आज उत्तर बिहार शांत है। 90 के दशक के खूनी खेल से दूर। पर खून के छींटे अभी भी मौजूद हैं। कहानी के सूत्रधार खत्म नहीं हुए। हाँ, रास्ते जरूर बदल गए हैं। मुन्ना शुक्ला अपनी पत्नी के लिए लालगंज सीट से ताल ठोक रहे हैं। उधर लवली आनंद (Lovely Anand) सुपौल से आरजेडी के टिकट पर चुनाव लड़ रही हैं। आप कहेंगे दोनों में क्या संबंध है? मुन्ना शुक्ला और लवली के पति आनंद मोहन (Anand Mohan) दोनों ही गोपालगंज के तत्कालीन डीएम जी कृष्णैया की हत्या के आरोपित थे। मुन्ना शुक्ला बरी हो गए पर आनंद मोहन आजीवन कारावास की सजा काट रहा है।
पाँच नवंबर, 1994 की शाम मुजफ्फरपुर में डीएम की हत्या प्रतिक्रिया थी। ठीक एक दिन पहले अंडरवर्ल्ड डॉन कौशलेंद्र शुक्ला उर्फ छोटन शुक्ला (Chhotan Shukla) की हत्या हुई थी और डीएम का मर्डर उन्हीं की शव यात्रा के दौरान हुई। ये वक्त बिहार की राजनीति में माफियाराज का स्वर्णकाल था। उस समय जो खून के छींटे निकले, उनकी छाप बिहार विधानसभा चुनाव 2020 (Bihar Assembly Election) में भी दिखाई दे रही है।
5 दिसंबर 1994 को बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में जिस भीड़ ने डीएम की पीट-पीट कर हत्या की थी, उस भीड़ का नेतृत्व आनंद मोहन और उनके साथ सजा पाए नेता कर रहे थे। एक दिन पहले मुजफ्फरपुर में आनंद मोहन की पार्टी के नेता रहे छोटन शुक्ला की हत्या हुई थी। इस भीड़ में शामिल लोग छोटन शुक्ला के शव के साथ प्रदर्शन कर रहे थे।
इस दौरान मुजफ्फरपुर के रास्ते पटना से गोपालगंज जा रहे डीएम जी कृष्णैया पर भीड़ ने मुजफ्फरपुर के खबड़ा गाँव में हमला कर दिया था। मॉब लिंचिंग में डीएम की मौत हो गई थी। कृष्णैया तब मात्र 35 वर्ष के थे। शव यात्रा में बीपीपी सुप्रीमो आनंद मोहन, उनकी पत्नी और वैशाली की पूर्व सांसद लवली आनंद, छोटन शुक्ला के भाई और विधायक मुन्ना शुक्ला, विक्रमगंज के पूर्व विधायक अखलाक अहमद, शशिशेखर और अरुण कुमार सिन्हा भी शामिल थे। इन लोगों पर डीएम की हत्या के लिए भीड़ को उकसाने का आरोप था।
जब शव यात्रा निकली तो बदला ही नारा था। डीएम जी कृष्णैया के ड्राइवर ने बड़ी कोशिश की उनको बचाने की। लाल बत्ती देख कर जी कृष्णैया (Gopalganj DM G Krishnaiyyah) को बाहर निकाला गया, लोगों ने घेर कर मारा। देख कर लोगों को लगा कि गोली मारने से पहले ही मर गए होंगे क्योंकि तब तक भीड़ ने उन्हें बुरी तरह से कूच दिया था। इसके बाद भी भुटकुन शुक्ला ने कथित तौर पर फायरिंग कर उनके जिंदा रहने की संभावना पर विराम लगा दिया। बहुत देर बाद पुलिस लाश ले गई। तब तक सायरन बजने लगा था और कर्फ्यू लग चुका था।
छोटन शुक्ला की शव यात्रा में गोपालगंज के डीएम की हत्या ने बैठे बिठाए एक और मुद्दा भी दे दिया था। गोपालगंज के डीएम दलित थे। न्यायालय के पन्नों में दर्ज कई सौ पेज की रिपोर्ट में काफी विस्तार से इस हत्याकांड के बारे में बताया गया है। इन पन्नों में दर्ज तमाम गवाहों की गवाही कहती है कि किस तरह नया टोला स्थित छोटन शुक्ला के घर से निकली शव यात्रा जब भगवानपुर पहुँची तो वहाँ क्या हुआ था। भगवानपुर में करीब 5000 लोगों की भीड़ के बीच में आनंद मोहन ने एक आक्रोशित भाषण दिया था।
आनंद मोहन ने अपने भाषण में छोटन शुक्ला की हत्या में शामिल लोगों को कुत्तों की मौत मारने और बिहार में खून की होली खेलने जैसी भड़काऊ बातें भी कही थीं। भगवानपुर में भाषणबाजी के बाद शवयात्रा खबड़ा और रामदयालु होते हुए छोटन शुक्ला के पैतृक गाँव लालगंज जानी थी। खबड़ा मूलरूप से भूमिहार बहुल क्षेत्र है। यहाँ जबर्दस्त भीड़ थी। लोग आक्रोशित थे। इसी बीच हाजीपुर से मीटिंग समाप्त कर गोपालगंज लौट रहे डीएम जी कृष्णैया भीड़ में फँस गए। सरकार और प्रशासन के खिलाफ आक्रोशित भीड़ में से किसी ने रिवॉल्वर से उन पर फायरिंग कर दी। बहुत नजदीक से उन्हें गोली मार दी गई।
सैकड़ों पुलिसकर्मी भी शवयात्रा को शांतिपूर्वक निकालने के लिए लगाए गए थे। पर पुलिसकर्मियों की मौजूदगी के बीच डीएम को गोली मार दी गई। गोली लगने के बाद वहाँ अफरातफरी मच गई। पुलिस ने भी जमकर लाठीचार्ज किया। इस लाठीचार्ज में सैकड़ों लोग घायल हुए। डीएम को घायलावस्था में एसकेएमसीएच ले जाया गया, जहाँ उन्हें मृत घोषित कर दिया गया।
हाजीपुर पहुँचते-पहुँचते आनंद मोहन और लवली आनंद गिरफ्तार कर लिए गए। उधर, लालगंज के पैतृक गांव में छोटन शुक्ला का दाह संस्कार कर दिया गया। पर डीएम की हत्या ने बिहार की पूरी राजनीति में भूचाल ला दिया। एक दलित अधिकारी को सवर्णों की भीड़ के बीच हत्या ने बिहार की राजनीति को नया जातिगत मुद्दा जो दे दिया था।
जज ने इस मामले में आरोपित किए गए 36 में से 29 लोगों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया। आपराधिक छवि वाले छोटन शुक्ला की 4 दिसंबर 1994 को विधानसभा चुनाव प्रचार अभियान के दौरान गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। शुक्ला की हत्या का आरोप बाहुबली और बिहार के पूर्व मंत्री बृजबिहारी प्रसाद पर लगा था, जिनकी 13 जून 1998 को पटना स्थित इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान परिसर में हत्या कर दी गई। बृजबिहारी उस समय बिहार के साइंस एंड टेक्नॉलजी मंत्री थे और तकनीकी संस्थानों में दाखिले में गड़बड़ी के मामले में उन्हें गिरफ्तार किया था।
कृष्णैया की हत्या में पटना की निचली अदालत ने आनंद मोहन को 2007 में फाँसी की सजा सुनाई थी। आनंद मोहन के साथ पूर्व मंत्री अखलाक अहमद और अरुण कमार को भी मौत की सजा सुनाई गई थी। बाद में हाई कोर्ट ने आनंद मोहन की फाँसी की सजा को उम्र कैद में बदल दिया।
इसी मामले में अदालत ने आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद, मुन्ना शुक्ला, शशि शेखर और हरेन्द्र कुमार को उम्र कैद की सजा सुनाई थी, लेकिन हाई कोर्ट ने दिसंबर 2008 में सबूतों के अभाव में इन्हें बरी कर दिया। आनंद मोहन ने जेल से ही 1996 का लोकसभा चुनाव समता पार्टी के टिकट पर लड़ा और जीत हासिल की थी। 2 बार सांसद रहे आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद भी एक बार सांसद रह चुकी हैं।
कुख्यात क्रिमिनल होने के बावजूद मुजफ्फरपुर की सवर्ण आबादी का छोटन के साथ इमोशनल कनेक्ट था। रघुनाथ पांडे के लिए तो ये बड़ा लॉस था। वो कॉन्ग्रेस के टिकट पर लगातार विधायक बनते रहे थे। इस जागीर को सँभालने में छोटन की जरूरत थी। लालू का राज था और बैकवर्ड-फॉरवर्ड जातीय संघर्ष अपना चरम छू रहा था। लेकिन सम्राट अशोक और छोटन जैसे युवाओं को लगा कि कब तक नेताओं के लिए काम किया जाए। बूथ कैप्चरिंग के काम से अलग अब ये अपनी खुद की राजनीतिक पहचान बनाना चाहते थे।
तब सामाजिक न्याय की आड़ में लालू यादव (Lalu Prasad Yadav) गाहे-बगाहे समाज में जहर भी बो रहे थे। भूरा बाल (भूमिहार-राजपूत-ब्राह्मण-लाला यानी कायस्थ) साफ करो की बात कर लालू ने सवर्णों को गोलबंद कर दिया। जगह-जगह जातीय दंगे हुए। खास बिरादरी के लोगों को थानेदार बनाने के आरोप लगे। 1995 में लालू यादव की दूसरी परीक्षा थी। इस विधानसभा चुनाव से पहले 1994 में ही वैशाली में लोकसभा का उपचुनाव हुआ।
इससे पहले लोग आनंद मोहन को ज्यादा नहीं जानते थे। उन्होंने सहरसा के रॉबिनहुड से नेता का शक्ल इजाद किया। ये भी सच है कि लालू आगमन के बाद कसमसाए बिहार के अगड़ों में उनके संभ्रांत नेताओं ने नहीं बाहुबली नेताओं और कथित अपराधियों ने आस जगाई। इन्हीं में एक आनंद मोहन ने लालू को खुलेआम चुनौती दी और वो भी उसी की भाषा में। लालू विरोध को आवाज मिली आनंद मोहन की बिहार पीपुल्स पार्टी से।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य की बात करें तो अगड़ी-पिछड़ी की राजनीति को नीतीश बहुत दूर ले आए हैं, जहाँ पुरानी जातीय सीमाएँ टूट चुकी हैं। इसी के साथ जातीय वर्चस्व और इससे जुड़ी अदावत की कहानी भी काफी बदल चुकी है। बृजबिहारी प्रसाद की पत्नी रमा देवी सांसद हैं और इसी उत्तर बिहार में बीजेपी का ओबीसी चेहरा बन कर उभरी हैं।