सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को नामित सदस्य के तौर पर राज्यसभा का सदस्य बनाने का ऐलान हुआ है। फैसले का ऐलान होते ही कॉन्ग्रेस पार्टी के अलावा असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेताओं की ओर से मोदी सरकार पर न्यायपालिका की स्वतंत्रता के साथ खिलवाड़ करने का आरोप लगाया गया। आज कॉन्ग्रेसियों द्वारा संविधान व सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को लेकर जो छटपटाहट दिख रही है, उसका सिर्फ एक कारण है और वह यह है कि पिछले 5 दशकों में यह पहली बार है, जब सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश कॉन्ग्रेस के प्रभाव से बाहर है।
बता दें कि रंजन गोगोई से पहले भी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश राज्यसभा की शोभा बढ़ा चुके हैं। अंतर सिर्फ इतना है कि गोगोई जहाँ नामित सदस्य के तौर पर राज्यसभा के सदस्य बने हैं, वहीं पहले वाले जज कॉन्ग्रेस पार्टी के टिकट पर राज्यसभा पहुँचे थे।
हम यहाँ बात कर रहे हैं सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बहरुल इस्लाम की। बहरुल इस्लाम सुप्रीम कोर्ट के जज थे, जिन्होंने राज्यसभा की शोभा बढ़ाई थी। बहरुल इस्लाम की कहानी बड़ी रोचक है। वे जब सुप्रीम कोर्ट में वकालत करते थे, तब उन्हें 1962 में पहली बार असम से कॉन्ग्रेस पार्टी ने राज्यसभा भेजा। उसके बाद दूसरी बार 1968 में उन्हें राज्यसभा भेजा गया लेकिन इसके पहले कि वो 6 साल का अपना कार्यकाल पूरा कर पाते, उन्हें तब के असम और नागालैंड हाईकोर्ट (आज के गुवाहाटी हाईकोर्ट) का जज बनाया गया। जज बनते ही उन्होंने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया। 1983 में सुप्रीम कोर्ट के जज से रिटायर होने के तुरंत बाद उन्हें तीसरी बार कॉन्ग्रेस पार्टी ने राज्यसभा भेज दिया।
उन्होंने 1951 में असम हाई कोर्ट के वकील के रूप में और 1958 में सुप्रीम कोर्ट के वकील के रूप में काम किया। इसी बीच उन्होंने 1956 में कॉन्ग्रेस का दामन थाम लिया। इसके बाद अप्रैल 1962 में वह राज्यसभा के सदस्य के रूप में चुने गए। इसके बाद 1967 में वो कॉन्ग्रेस के टिकट पर लड़े, मगर पराजित हो गए। फिर 1968 में दोबारा राज्यसभा सदस्य के रूप में निर्वाचित हुए। कॉन्ग्रेस के विभाजन के दौरान वह इंदिरा गाँधी के गुट से जुड़ गए। 1972 में उन्होंने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया और गुवाहाटी हाईकोर्ट के जज बने।
हाई कोर्ट के मुख्य जज से रिटाटर होने के बाद एक मार्च 1980 को फिर सक्रिय राजनीति में चले आए। नौ महीने के रिटायटरमेंट के बाद वह सुप्रीम कोर्ट के जज बने। वह 1 मार्च 1980 को रिटायर हो गए थे। उस समय इंदिरा गाँधी वापस सत्ता में आ गई थीं। वो प्रधानमंत्री थीं। इंदिरा गाँधी ये सहन नहीं कर सकीं कि एक कॉन्ग्रेसी नेता रिटायर हो गए, जो कि एक जज के रूप में उनके लिए काफी मददगार थे। तो इंदिरा गाँधी ने हाई कोर्ट के जज के रूप में रिटायर होने के 9 महीने बाद फिर से उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज बनाया।
उन्हें 4 दिसंबर 1980 को सुप्रीम कोर्ट में जज के तौर पर नियुक्त किया गया था। हालाँकि एक रिटायर जज का इस तरह फिर से जज बनाने का फैसला काफी अजीब और अद्वितीय भी था, क्योंकि आम तौर पर एक रिटायर जज को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त नहीं किया गया था और आगे वे केवल पंद्रह महीनों के बाद रिटायर हो सकते थे। सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने के एक महीने पहले उन्होंने 12 जनवरी 1983 को इस्तीफा दे दिया और कॉन्ग्रेस के बारपेटा लोकसभा सीट से चुनाव लड़े।
बहरुल इस्लाम पूरी तरह से कॉन्ग्रेसी थे और उन्हें कॉन्ग्रेसियों के खिलाफ मुकदमों में कानून और न्याय की ऐसी की तैसी करके बचाने में महारत हासिल थी। सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में उन्होंने बिहार के उस समय के कॉन्ग्रेस सीएम जगन्नाथ मिश्रा के खिलाफ जालसाजी और आपराधिक कदाचार के मामले में क्लीन चिट देते हुए उनके खिलाफ मुकदमा चलाने से मना कर दिया था।
अपनी रिटायरमेंट के 6 हफ्ते पहले और बिहार के तत्कालीन कॉन्ग्रेसी मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा को जालसाजी मामले में क्लीन चिट देने के एक महीने बाद, उन्होंने सुप्रीम कोर्ट जज के पद से इस्तीफा दे दिया और 1983 में बारपेटा लोकसभा सीट के लिए कॉन्ग्रेस उम्मीदवार के रूप में नामांकन दाखिल किया। हालाँकि असम की अशांति की वजह से वहाँ का चुनाव टल गया तो कॉन्ग्रेस ने उन्हें तीसरी बार राज्यसभा का सदस्य बनाया।