Sunday, November 17, 2024
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‘मनुष्य बली नहीं होत है, समय होत बलवान’: यूपी में कॉन्ग्रेस की डूबती नैया को पार करा पाएँगी प्रियंका गाँधी? एक-एक कर अलग हो रहे हैं साथी

शिवसेना ने मुखपत्र ‘सामना’ के जरिए कॉन्ग्रेस और विपक्ष पर अपनी चिंता जाहिर की। सामना में कहा गया, “यूपीए अस्तित्व में नहीं है, उसी तरह एनडीए भी नहीं है। मोदी की पार्टी को आज एनडीए की आवश्यकता नहीं, लेकिन विपक्षियों को यूपीए की जरूरत है। यूपीए के समानांतर दूसरा गठबंधन बनाना भाजपा के हाथ मजबूत करने जैसा है। यूपीए का नेतृत्व कौन करे?"

उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के लेकर सियासी बिसात बिछाई जाने लगी है। बीजेपी अपने संगठन को दुरुस्त करने के लिए मंथन करने में जुटी है तो सपा छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन बनाने में लगी है। वहीं, कॉन्ग्रेस की हालत चिंताजनक दिख रही है, क्योंकि एक के बाद एक सभी पार्टियाँ उसके अस्तित्व और भविष्य पर सवाल खड़े कर रही हैं। वहीं, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बाद अब महाराष्ट्र की सत्ताधारी और कॉन्ग्रेस की सहयोगी शिवसेना ने यूपीए के अस्तित्व पर सवाल उठाया है।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कॉन्ग्रेस (टीएमसी) की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने राष्ट्रवादी कॉन्ग्रेस पार्टी (एनसीपी) के प्रमुख शरद पवार से मुलाकात के बाद कॉन्ग्रेस पर हमलावर होते हुए कहा था, “यूपीए क्या है? कोई यूपीए नहीं है।” ममता के इस पर बयान पर काफी हो-हल्ला हुआ था। 

इस बीच अब शिवसेना ने मुखपत्र ‘सामना’ के जरिए कॉन्ग्रेस और विपक्ष पर अपनी चिंता जाहिर की। सामना में कहा गया, “यूपीए अस्तित्व में नहीं है, उसी तरह एनडीए भी नहीं है। मोदी की पार्टी को आज एनडीए की आवश्यकता नहीं, लेकिन विपक्षियों को यूपीए की जरूरत है। यूपीए के समानांतर दूसरा गठबंधन बनाना भाजपा के हाथ मजबूत करने जैसा है। यूपीए का नेतृत्व कौन करे? यह सवाल है। कॉन्ग्रेस के नेतृत्व में यूपीए गठबंधन किस-किस को स्वीकार नहीं है, वे खुलेआम हाथ ऊपर करें, स्पष्ट बोलें। पर्दे के पीछे गुटर-गूँ न करें। इससे विवाद और संदेह बढ़ता है। इसी तरह यूपीए का आप क्या करेंगे? यह एक बार तो श्रीमती सोनिया गाँधी अथवा राहुल गाँधी को सामने आकर कहना चाहिए। यूपीए का नेतृत्व कौन करे, यह मौजूदा समय का मुद्दा है।”

एक तरफ शिवसेना को यूपीए के खत्म होने की चिंता सता रही है तो दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी (सपा) के अध्यक्ष अखिलेश यादव का दावा है कि कॉन्ग्रेस की जो हालत है, जनता उसे नकार देगी और यूपी में कॉन्ग्रेस को जीरो सीटें मिलेंगी। अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में कहा, “मुझे कॉन्ग्रेस पार्टी का रोल नहीं पता है। जनता उन्हें नकार देगी, हो सकता है उनकी गिनती शून्य हो जाए।”

बताते चलें कि उत्तर प्रदेश का पिछला विधानसभा चुनाव अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने कॉन्ग्रेस के साथ मिलकर लड़ा था। हालाँकि, इसका कोई फायदा सपा या कॉन्ग्रेस को नहीं हुआ और दोनों दल बीजेपी से बुरी तरह हार गए थे। इसके बाद अखिलेश कई मंचों पर यह कहते नजर आए कि बड़े दलों से गठबंधन का अनुभव सही नहीं रहा और अब वे छोटे दलों से गठबंधन करके चुनाव में जाएँगे और यही वजह है कि समाजवादी पार्टी छोटे दलों से गठबंधन कर रही है। 

अभी तक उत्तर प्रदेश की राजनीति में जमीन तलाश रहे कई छोटे दल जैसे जयंत चौधरी की रालोद, ओमप्रकाश राजभर की सुभासपा, अपना दल (कृष्णा पटेल गुट) समेत कई दलों से उनकी बातचीत भी लगभग फाइनल हो गई है। शायद इसी वजह से अखिलेश यादव कॉन्ग्रेस के नाम से हिचक रहे हैं।

इधर कॉन्ग्रेस कशमकश में फँसी हुई है कि कैसे प्रियंका गाँधी की छवि और लोकप्रियता को बचाए रखा जाए, क्योंकि 2022 के चुनाव में पार्टी को उम्मीदों के अनुरूप परिणाम नहीं मिले तो उसका सीधा असर प्रियंका गाँधी पर पड़ेगा। हालाँकि, अब इच्छा से नहीं, बल्कि मजबूरीवश कॉन्ग्रेस को प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ना पड़ेगा।

कोई भी दल अब उत्तर प्रदेश में कॉन्ग्रेस पार्टी की बैसाखी बनने को तैयार नहीं है। इसकी सबसे प्रमुख वजह यह हो सकती है कि कॉन्ग्रेस का उत्तर प्रदेश में अब कोई जनाधार नहीं बचा है। साल 2017 के विधानसभा चुनावों में मात्र सात सीटों पर सिमटने और 2019 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश से मात्र एक सीट मिलने पर कौन-सी पार्टी कॉन्ग्रेस को साथ लेकर सफल होने की सोचेगी।

प्रियंका गाँधी को सक्रिय राजनीति में आए अभी सिर्फ कुछ ही साल ही हुए हैं और भारत के सबसे बड़े तथा राजनीतिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश की कमान उन्हें सौंप दी गई। माँ सोनिया गाँधी आखिरी बार लगभग दो साल पहले उत्तर प्रदेश में अपने चुनाव क्षेत्र रायबरेली गई थीं। वहीं, बड़े भाई राहुल गाँधी भी अमेठी से लोकसभा चुनाव हारने के बाद उत्तर प्रदेश में कभी-कभी और गेस्ट रोल में ही दिखते हैं। पिछले महीने लखीमपुर खीरी में हिंसक वारदात के बाद पंजाब और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों के साथ पीड़ित परिवारों के आँसू पोछने गए थे। तब प्रियंका गाँधी भी साथ में थीं। उसके बाद राहुल गाँधी उत्तर प्रदेश में नहीं दिखे।

प्रियंका को अब ना तो परिवार का साथ है ना ही कोई दोस्त मिल रहा है, जो इस बुरे समय में उनके काम आए। बस एक ही उम्मीद थी कि जयंत चौधरी का साथ उन्हें मिल जाए तो पश्चिम उत्तर प्रदेश में उनकी साख बच जाएगी, लेकिन जयंत चौधरी ने भी कोई भाव नहीं दिया। प्रियंका की अब सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह कहाँ से 403 ऐसे नेताओं को ढूँढे, जिनमें चुनाव जीतने की आंशिक क्षमता भी हो। बहरहाल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चुनाव रोचक बनता दिख रहा है, पर दुखद बात यही है कि प्रदेश में पार्टी का पूर्ण सफाया अब लगभग तय हो गया है। इस स्थिति में प्रियंका गाँधी पर सिर्फ तरस ही खाया जा सकता है।

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