो 2024 में नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं। क्योंकि केरल की जनता ने इस बार यह तो संदेश दे दिया है कि कॉन्ग्रेस अब उसके लिए विकल्प नहीं रही। उसे विकल्प की शिद्दत से तलाश है।