जम्मू-कश्मीर में आगामी विधानसभा चुनाव एक महत्वपूर्ण मोड़ पर हैं, जहाँ पारंपरिक राजनीतिक दलों के लिए कई चुनौतियाँ उभर कर सामने आ रही हैं। खासतौर पर नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) जैसी पार्टियों के लिए यह चुनाव उनके राजनीतिक भविष्य का लिटमस टेस्ट साबित हो सकता है। इन चुनावों में इस्लामी आतंकियों और बुरहान वानी जैसे आतंकवादियों को हीरो मानने वाले सरजन बरकती जैसों के प्रभाव का आकलन भी किया जाएगा, जो कि राज्य की जनता और राजनीतिक दलों दोनों के लिए एक गंभीर चुनौती बन सकता है।
गांदरबल, जिसे अब्दुल्ला परिवार का पारंपरिक गढ़ माना जाता है, इस बार चुनावी संघर्ष का केंद्र बन गया है। इस क्षेत्र में उमर अब्दुल्ला को न केवल बाहरी दलों बल्कि स्थानीय नेताओं से भी कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। जहाँ एक ओर यह क्षेत्र हमेशा से नेशनल कॉन्फ्रेंस का मजबूत किला रहा है, वहीं दूसरी ओर इस बार के चुनावी समीकरण पहले से काफी जटिल हो गए हैं। स्थानीय मुद्दों पर जनता की बढ़ती असंतुष्टि और नई राजनीतिक धारणाओं ने उमर अब्दुल्ला के लिए इस बार की लड़ाई को और कठिन बना दिया है।
इस्लामी आतंकियों और बुरहान वानी जैसे चरमपंथियों का प्रभाव भी इन चुनावों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। 2016 के बाद से, जब बुरहान वानी को सुरक्षा बलों ने मार गिराया था, जम्मू-कश्मीर की राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन देखने को मिला। वानी को हीरो के रूप में प्रस्तुत करने वालों और इस्लामी आतंकवाद को समर्थन देने वाले तत्वों का प्रभाव चुनावी राजनीति पर भी पड़ सकता है। इस परिस्थिति में, अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवारों के लिए यह चुनौती और भी गंभीर हो जाती है, क्योंकि उन्हें न केवल अपने पारंपरिक वोट बैंक को बनाए रखना है, बल्कि इन नए उभरते तत्वों से भी मुकाबला करना है।
सरजन अहमद वागे, जिसे “सरजन बरकती” के नाम से जाना जाता है, का राजनीति में प्रवेश भी इस चुनाव को और रोचक बना रहा है। बुरहान वानी के मारे जाने के बाद साल 2016 घाटी 3 माह तक सुलगती रही थी और विरोध प्रदर्शन चलता रहा था। उस आंदोलन के दौरान अपने “आजादी” के नारे के लिए मशहूर सरजन बरकती ने अब चुनावी मैदान में कदम रखा है। उसने पहले जैनपोरा विधानसभा सीट से नामांकन कराया था, जो 28 अगस्त को खारिज हो गया।
जैनपोरा से नामांकन खारिज होने के बाद बरकती ने गांदरबल से चुनाव लड़ने की घोषणा की है। जेल में रहते हुए ही उसके नामांकन से ये साफ हो गया है कि इस सीट पर इस्लामिक आतंकवादियों के कितने समर्थक हैं और आतंकवादियों से सहानुभूति कितने लोग रखते हैं, ये भी सामने आ जाएगा। वैसे, बरकती का चुनावी राजनीति में प्रवेश, नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के लिए एक और सिरदर्द बन सकता है, खासकर जब वह उन लोगों का समर्थन पा सकता है, जो जो चरमपंथी विचारधाराओं के करीब हैं।
उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती के लिए इन चुनावों में सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे कैसे अपने पारंपरिक वोट बैंक को बनाए रखें और साथ ही उन नए वोटरों को भी आकर्षित करें जो चरमपंथी विचारधाराओं या स्थानीय मुद्दों पर अधिक जोर दे रहे हैं। अनुच्छेद 370 के हटाए जाने के बाद से जम्मू-कश्मीर की राजनीति में काफी बदलाव आया है, और इस बदलाव का सीधा असर इन चुनावों पर पड़ेगा।
राजनीतिक मामलों के जानकार बिलाल बशीर ने कहा कि गांदरबल विधानसभा क्षेत्र मे कुल 1.30 लाख मतदाताओं में 90 प्रतिशत ग्रामीण है। इस इलाके में गुज्जर-बक्करवाल समुदाय भी हैं। शेख अब्दुल्ला और उसके बाद फारूक से जुड़े रहे उम्रदराज मतदाताओं का अभी भी पार्टी से जुड़ाव हो सकता है पर युवाओं की सोच अलग है। वे अन्य दलों में भी रुचि लेते हैं। पाँच अगस्त 2019 के बाद स्थिति काफी बदल चुकी है।
सुरक्षा स्थिति भी एक बड़ा मुद्दा बनी हुई है। क्षेत्र में बढ़ती अशांति और हिंसा ने लोगों के बीच निराशा पैदा की है, जिससे अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवारों के लिए अपने पारंपरिक वोट बैंक को बनाए रखना और भी कठिन हो गया है। इसके अलावा, चुनावी मैदान में बढ़ती प्रतिस्पर्धा और स्थानीय मुद्दों पर जनता की नाराजगी ने इन दोनों नेताओं के लिए चुनावी संघर्ष को और भी चुनौतीपूर्ण बना दिया है।
इस चुनाव में जीत या हार का सीधा असर जम्मू-कश्मीर की राजनीति पर पड़ेगा, और यह देखना दिलचस्प होगा कि इस बार की चुनावी जंग में किसका पलड़ा भारी रहेगा। क्या अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार अपने पारंपरिक गढ़ों को बचा पाएँगे, या फिर नए राजनीतिक चेहरे और विचारधाराएँ इन किलों को ध्वस्त कर देंगी? यह चुनाव न केवल राज्य की जनता के विचारों का लिटमस टेस्ट होगा, बल्कि जम्मू-कश्मीर की राजनीति में एक नया अध्याय भी जोड़ सकता है।