बिहार में हुए विधानसभा चुनाव के परिणाम आ गए हैं और एक बात जो सबको अचंभे में डाल रही है वो ये है कि वामपंथियों को अच्छी सीटें मिली हैं। वामपंथियों को कुल 16 सीटों पर सफलता मिली है। 29 सीटों में से 55.17% सीटें जीत लेने के कारण उनका प्रदर्शन अच्छा माना जा रहा है। देश के अन्य वामपंथी कॉमरेड भी इसे सकारात्मक रूप में लेते हुए अपने पुनर्भव के रूप में देख रहे हैं। क्या ये ऐसा ही है, जैसा दिख रहा है? आइए, समझते हैं।
सबसे पहले तो ये समझने वाली बात है कि ये कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) या फिर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सिस्ट) [CPI (M)] की सफलता नहीं है। इन 16 में से 14 सीटें कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी लेनिनवादी) लिबरेशन, अर्थात CPI (ML) को मिली हैं, जिसका बिहार में 90 के दशक के पहले से ही जनाधार रहा है और उसके प्रत्याशियों को सफलता मिलती रही है।
दीपांकर भट्टाचार्य बिहार में इसका नेतृत्व करते हैं और इस चुनाव में भी उन्होंने जम कर रैलियाँ और जनसभाएँ की हैं। इसने किसानों, युवाओं और व्यापारियों तक का भी संगठन बना रखा है और अपने पुराने जनाधार के कारण बिहार के कुछ हिस्सों की राजनीति में हस्तक्षेप रखते हैं। कई भाषाओं में इसके मुखपत्र भी आते हैं। सीवान, भोजपुर और आरा व इसके आसपास के क्षेत्रों में जमींदारों से लड़ाई के शुरुआती दौर में ही इन्होंने अपना जनाधार बना लिया था।
2015 के बिहार विधानसभा चुनावों में इसे 3 सीटें मिली थीं। उस चुनाव में सीवान के दरौली से भाकपा (माले) के सत्यदेव राम जीते थे, जिन्होंने इस बार भी अपनी सीट बचा ली है। कटिहार के बलरामपुर से महबूब आलम जीते थे। उन्होंने भी अपनी सीट बचा ली है। वहीं भोजपुर के तरारी से भी इसी पार्टी के सुदामा प्रसाद ने जीत दर्ज की थी। 5 साल का कार्यकाल पूरा कर के वो भी फिर से जीत गए हैं। इसके अलावा 9 अन्य सीटें पार्टी के खाते में आईं।
अगर आपको लगता है कि इस चुनाव में 29 सीटों पर वामपंथियों की लहर थी तो आप एकदम गलत हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है। भाकपा (माले) ने उन्हीं इलाकों में सीटें लीं, जहाँ उनका जनाधार था। मधुबनी की भी दो सीटें ऐसी हैं, जहाँ उसने प्रभाव डाला। झंझारपुर से उसने रामनारायण यादव को टिकट दिया था, जो दूसरे स्थान पर रहे। इसके अलावा हरलाखी से भी उसके उम्मीदवार को दूसरे स्थान से संतोष करना पड़ा।
यहाँ से अगर निर्दलीय मोहम्मद शब्बीर के वोट को मिला दें तो यहाँ भी वामपंथी उम्मीदवार की जीत हो जाती। ऑपइंडिया की टीम बिहार में ग्राउंड पर भी घूमी है और वामपंथियों की सफलता का सबसे बड़ा कारण ये है कि उनके साथ राजद का कोर वोट भी जुड़ा। वोटों का बिखराव नहीं हुआ और इसीलिए अपने पुराने जनाधार वाले क्षेत्रों में, जहाँ 90 के दशक में उनका खासा प्रभाव था, वहाँ वो अच्छा प्रदर्शन करने में कामयाब रहे।
हाँ, पिछले 30 सालों में ये भाकपा (माले) का सबसे उम्दा प्रदर्शन ज़रूर है, और इसीलिए दीपांकर भट्टाचार्य कह रहे हैं कि महागठबंधन में उन्हें अच्छा प्रतिनिधित्व नहीं मिला, वरना स्ट्राइक रेट के हिसाब से उन्हें और भी ज्यादा सीटें मिल सकती थीं। 2005 की फ़रवरी में हुए चुनाव में भी पार्टी ने 7 सीटें जीती थीं। इसी तरह उसी साल विधानसभा भंग होने के बाद अक्टूबर में जब फिर से चुनाव हुए, तो भाकपा (माले) 5 सीटें जीतने में कामयाब रही थी।
हालाँकि, ये कोई आवश्यक नहीं है कि वामपंथियों को अगर बिहार विधानसभा चुनाव में कई अन्य इलाकों की सीटें या कॉन्ग्रेस के पर कतर के सीटें दी गई होती तो वो जीत ही जाती, क्योंकि उसके लिए अपने खास जनाधार वाले इलाकों से बाहर जीतना संभव नहीं है। राजद का कोर वोट बड़ा है और बिहार की सबसे बड़ी पार्टी बन कर भी उभरी है, ऐसे में उसके वोट्स ने भाकपा (माले) को जबरदस्त फायदा पहुँचाया।
झारखण्ड में भी पार्टी पाँव पसार रही है क्योंकि पिछले कुछ दिनों में वहाँ नक्सलवाद फिर से पनप रहा है। खासकर गिरिडीह में उसका प्रदर्शन जानदार रहा था, जहाँ के पंचायत चुनावों में उसने 11 जिला परिषद सीटें जीतने में कामयाबी हासिल की थी। उसे एकमात्र विधानसभा सीट भी गिरिडीह के धनवार में मिली। ये चीजें साबित करती हैं कि कुछ छोटे-छोटे क्षेत्र ऐसे हैं, जहाँ बचे-खुचे जनाधार को इकट्ठा कर वो गठबंधन में जीत सकती है।
जहाँ तक बात CPI और CPM की है, तो उसका बिहार में कोई भी जनाधार नहीं है – ये आपको कोई भी राजनीतिक विशेषज्ञ बता सकता है। इन दोनों पार्टियों को 2-2 सीटें मिली तो ज़रूर हैं, लेकिन ये भी भाकपा (माले) के प्रभाव या फिर स्थानीय समीकरणों से मिली। कहीं-कहीं जदयू के मुकाबले लोजपा उम्मीदवार ने भी उसे फायदा पहुँचाया है। आइए, इसे जरा उदाहरण के साथ समझते हैं कि स्थानीय समीकरणों ने इसमें कैसे मदद की।
Left scores in 16 out of 29 seats in Bihar, CPI-ML wins 12 of 19 https://t.co/GKFPysscS0 pic.twitter.com/BqfmoGBRns
— The Times Of India (@timesofindia) November 10, 2020
उदाहरण के लिए आप पालीगंज सीट को देख लीजिए। वहाँ पटना के पालीगंज में भाकपा (माले) ने 33 साल के संदीप सौरव को उतारा। उनका मुकाबला यहाँ के सिटिंग विधायक जयवर्द्धन एफव से था, जो 2015 में जीते तो थे राजद से लेकिन इस बार पाला बदल कर जदयू से उतरे थे। लड़ाई काँटे की थी, लेकिन लोजपा ने 2010 में यहाँ से भाजपा विधायक रहीं उषा विद्यार्थी को उतार कर काम खराब कर दिया। वो 10% से अधिक वोट पाने में कामयाब रहीं।
इसी तरह अगिआँव, काराकाट, तरारी, अरवल और पालीगंज – ये पाँचों ही सीटें आपस में सटी हुई हैं और इससे पता चलता है कि पटना और आरा व उसके आस-पास के इलाकों में उनका जो जनाधार बचा हुआ है, वहाँ राजद के कोर वोटरों के जुड़ने से उन्हें सफलता मिली। इसी तरह से जीरादेई और दरौली सीटें आपस में सटी हुई हैं। दोनों पर उन्हें जीत मिली। इस तरह से इन दो इलाकों में उन्हें कुल 7 सीटें मिलीं।
पालीगंज और डुमराँव में यादव जनसँख्या 20% से अधिक है। इससे पता चलता है कि राजद का कोर वोट (क्योंकि वो जाति के आधार पर ही लड़ती है) उन्हें ट्रांसफर हुआ। वामपंथियों ने बस अपने पुराने गढ़ में राजद के कोर वोट्स जोड़ कर जीत पाई है और लोजपा जैसी पार्टियों ने समीकरण उनके पक्ष में किया, न तो उनकी कोई लहर थी और न ही ये उनके पुनर्जीवित होने की निशानी है। और हाँ, CPI व CPM का बाजार ख़त्म है, जो भी सफलता है वो CPI (ML) की। बिहार चुनाव में यही वामपंथियों को इतनी सीटें मिलने का कारण भी है।