अजरबैजान की राजधानी बाकू में हाल ही में एक समझौता हुआ है। यह समझौता संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन वाली शाखा ने COP-29 बैठक में करवाया है। इसके तहत विश्व के विकसित और अमीर देश राजी हुए हैं कि वह 300 बिलियन डॉलर 2035 से विकासशील या गरीब देशों को देना चालू करेंगे। यह पैसा जलवायु परिवर्तन से रोकने के लिए निर्धारित किए गए लक्ष्य प्राप्त करने को दिया जाएगा। भारत ने इस समझौते पर नाराजगी जताई है। उसने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया है।
क्या है समझौता?
अज़रबैजान की राजधानी बाकू में COP 29 की एक बैठक हुई है। COP 29 की इस बैठक में समझौता हुआ है कि विकसित और अमीर देश मिल कर हर साल 300 बिलियन डॉलर (लगभग ₹25.29 लाख करोड़) देंगे। 300 बिलियन डॉलर का यह लक्ष्य 2035 तक प्राप्त किया जाएगा। अभी यह नहीं साफ़ है कि यह पैसा किस साल से देना चालू किया जाएगा।
पहले यह अमीर और विकसित देश मात्र 100 बिलियन डॉलर देने पर ही राजी थे। हालाँकि, लम्बी बातचीत और बैठकों के बाद यह देश 300 बिलियन के आँकड़े तक पहुँचे। इस फैसले को यूरोपियन देशों ने क्रांतिकारी बताया है। उन्होंने कहा है कि इससे दुनिया में जलवायु परिवर्तन को रोकने में मदद मिलेगी और गरीब देशों की सहायता भी होगी।
वहीं दक्षिणी ध्रुव में स्थित देशों (अफ्रीका, एशिया और दक्षिण अमेरिका) ने इस समझौते को आधा-अधूरा बताया है। यह देश माँग कर रहे थे कि उन्हें 1.3 ट्रिलियन डॉलर (100 लाख करोड़ से अधिक) दिए जाएँ। हालाँकि, यह देश इस पर राजी नहीं हुए।
यह पैसा इन देशों को या तो कर्ज या फिर किसी प्रोजेक्ट में लगाने के लिए सहायता के तौर पर दिया जाएगा। यह पैसा वह सभी विकसित देश दे रहे हैं जिनके 19वीं, 20वीं और 21वीं शताब्दी में जरूरत से कहीं ज्यादा कोयला, तेल और बाकी ईंधन उपयोग करने समेत पेड़ काटने के कारण आज विश्व इस जलवायु की समस्या में फंसा हुआ है।
पैसा देने को राजी हुए अधिकांश देश यूरोप से ताल्लुक रखते हैं। हालाँकि, यह पैसा तब ही दिया जाएगा जब विकासशील या गरीब देश अपना कार्बन उत्सर्जन घटाएंगे और लक्ष्य प्राप्त करेंगे। विकसित देशों द्वारा दिए गए इन पैसों का इस्तेमाल अक्षय या स्वच्छ ऊर्जा के प्रोजेक्ट लगाने में किया जाएगा।
विकसित देशों का कहना है कि उन्होंने पहले 100 बिलियन डॉलर का वादा किया था जो कि 2022 में पूरा कर लिया गया था। भारत समेत बाकी विकासशील देश इस दावे को नहीं मानते हैं। उनकी नए समझौते पर भी सहमति नहीं है।
भारत क्यों हुआ नाराज?
इस समझौते के दौरान बाकू में मौजूद भारतीय प्रतिनधि चाँदनी रैना ने इसका जम कर विरोध किया। चाँदनी रैना ने इस समझौते को लेकर कहा, “भारत इस समझौते को वर्तमान स्वरूप को स्वीकार नहीं करता है। जितना पैसा जुटाने की बात की गई है, वह काफी कम है और एक मामूली धनराशि है। यह ऐसा समझौता नहीं है जिससे हमारा देश अपने अस्तित्व के लिए आवश्यक जलवायु एक्शन लिया जा सके।”
भारत ने यह समझौता करने के तरीके पर भी सवाल खड़े किए। भारत ने कहा कि सब कुछ पहले ही मैनेज किया जा चुका था और बाकू में ना किसी की सहमति ली गई और ना ही उनकी समस्याएँ सुनी गईं। इसे बजाय जल्दबाजी में समझौता कर दिया गया। भारत को समझौता होने से पहले बयान की अनुमति ना मिलने पर भी रोष जताया। भारत ने कहा कि हमने सभी जिम्मेदार संस्थाओं को इस मामले में सूचित कर दिया था लेकिन हमारी बात नहीं मानी गई।
भारत का समर्थन नाइजीरिया समेत बाकी देशों ने भी किया। नाइजीरिया ने इस समझौते में स्वीकार की गई 300 बिलियन डॉलर की धनराशि को एक मजाक करार दिया है। कई छोटे देशों ने भी भारत का समर्थन किया है। कई छोटे द्वीपीय देशों ने भी इस पूरे समझौते पर प्रश्न खड़े किए हैं।
क्यों बेईमानी जैसे हैं ये समझौते?
जलवायु परिवर्तन को लेकर मचे हो-हल्ले के बीच यह बात ध्यान देना जरूरी है कि इनमें सबसे अधिक नुकसान विकासशील देशों का ही है। विकासशील देशों ने ही इस समस्या को जन्म दिया है। अपने देशों को औद्योगिक ताकत बनान के लिए अमेरिका, फ़्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी समेत तमाम देशों ने दुनिया भर में जंगल काटे, खूब तेल और गैस जलाई।
उन्होंने कोयले का भी भरपूर तरीके से इस्तेमाल किया। इसके जरिए उन्होंने अपने नागरिकों का जीवन स्तर बढ़ाया और अब जब उनकी समस्याएँ हल हो चुकी हैं, तब वह दूसरे देशों को ऐसा नहीं करने देना चाहते हैं। उनको भारत एवं उसके जैसे बाकी विकासशील देशों के कोयले अथवा जीवाश्म ईंधन का उपयोग करने पर समस्या है।
पश्चिमी देश भारत, चीन, नाइजीरिया और ब्राजील जैसे देशों पर दबाव बना रहे हैं कि वह अब कोयला और ऐसे ही बाकी ईंधनों का इस्तेमाल ना करें। उनका भारत पर दबाव है कि वह अभी से ही महँगी ऊर्जा की तरफ जाएँ। भारत की अर्थव्यवस्था अभी ऐसी स्थिति में नहीं है कि वह पूरी तरह हरित ऊर्जा में बदल सके।
भारत तेजी से हरित ऊर्जा की तरफ बढ़ रहा है लेकिन इसमें समय लगने वाला है। पश्चिमी देश यह पैसा देकर विकासशील देशों से उनका ऊर्जा का अधिकार तो छीन ही रहे हैं, वह अपनी जिम्मेदारी से भी भाग रहे हैं।