Monday, October 7, 2024
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अहमद मसूद: ‘पंजशीर के शेर’ का वो बेटा… जो लंदन में पढ़ा, अब तालिबानी शासन से मुक्त करा रहा जिला दर जिला

अहमद मसूद की पूरी शैक्षणिक पृष्ठभूमि को देखने के बाद यह साफ़ हो जाता है कि उन्हें अफगानिस्तान में आगामी संघर्ष का पूर्वानुमान था और उन्हें यह भी पता था कि अंततः एक बार फिर उन्हें तालिबान के खिलाफ संघर्ष का नेतृत्व करना होगा।

अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के बाद उसके विरोध में दो नाम सामने आ रहे हैं। एक अफगानिस्तान के कार्यवाहक राष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह का, जिन्होंने राष्ट्रपति अशरफ गनी के देश छोड़ने के बाद खुद को कार्यवाहक राष्ट्रपति घोषित कर दिया। अहमद मसूद – यह दूसरा नाम है, वर्तमान परिस्थिति में पहले वाले से ज्यादा अहम।

कौन हैं अहमद मसूद? ‘पंजशीर के शेर’ कहे जाने वाले अफगानी कमांडर अहमद शाह मसूद के बेटे हैं अहमद मसूद। अहमद मसूद तालिबान के खिलाफ मोर्चाबंदी में जुटे हुए हैं। ऐसे में अफगानिस्तान के घटनाक्रम पर नजर रखे हुए पूरी दुनिया देखना चाहती है कि क्या अहमद मसूद अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ा पाएँगे?

पिता के हत्यारों के खिलाफ आंदोलन खड़ा करना उद्देश्य

अहमद मसूद जब 12 साल के थे, तब तालिबान और अलकायदा ने षड्यंत्र करके उनके पिता अहमद शाह मसूद की हत्या कर दी थी। उनकी हत्या 9/11 के आतंकी हमले से पहले की गई थी। अफगानिस्तान की राजधानी काबुल से करीब 100 किलोमीटर (किमी) दूर पूर्वोत्तर में स्थित पंजशीर, शुरुआत से ही तालिबान के विरोध का केंद्र रहा।

पंजशीर ही वो जगह है, जहाँ शाह मसूद के नेतृत्व में सन् 1996 में तालिबान विरोधी आंदोलन खड़ा हुआ था। शाह मसूद के प्रयासों का ही परिणाम है कि आज भी जब तालिबान ने पूरे अफगानिस्तान पर अपना कब्जा जमा लिया है, तब पंजशीर ही एकमात्र ऐसा प्रांत है, जो तालिबान के कब्जे से बाहर है।

जब शाह मसूद की हत्या हुई थी, तब अहमद मसूद एक बच्चे थे फिर भी उन्होंने अपने पिता को तालिबान के खिलाफ संघर्ष करते और उसके लिए रणनीति बनाते हुए करीब से देखा और समझा था। अब फिर से अफगानिस्तान की परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनी हैं कि 32 वर्षीय अहमद मसूद तालिबान के विरोध का मोर्चा सँभालने के लिए तैयार हैं और इसके लिए उन्होंने काम भी शुरू कर दिया है। अहमद मसूद, पंजशीर प्रांत में कार्यवाहक राष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह के साथ मिलकर तालिबान विरोधी आंदोलन को पुनर्जीवित करने में लगे हुए हैं।

अफगानी समस्या और तालिबान से निपटने का अनुभव

1989 में जन्मे अहमद मसूद ने ईरान से अपनी स्कूली शिक्षा प्राप्त की लेकिन बाद में उनका शैक्षणिक जीवन अंतरराष्ट्रीय राजनीति और युद्ध रणनीति के अध्ययन पर केंद्रित रहा। ईरान से स्कूल की शिक्षा ख़त्म करने के बाद अहमद मसूद ने ब्रिटिश आर्मी मिलिट्री एकेडमी से मिलिट्री कोर्स किया और लंदन के किंग्स कॉलेज से वॉर स्टडीज में बैचलर डिग्री ली। इसके बाद उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन से इंटरनेशनल पॉलिटिक्स में मास्टर डिग्री भी ली।

अहमद मसूद की इस पूरी शैक्षणिक पृष्ठभूमि को देखने के बाद यह साफ़ हो जाता है कि उन्हें अफगानिस्तान में आगामी संघर्ष का पूर्वानुमान था और उन्हें यह भी पता था कि अंततः एक बार फिर उन्हें तालिबान के खिलाफ संघर्ष का नेतृत्व करना होगा। हालाँकि इसकी शुरुआत उन्होंने 2019 में ही कर दी थी, जब उन्होंने नेशनल रेसिस्टेंस फ्रंट ऑफ अफगानिस्तान का गठन किया गया था। यह ठीक वैसा ही हैस जैसे सन् 1996 के दौरान नॉर्दर्न अलायंस था, जिसने तालिबान से संघर्ष शुरू किया था और अहमद मसूद के पिता भी इसी आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे।

‘पता था कि ये दिन जरूर आएगा’

वाशिंगटन पोस्ट के लिए लिखे गए अपने लेख में अहमद मसूद ने कहा, “मैं उन मुजाहिदों के साथ मिलकर अपने पिता के पदचिन्हों पर चलने के लिए तैयार हूँ, जो एक बार फिर तालिबान के खिलाफ संघर्ष के लिए तैयार हैं। हम अपने पिता के समय से ही हथियार और आवश्यक संसाधन जुटाते आ रहे हैं क्योंकि हमें पता था कि यह दिन जरूर आएगा।”

अहमद मसूद ने लिखा कि उनके पास अफगानी सेना के हथियार भी हैं और उनकी अपील पर अफगानिस्तान की सेना के वैसे कई वर्तमान और पूर्व सैनिक भी तालिबान के खिलाफ संघर्ष में साथ आना चाहते हैं, जो अफगानी कमांडर्स के द्वारा तालिबान के आगे सरेंडर किए जाने से व्यथित हैं।

अहमद मसूद का कहना है कि वो और उनकी नेशनल रेसिस्टेंस फोर्स तालिबान के खिलाफ जरूर लड़ेंगे और विरोध का झंडा भी लहराया जाएगा लेकिन उन्हें इसके लिए बाकी देशों की सहायता की आवश्यकता भी होगी। अहमद का कहना है कि भले ही अमेरिका ने उन्हें युद्धभूमि में अकेला छोड़ दिया हो लेकिन अभी भी अमेरिका, अफगानिस्तान में लोकतंत्र की बहाली में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

तालिबानी शासन से 3 जिले मुक्त

अफगानिस्तान में तालिबान विरोधी गुटों ने मुल्क के कुछ जिलों को कब्जे से छुड़ा लिया है। इस लड़ाई में लगभग 60 तालिबानी मारे भी गए हैं। तालिबान के साथ हुई लड़ाई के बाद पब्लिक रेजिस्टेंस फोर्सेज ने बघलान प्रांत के तीन जिलों- बानू, पोल-ए-हेसर और डेह सलाह को अपने कब्जे में ले लिया है।

पोल-ए-हेसर जिला काबुल के उत्तर में पंजशीर घाटी के करीब स्थित है। पंजशीर घाटी हिंदूकुश पर्वत के नजदीक है। यह इकलौता ऐसा प्रांत है जिस पर तालिबान आज तक नियंत्रण नहीं कर सका है। बताया जाता है कि तालिबान विरोधी यहाँ इकट्ठे हो रहे हैं। अफगानिस्तान के उप-राष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह जिन्होंने तालिबान के आगे घुटने टेकने से इनकार करते हुए खुद को कार्यवाहक राष्ट्रपति घोषित किया था, उनके भी यहीं होने की खबर है।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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