कल भारतीय रिजर्व बैंक ने, पूर्व गवर्नर बिमल जालान के नेतृत्व में बनी समिति के सुझावों पर अमल करते हुए, भारत सरकार को ₹1.76 लाख करोड़ दिए। इस पर दो तरह की प्रतिक्रियाएँ आईं। एक तरफ के लोगों ने इसे अच्छा कदम बताते हुए कहा कि सरकार को इसकी आवश्यकता थी और इसे सरकार कहाँ खर्च करती है इससे पता चलेगा कि अर्थव्यवस्था पर इसका कैसा असर पड़ेगा। वहीं दूसरी तरफ वाले लोगों ने कहा है कि ये डकैती है, मोदी रिजर्व बैंक से पैसा चुरा रहा है, लूट हो रही है।
फिर बीबीसी जैसे प्रोपेगेंडा गिरोह ने कनाडा में बैठे अर्थशास्त्रियों के बयान लेते हुए बताना शुरू किया कि यह रिजर्व बैंक की स्वायत्तता पर हमला है, और भारत सरकार ज्यादती कर रही है। कॉन्ग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और पैसों के हेर-फेर के मामलों में फँसे राहुल गाँधी ने मोदी पर करारा हमला बोलते हुए बताया कि सरकार ने फंड चुरा लिया और ये गलत है। उन्होंने उदाहरण दिया कि मोदी सरकार बंदूक की गोली का घाव रोकने के लिए दवाखाने से बैंड-एड चुरा कर भागी है। यह बात अलग है कि जिन्हें रिजर्व बैंक के बारे में थोड़ी भी जानकारी है, और मोदी से घृणा न करते हों, वे जानते हैं कि न तो रिजर्व बैंक ने, और न ही सरकार ने कुछ भी गलत किया है।
PM & FM are clueless about how to solve their self created economic disaster.
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) August 27, 2019
Stealing from RBI won’t work – it’s like stealing a Band-Aid from the dispensary & sticking it on a gunshot wound. #RBILooted https://t.co/P7vEzWvTY3
पहली बात तो यह है कि रिजर्व बैंक है क्या?
सरल शब्दों में, भारतीय रिजर्व बैंक भारत सरकार की संपत्ति है। 1949 से यह बैंक भारत सरकार के पूर्ण स्वामित्व में आया। फिर स्वायत्तता का क्या संदर्भ है? स्वायत्त होने का मतलब यह नहीं होता कि आप सरकार के दायरे से बाहर हो जाते हैं, या एक स्वतंत्र कम्पनी बन जाते हैं। स्वायत्त होने का मतलब है कि पॉलिसी-संबंधित बातों पर बैंक के पास अपने अधिकार हैं कि वो अपने दायरे में संचालित होने वाले बैंकों, वित्तीय नीति आदि पर स्वयं निर्णय ले सके।
रिजर्व बैंक हमेशा सरकार के वित्त मंत्रालय के साथ मिल कर ही काम करता है। दोनों की नीतियाँ अलग हो सकतीं हैं, लेकिन विपरीत नहीं। कहने का अर्थ यह है कि दोनों ही संस्थाओं का लक्ष्य भारतीय अर्थव्यवस्था की बेहतरी है। दोनों के देखने का नजरिया अलग हो सकता है, लेकिन स्वायत्त होने के बावजूद रिजर्व बैंक भारतीय अर्थ-तंत्र का ही हिस्सा है, और वो सरकार के साथ मिल कर ही काम करता है।
रिजर्व बैंक का पैसा कहाँ से आता है, उसके लाभ का क्या होता है?
रिजर्व बैंक के पास देश का सोना है, भारत के विभिन्न बैंकों को पैसे देता है, सरकारी बॉन्ड में पैसा लगाती है, विदेशी मुद्रा की खरीद-बिक्री करती है। ये उसके आय के स्रोत हैं। जाहिर है कि अगर बैंक व्यवसाय करेगा तो उसे लाभ भी हो सकता है, हानि भी। सोने के दाम में अगर साल के शुरुआत से साल के अंत में अंतर आएगा, तो वो रिजर्व बैंक की आमदनी में जुड़ेगा (या घटेगा)। वैसे ही, अगर रिजर्व बैंक ने सरकारी बॉन्ड को बेचा और उससे पैसे आए तो वे पैसे भी आमदनी का हिस्सा बनेंगे। अगर रिजर्व बैंक ने अपने पास के विदेशी मुद्रा रिजर्व से डॉलर को कम दाम पर खरीदा, और ज्यादा दाम पर बेचा, तो भी उसे आमदनी होगी।
यह आमदनी आम तौर पर एक स्तर तक की होती है, जिससे वित्तीय वर्ष के अंत में रिजर्व बैंक अपने लाभ का एक हिस्सा अपने पास रख कर बाकी पैसे सरकार को दे देता है। जो हिस्सा बैंक अपने पास रखता है, वो पैसे वो अपने बुरे दिनों को लिए रखता है- जैसे कि कभी बैंकिंग सिस्टम में पैसे की कमी हो जाए, अर्थव्यवस्था पर वैश्विक मंदी का असर पड़ने लगे, या ऐसी समस्या आ जाए कि देश की इकॉनमी खतरे में पड़ जाए। ऐसे समय पर, जब सरकार के पास पैसों की कमी हो जाएगी, लोगों के हाथों में पैसा न होने के कारण खरीददारी करने की क्षमता कम होने लगेगी, तब रिजर्व बैंक बाजार और अर्थव्यवस्था की मदद के लिए कई कदम उठाता है।
जब आमदनी अच्छी होती है, लाभ होता है, और लाभ में से खतरे के समय के लिए बैंक के पास एक तय पैसा अलग रख लिया जाता है (contigency fund, कंटिंजेंसी फंड), तब उसके बाद जो पैसा बचता है, उसे सरप्लस कहते हैं। यह हर कम्पनी के साथ होता है, हर व्यक्ति के साथ होता है। आपकी जितनी सैलरी है, उसमें से आप अपने सारे खर्च और निवेश के बाद कुछ पैसा जो बचा पाते हैं, वो सरप्लस होता है। इसका उपयोग आप घर के किसी ऐसे कार्य को करने के लिए करते हैं, जो आपके सामान्य जरूरतों से शायद अलग होता है।
पिछले कुछ सालों में रिजर्व बैंक ने भारत सरकार को अपना सरप्लस लगातार दिया है। कई साल सारा सरप्लस सरकार को दिया है। ये बात और है कि सामान्य तौर पर यह सरप्लस लगभग ₹40-50,000 करोड़ के आस-पास रहा है। इस बार यह सरप्लस असामान्य है क्योंकि इस साल का सरप्लस उस संख्या का लगभग तीन गुना है।
इस साल सरप्लस इतना ज्यादा कैसे हो गया?
रिजर्व बैंक ने पिछले साल अप्रत्याशित कारोबार किया, जिसमें अच्छे फायदे पर डॉलर और सरकारी बॉन्ड को बेचना शामिल है। ऐसा कार्य रिजर्व बैंक ने पिछले कई सालों से नहीं किया था, इसलिए लाभ हमेशा एक नियत संख्या के आस-पास ही दिखता था।
इसी बिक्री के कारण बैंक ने अप्रत्याशित मुनाफा कमाया। इस मुनाफे से बुरे दिनों के लिए बचाए गए फंड का हर समस्या से जूझने की स्थिति का आकलन करने के बाद, बिमल जालान समिति ने सुझाव दिया कि इस लाभ को सरकार को दे देना चाहिए क्योंकि राष्ट्र को अभी इस फंड की आवश्यकता है। आप सब जानते हैं कि बजट में सरकार देश पर हुए खर्च और टैक्स से हुई आमदनी का लेखा-जोखा रखने के बाद, अगले साल में खर्च होने वाले आँकड़े रखती है।
अगर यह आँकड़े आमदनी से कम होते हैं, तो उसे वित्तीय घाटा या फिस्कल डेफिसिट कहा जाता है। यह घाटा अगर बहुत ज्यादा हो जाएगा तो सरकार को कहीं से कर्ज लेना होगा। लेकिन सरकार के पास रिजर्व बैंक है, जिसके पास कुछ पैसा है। वह पैसा, जिसका अगर कहीं पड़े रहने से ज्यादा उपयोग नहीं है, तो वह पैसा सरकार को बैंक दे सकता है। इसलिए दे सकता है क्योंकि अंततः बैंक का स्वामित्व सरकार के पास ही होता है। यही बिमल जालान इंदिरा गाँधी से लेकर मनमोहन के समय तक महान अर्थशास्त्री माने जाते थे, और अब यही जालान “मोदी के गुलाम” हो गए हैं।
जालान समिति ने सुझाव दिया कि रिजर्व बैंक अपने बुरे दिनों के लिए लाभ का एक हिस्सा रखने के बाद पूरा सरप्लस सरकार को दे दे। इस सुझाव तक पहुँचने से पहले समिति ने बैंक के ऊपर आने वाले खतरों, पहले के समय के सबसे बुरे दौर आदि को संदर्भ में रखते हुए निर्णय लिया कि उसके अपने बचाव के लिए कम-से-कम कितने पैसों की ज़रूरत है। उसके बाद जो बचा, वो सरकार को दे देने की सिफारिश समिति ने की।
रिजर्व बैंक के लिए रिस्क क्या है? खतरे वाले दिनों से क्या मतलब है?
रिजर्व बैंक को विदेशी या अप्रत्याशित कारणों से होने वाले नुकसान से बचाने के लिए उसके अपने पास एक प्रक्रिया होनी चाहिए- जैसे कि अगर डॉलर के मुकाबले रुपए का दाम बढ़ने लगे, या अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोने का भाव गिरने लगे। इससे रिजर्व बैंक की संपत्ति पर सीधा असर पड़ता है। इसका मतलब है कि आमदनी घटेगी। आमदनी अगर घटेगी तो उसका असर सीधा देश के बैंकों और वित्तीय व्यवस्था पर पड़ेगा। लेकिन यह असर वित्तीय तंत्र पर न पड़े, उसके लिए रिजर्व बैंक एक फंड रखता है।
मान लीजिए कि अमेरिका ने अचानक से भारत पर कुछ वित्तीय प्रतिबंध लगा दिए। या ऐसा हो कि एक ऐसी सरकार आ जाए जिसकी नीतियों के कारण अर्थव्यवस्था हिल जाए। ऐसे समय में भी तंत्र को सुचारू रूप से चलाते रहने के लिए रिजर्व बैंक के पास कुछ अलग फंड होना चाहिए, ताकि इस तरह की स्थिति में वित्तीय तंत्र में अपने पास के पैसे लगा कर उसे गिरने से बचाया जा सके।
जहाँ तक बात स्वायत्तता की आती है तो उसमें रिजर्व बैंक के पास अपने लिए काम करने वाले लोगों और अपने कार्य को सही तरह से चलाने के लिए होने वाले खर्च के मामले में स्वतंत्रता है। लेकिन स्वायत्त होने का मतलब यह बिलकुल नहीं कि भले ही हमारा स्वामित्व भारत सरकार के पास है, लेकिन अर्थव्यवस्था को जब ज़रूरत पड़े तो हम अपनी मर्जी से सरप्लस फंड रोक लेंगे।
कुछ लोग रिजर्व बैंक के संपत्ति के आधार पर रखे जा रहे रिजर्व के प्रतिशत पर आ कर अटक गए हैं। इसे अंग्रेजी में ‘असेट-टू-रिजर्व रेशियो’ कहा जाता है। अगर अंतरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर चलें तो इस रिजर्व का मीडियन प्रतिशत 16 है जबकि भारतीय रिजर्व बैंक उससे बहुत ऊपर 26% का रिजर्व रखता है। ये अनुपात भी अर्थव्यवस्था के हिसाब से रखा जाता है ताकि बुरे-से-बुरे दौर में भी आपके पास इतना पैसा हो कि इकॉनमी पूरी तरह से गिर न जाए।
राहुल गाँधी रो क्यों रहे हैं? कॉन्ग्रेस इसे डकैती क्यों कह रही है?
राहुल गाँधी समेत पूरे कॉन्ग्रेस के पास सिवाय फर्जीवाड़े के कुछ बचा नहीं। इन्होंने राफेल के मुद्दे पर भारतीय आम जनता की अनभिज्ञता का लाभ उठाते हुए हर जिले में प्रेस कॉन्फ़्रेंस करने से लेकर हर रैली में राफेल-राफेल चिल्लाने की योजना बनाई थी, वह योजना काफी हद तक सफल रही क्योंकि अचानक से जो लोग मोदी को भ्रष्टाचार से बिलकुल अलग मानते थे, उन्हों रवीश वाला रोग लग गया और वो भी रवीश टाइप कहने लगे: जाँच करवाने में क्या जाता है?
हालाँकि रवीश भी जानते थे और राहुल भी कि रक्षा मामलों में उसकी पूरी जानकारी पब्लिक में नहीं दी जा सकती क्योंकि उसमें उस कम्पनी द्वारा विकसित तकनीकों के पब्लिक हो जाने का खतरा है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में मोदी सरकार को सही पाया। फिर भी, मीडिया और कॉन्ग्रेस लगातार राफेल-राफेल करते रहे। यह सब सिर्फ इसलिए संभव हो पाया क्योंकि लोगों को इतनी डीटेल्स पता नहीं होतीं कि रक्षा सौदों में क्या शर्तें होती हैं। साथ ही, अगर घोटालों के खानदान में पले-बढ़े लोग अगर घोटाले होने की बातें करने लगते हैं तो आदमी को लगता है कि यार इसके तो बाप, माँ, परनाना तक घोटालेबाज रहे हैं, इसको तो आयडिया होगा ही!
तो रिजर्व बैंक को लेकर भी इन्होंने यही रणनीति अपनाई है। आम आदमी को रिजर्व बैंक या उसी कार्यशैली का कुछ पता नहीं होता। इसलिए, उसे मूर्ख बनाना आसान होता है कि देखो मोदी रिजर्व बैंक को लूट रहा है। जबकि राहुल गाँधी ये नहीं बता पाएँगे कि 2013-14, 14-15, 15-16 और उसके पहले भी रिजर्व बैंक ने सरप्लस भारत सरकार को दिया या नहीं। दिया तो कितने प्रतिशत दिया। वो इसलिए नहीं बता पाएँगे क्योंकि आम आदमी को मूर्ख समझना एक बात है, और रिजर्व बैंक के बारे में पता लगाना बिलकुल अलग। वो राहुल के वश का तो नहीं लगता।
आपकी कम्पनी है। उसने लाभ कमाया है। लाभ का एक हिस्सा अपने पास रखने के बाद, बाकी का पैसा परिवार पर खर्च के लिए घर के मुखिया को दे दिया है। कम्पनी ने अपने बचाव का भी पूरा ध्यान रखा, और परिवार को भी जरूरत के समय में मदद की। इसमें गलत क्या है? वो भी तब, जब कम्पनी का स्वामित्व परिवार के पास ही है।
राहुल गाँधी, अपने दावे के अनुसार, कैम्ब्रिज से पढ़े हैं। उनकी चुनावी टीम में अभिजीत बनर्जी जैसे MIT के अर्थशास्त्री थे। हाल ही में जेल चले जाने से पहले तक चिदंबरम के रूप में एक और अर्थशास्त्री था उनके पास। RBI गवर्नर रहे मनमोहन सिंह (पूर्व प्रधानमंत्री भी रहे हैं) आज भी उनका फ़ोन उठा ही लेंगे, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। तो राहुल गाँधी ऐसे हास्यास्पद दावे करने के पहले कम-से-कम इन लोगों से ही पूछ लेते, तो पता चल जाता कितनी मूर्खता भरी बातें वे कर आए हैं।