चुनाव हो गया, जीत हो गई, विश्लेषण हो गए। पार्टियों के विश्लेषण, जीत के फ़ैक्टर (जो आम तौर पर परिणाम के बाद सबको समझ में आ जाते हैं!), महत्वपूर्ण सीटों पर चर्चा, किसकी योजना कहाँ सफल रही आदि हर बात कर दी गई। उसके बाद की कुछ अपेक्षित घटनाएँ जारी हैं जिसमें राहुल का इस्तीफा देना, ममता का इस्तीफा देना, किसी का इस्तीफा लेने वाला न मिलना… ये सब भी हो रहा है। बस बिहार में निर्लज्ज तेजस्वी यादव बपौती संपत्ति से प्रतीकात्मक इस्तीफा भी नहीं देना चाह रहा!
खैर, इन्हीं सब के बीच मेरे एक सहयोगी ने एक अलग विषय की तरफ ध्यान आकर्षित कराया कि मीडिया का गिरोह और पत्रकारिता का समुदाय विशेष जो चुनावों से पहले, चुनावों के दौरान, और चुनावों के बाद परिणाम तक जिस तरह के लेख लिख रहा था, क्यों न उसको देखा जाए। चूँकि ये सारे चोर चचेरे-मौसेरे भाई-बहन ही हैं, जो अपनी विलक्षण कल्पनाशीलता और गमले छूकर बिहार के गेहूँ की फ़सल के दानों का स्वास्थ्य बता देते हैं, तो सिर्फ एक प्रोपेगेंडा पोर्टल की बात करूँगा और आप वही तर्क बाक़ियों पर लगा सकते हैं।
जिस तरह के हेडलाइन और लेख प्रोपेगेंडा पोर्टल ‘द वायर’ पर पिछले कुछ महीनों में लिखे गए हैं, और जिस हिसाब से शत-प्रतिशत गलत साबित हुए हैं, उन्हें राहुल गाँधी से सीखते हुए एडिटर्स गिल्ड वाले गुप्ता जी के लौंडे शेखर गुप्ता को राजनैतिक पत्रकारिता से इस्तीफा देने की पेशकश कर देनी चाहिए जिसे गुप्ता जी, अपने आकाओं का अनुकरण करते हुए, नकार दें।
लेकिन सिद्धार्थ वरदराजन को ये पता नहीं होगा क्या? जिसके नाम का आधा हिस्सा वरदराज है, वो एक बात तो बिलकुल सही तरीके से जानता होगा कि ‘रसरी आवत जात ते सिल पर परत निशान’। वो ये बख़ूबी जानता होगा कि ये सारे विश्लेषण जो छप रहे हैं, वो गलत हैं, लेकिन विचारधारा की बुझती लौ को प्रज्ज्वलित भी तो रखना है! इसीलिए, चुनावों को प्रभावित करने के लिए एक से एक झूठ लगातार लिखे गए क्योंकि रस्सी के निशान छोड़ने के लिए फर्जीवाड़ा करते रहना बहुत ज़रूरी है।
चूँकि नाम का पहला हिस्सा सिद्धार्थ है तो ‘जड़मति होत सुजान’ से पहले के ही चरण में रह गए। ज्ञान हो जाता तो नाम शायद गौतम होता, लेकिन वो बात फिर कभी क्योंकि वो वैसे भी सिड हैं, सिद्धार्थ तो काफी पहले ही पीछे रह गया। जब ज्ञान अधकचरा हो, मंशा गलत हो, पत्रकारिता की जगह प्रोपेगेंडा करना हो, तो वही होता है जो इस पूरे चुनावी मौसम में ‘द वायर’ के साथ हुआ- मक़सद में पूर्ण असफलता।
चुनाव आयोग की मजबूरी है कि वो ओपिनियन पोल, एग्जिट पोल आदि चुनावों के दौरान दिखाने पर प्रतिबंध लगा देते हैं, लेकिन वो सबसे बड़े प्रोपेगेंडा मशीनरी को, मीडिया को, सत्ता के समर्थन या विरोध में सामग्री बनाने से नहीं रोक सकते। यही कारण है कि राहुल गाँधी की जमीनी हक़ीक़त यह है कि अमेठी से वो उखड़ गए लेकिन मीडिया के एक हिस्से ने उन्हें भगवान गणेश जैसे बुद्धिमान बताने में कसर नहीं छोड़ी। प्रधानमंत्री मोदी ने भी लगातार कई साक्षात्कार दिए जिसमें अपने सरकार की योजनाओं की बात की।
चूँकि राहुल इंटरव्यू देने में ‘दे दे प्यार दे’ से लेकर ‘नफ़रत करने वालों के सीने में प्यार भर दूँ’ जैसे गीतों के भाव में उलझे रह गए तो, मीडिया गिरोह के पत्रकारों ने सोचा कि इस महामूर्ख की दो उँगलियों से आँख फोड़ने की धमकी को आत्मा और परमात्मा वाले दर्शन के स्तर तक उठा दिया जाए। वही हुआ कि ‘चौकीदार चोर है’ का नारा लेकर घूमने राहुल गाँधी को गरिमा की मूर्ति बताया जाने लगा। लेकिन राहुल का दुर्भाग्य कि न तो वो बारिश में मंदिर में दिया जलाने जाते हैं, न ही मंदिर के पास पुस्तकालय है जिस पर हाथ फेर कर वो मोदी के ‘अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः’ सुन कर तीन ग्रंथों की रचना कर दें।
पत्रकारिता के समुदाय विशेष ने वैचारिक स्तर पर खूब क्रांतिकारी पत्रकारिता की। उन्होंने यह माहौल बनाने की कोशिश की कि भाजपा हर जगह हार जाएगी। लिखा गया कि बंगाल में भाजपा की जितनी औक़ात नहीं है, उससे ज्यादा का लक्ष्य रखा है। लिखा गया कि उत्तर प्रदेश में चालीस सीटें जानीं तय हैं। लिखा गया कि भाजपा हिन्दीभाषी राज्यों में 75 सीट गँवा सकती है। लिखा गया कि झारखंड में भाजपा कुछ सीटें हार जाएगी। दूसरे लेख में बताया गया कि कई सांसद विद्रोह कर रहे हैं और राज्य में सत्ताविरोधी लहर है। परिणाम आया तो भाजपा ने 12 की संख्या बचा ली।
इसके पीछे के तर्क आपको जानने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि कई बार पत्रकारिता में हेडलाइन लिखने के बाद लेख लिखे जाते हैं। बंगाल की बात करें तो बिना बंगाल गए ही, ‘द वायर’ का पत्रकार यह सोच लेगा कि वहाँ तो पंचायत चुनावों में भाजपा को करारी शिकस्त मिली थी। वो यह भूल जाएगा कि वहाँ बैलट से चुनाव हुए थे, और पूरा चुनाव धाँधली और हिंसा के बल पर संपन्न हुआ जहाँ एक तिहाई सीटों पर तृणमूल निर्विरोध जीती। जी, आज के समय में निर्विरोध जीती जहाँ छः लोगों की क्लास में तीन आदमी क्लास मॉनीटर बनना चाहता है।
बंगाल में ही विद्यासागर की मूर्ति तोड़ने के विवाद में वायर ने अपने निजी वरदराजन उच्च न्यायालय का प्रयोग करते हुए पता कर लिया कि भाजपा वालों ने ही मूर्ति तोड़ी और उनको इसका ख़ामियाज़ा चुनावों में भुगतना पड़ेगा। ये बात और है कि आज का वोटर ऐसी घटनाओं पर हमेशा दूसरा दृष्टिकोण लेकर चलता है कि केजरीवाल ने खुद ही थप्पड़ मरवाए होंगे, आतिशी ने ही पैंफलेट छपवाए होंगे, तृणमूल ने ही मूर्ति तोड़ी होगी ताकि लोगों का सेंटिमेंट उनकी तरफ हो जाए। लेकिन ऐसा होता नहीं, और लोग अपना ज़मानत तक नहीं बचा पाते।
आखिर वायर का शॉर्ट सर्किट पत्रकार फिर ऐसे क्यों लिखेगा? इसके पीछे कारण है। कारण यह है कि ये ग्राउंड रियालिटी ‘रिपोर्ट’ करने से कहीं ज्यादा ‘क्रिएट’ करने की कोशिश है। ये बंगाल के वोटरों को डराने की कोशिश है कि भाजपा का आना मुश्किल है, तुम घरों में रहो या तृणमूल को वोट दो। वही हाल उत्तर प्रदेश को लेकर हुआ कि चालीस सीटें जाएँगी। क्यों! क्योंकि सीधा गणित है सपा और बसपा का ब्ला-ब्ला-ब्ला! इस फ़ैक्टर को कौन काउंट करेगा कि जिस मायावती ने अपनी पहचान ही गेस्ट हाउस कांड को लेकर बनाई, और खुद को दलितों का मसीहा बताया, वही दलित कार्यकर्ता उसके निजी पॉलिटिक्स के कारण अपनी अस्मिता से समझौता कर लेगा?
वायर के पत्रकारों ने ये सब करने की ज़रूरत नहीं समझी। चूँकि तर्क और वास्तविकता से इनका कोई वास्ता है नहीं इसलिए वायर के पिक्सल को काला करते हुए लिख दिया गया कि कन्हैया बेगूसराय में आगे है। कारण बताया गया कि बेगूसराय को सिर्फ जाति और मज़हब के चश्मे से नहीं देखना चाहिए, वहाँ विचारधारा भी एक महत्वपूर्ण फ़ैक्टर रहा है। इस पत्रकार ने तो बाक़ायदा ‘ग्राउंड रियालिटी’ नामक मुहावरे का प्रयोग भी किया है।
जबकि, जमीनी हक़ीक़त से जितना दूर यह वाक्य है, उतनी ही दूरी से कन्हैया गिरिराज से हारा। बेगूसराय में जाति और मज़हब से कहीं ज़्यादा पार्टी की बात चलती है, लेकिन सिर्फ भाजपा के मामले में। ये मैंने दो महीने पहले लिखा था कि बेगूसराय का भूमिहार दूसरे मजहब के आदमी को सांसद बनाता है बशर्ते वो भाजपा का हो। वामपंथियों को लगातार बेगूसराय में नकारा जाता रहा है और कई चुनावों से वो विधानसभा में भी नहीं पहुँच पा रहे। लेकिन वायर का क्या है, वो तो वही लिखेगा जो उसे लिखना है। रिपोर्ट में ‘ग्राउंड रियालिटी’ लिख दो, वो रिपोर्ट तार्किक हो जाती है!
पहले फर्जी विश्लेषण किया गया कि हिन्दीभाषी राज्यों में भारी नुकसान होगा, फिर उसको आधार बना कर कहा गया कि बंगाल इस नुकसान की भरपाई नहीं करेगा। गणना का आधार 2014 का चुनाव था। ये कोई मूर्ख पत्रकार ही कर सकता है कि बीच में हुए विधानसभा चुनावों से लेकर, पंचायत चुनावों तक, बंगाल के दंगों ये त्रस्त हिंदुओं की स्थिति से रामनवमी, दुर्गा विसर्जन में सरकार की नौटंकी तक, वहाँ की वस्तुस्थिति को नकार दिया जाए। पाँच साल में बहुत कुछ बदल जाता है। एक एयर स्ट्राइक से कोई नेता पूरे देश में अपने पक्ष में लाखों वोटरों को कर लेता है। और वायर का पत्रकार 2014 के आधार पर 2019 के चुनावों का विश्लेषण करता है!
वैसे ही उत्तर प्रदेश का ‘अंडरकरेंट’ नापने वाले वायर ने भाजपा के विरोध में एक प्रचंड भूकंप की बात कही कि लोगों में उदासी है, क्रोध है और निराशा है। जब भी कोई पत्रकार ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है इसका सीधा मतलब है कि उसने तथ्यों से दुश्मनी पाल ली है और भावुक होकर, या धूर्तता से एक विचार को तथ्य बना कर रख रहा है। यहाँ इसी पत्रकार ने कह दिया कि भाजपा 15 से 25 सीटों में सिमट जाएगी। आप यह देखिए कि इनको अंदाज़ा लगाने में भी प्रतिशत का ख़्याल नहीं रहता। 80 सीटों में दस सीटों का रेंज लेकर ये अंदाज़ा लगाते हैं, फिर तो 542 में ये 90 सीटों का रेंज बना लेते कि भाजपा को 120-210 सीटें मिल सकती हैं! ऐसे ही लोग अपने पेशे में असफल होने पर सड़क किनारे नकली पत्थरों वाली अँगूठियाँ बेचते पाए जाते हैं और वो आपको देख कर बताते हैं कि एक बार आपके जीवन में संकट तो आया था।
उत्तर प्रदेश पर तो इन्होंने इतने लेख लिखे हैं, और इतने गलत हुए हैं मानो इनको टार्गेट मिला हो कि यूपी पर लगातार छापते रहो, जो मन में आए। लिखा गया है कि सवर्णों के भीतर उनके नेताओं को टिकट न मिलने के कारण क्षोभ है जो कि भाजपा के लिए मारक संकट पैदा कर सकती है। जानकार पत्रकार ने यहाँ तक लिख दिया कि किसी ने इस बात पर गौर नहीं किया जिस पर उसने किया। जबकि, समझदार व्यक्ति को समझना चाहिए कि कोई तो कारण रहा होगा कि किसी ने गौर नहीं किया!
बिहार के बारे में भी ये बुरी तरह से गलत हुए जहाँ भाजपा गठबंधन ने 40 में से 39 सीटों पर जीत पाई। इनके हिसाब से पिछले किसी भी चुनाव के हिसाब से भाजपा-जदयू-लोजपा गठबंधन के लिए जीत हासिल करना आसान नहीं होना था। महाराष्ट्र में भी इन्होंने शिवसेना-भाजपा गठबंधन पर सवाल उठाए और कॉन्ग्रेस को वापस आता दिखाया।
एक लेख में, जिस संगठन और कार्यकर्ताओं की हर बूथ तक की पहुँच की वजह से नवंबर 2018 से भाजपा के केन्द्रीय मंत्री और अध्यक्ष बार-बार भाजपा द्वारा अपने बूते पर 300 की संख्या पार करने की बात कर रहे थे, उस संगठन और भाजपा के कार्यकर्ताओं को ताल-मेल पर ‘द वायर’ के पत्रकार को संदेह होने लगा। वो लिखने लगे कि इनके बीच सब-कुछ ठीक नहीं है और इस चुनाव में वो सब खुल कर बाहर आने लगा है। ऐसा क्या देख लिया पत्रकार ने, यह तो नहीं पता लेकिन इनके फेफड़ों में कौन-सा पदार्थ है इसका मैं थोड़ा-बहुत अंदाज़ा लगा पा रहा हूँ। बेचारे दुःखी है कि संघ चाहता है कि भारत एक तानाशाही हिन्दू राष्ट्र बन जाए, लेकिन मोदी ऐसा होने नहीं देगा। ये तानाशाही हिन्दू राष्ट्र वाली बात मोहन भागवत ने इन्हें स्वयं फोन करके बताया होगा, ऐसा माना जा सकता है।
जैसे-जैसे चुनाव बढ़ते गए, इनका प्रोपेगेंडा फैलता गया। बीच में ‘अगर भाजपा को 220 सीटें मिलीं तो नितिन गडकरी बन सकते हैं प्रधानमंत्री’ से लेकर तमाम तरह की बातें की गईं। ये भाजपा को भीतर से तोड़ने की एक टुटपुँजिया कोशिश थी। इसके बाद ‘द वायर’ ने बताया कि कैसे विरोधी दल कर्नाटक की तरह राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा को सत्ता से बाहर रखने की कोशि करेंगे। यहाँ पत्रकार आशावादी दिखा जबकि ऐसा होने की आज़ादी उसे उसका पेशा देता नहीं। आप किस तरह के पत्रकार हैं अगर आप कर्नाटक की अभी की हालत देख कर उसी तरह की राजनीति राष्ट्रीय स्तर पर देखना चाहते हैं?
फिर ज्ञान की बातें भी लिखी गईं कि मोदी हर वो चीज है जो आपके माँ-बाप ने कहा होगा कि वैसा मत बनो। ये वाहियात बातें उसी स्तर का लीचड़पना है जिस स्तर में आपको राहुल गाँधी में भारत का भविष्य दिखता है और वो गरिमामय हो जाता है। ये वैचारिक स्तम्भ नहीं है, ये कुंठा है। ये घृणा है जिसे वायर का पत्रकार खुन्नस में लिख रहा है और फिर परिवार और वैल्यू सिस्टम को ले आता है। मेरी सलाह है कि ये पत्रकार अपना माता-पिता बदल ले, इसके जीवन में अच्छे दिन ज़रूर आएँगे।
हर तर्क गलत, हर भाव गलत, भावना और मंशा गलत, हर लेख गलत। ये है आपके ऑल्टरनेटिव जर्नलिज़्म के प्रकाश के तार। लेकिन ये रुकेंगे नहीं। ये इसी तरह के ‘हिट जॉब’ वाले विश्लेषण करते रहेंगे जिसका मक़सद बाउंड्री लाइन पर बैठे वोटरों को प्रभावित करना है। इनके वश में सब कुछ है। ये हर क्षेत्र में जा सकते हैं, ग्राउंड रिपोर्ट कर सकते हैं, बड़े सैम्पल साइज के साथ सर्वेक्षण कर सकते हैं, लेकिन करते नहीं।
वो इसलिए कि प्रोपेगेंडा लिखने के लिए बाहर जाना ज़रूरी नहीं है। समझदार पत्रकार पहले आँकड़े, तथ्य, विचार और सूचनाएँ इकट्ठा करता है, तब हेडलाइन बनाता है, ‘द वायर’ के कर्मचारी पहले कमोड पर बैठकर आइडिया सोचते हैं, और उसके हिसाब से तथ्य बनाते हैं, तर्क गढ़ते हैं, सूचनाएँ रचते हैं और विचार लिखते हैं।
सिद्धार्थ वरदराजन की नौटंकी चलती रहेगी क्योंकि पत्रकारिता के नाम पर यही हो ही रहा है। इनका गैंग एक वेल ऑयल्ड मशीन की तरह, बिना किसी अवरोध के लगातार प्रोपेगेंडा छापता रहेगा। इनको पता है कि सूचनाओं का एक नाम के साथ बाहर जाना ज़रूरी है, न कि उनका सत्य होना। सत्य और असत्य तो दृष्टिकोण भर हैं जो वायर के पत्रकार ऑन डिमांड मैनुफ़ैक्चर करते हैं। और यही लोग कहते हैं कि भारत मैंनुफैक्चरिंग सेक्टर में कुछ नहीं कर रहा!