जामिया के उपद्रवियों का मीडिया के लिबरल गिरोह विशेष से ऐसा गठजोड़ हुआ कि दिल्ली पुलिस को बदनाम करने के लिए काटा-छाँटा हुआ वीडियो जारी किया गया। मकसद था जामिया के दंगाइयों को पाक-साफ़ साबित किया जा सके और दिसंबर में हुई हिंसा का पूरा दोष दिल्ली पुलिस पर मढ़ा जा सके। क्यों? क्योंकि दिल्ली पुलिस केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन आती है, जिसके मुखिया अमित शाह हैं। पुलिसकर्मियों का ‘गुनाह’ इतना भर है कि उन्होंने उपद्रवियों के ख़िलाफ़ एक्शन लिया।
आप क्रोनोलॉजी समझिए। नकाब पहने छात्र बिना किताबें लिए बैठे हुए थे। एक अन्य वीडियो के जरिए उनकी पोल खुल गई, जिसमें देखा जा सकता है कि छात्र किताबें बंद कर के बैठे हुए थे और जैसे ही पुलिस आई, उन्होंने किताबें खोल कर पढ़ने का नाटक शुरू कर दिया। दूसरे वीडियो में देखा जा सकता है कि दरवाजे पर खड़ा एक छात्र नकाबपोशों को लाइब्रेरी के भीतर घुसा रहा है। हाथ में पत्थर और चेहरे पर नकाब- जामिया के लाइब्रेरी का ड्रेस कोड कुछ अजीब नहीं लग रहा?
अब दंगाई अगर कहीं छिपेंगे, तो क्या पुलिस वहाँ जाकर उन्हें चिह्नित नहीं करेगी? एक बार वो चिह्नित हो गए तो उन पर पुलिस कार्रवाई भी करेगी ही। इसीलिए, जामिया के उपद्रवियों ने काट-छाँट कर वीडियो रिलीज किया, ताकि उन्हें सहानुभूति मिल सके। तभी तो अमित मालवीय ने पूछा है कि जामिया के छात्रों की शिक्षा के लिए भारत सरकार प्रतिवर्ष 600 करोड़ रुपए ख़र्च करती है, बदले में ये छात्र क्या देते हैं? यानी, जामिया के एक छात्र पर सरकार एक साल में सवा 3 लाख रुपए ख़र्च करती है।
At Rs 599 crore, India spends Rs 3.23 lakh annually to educate one Jamia student… But what does the nation get in return? Riots?
— Amit Malviya (@amitmalviya) February 16, 2020
Good question to ask especially since India has approx 3.75 crore students across 51,650 odd higher educational institutes…https://t.co/RDsuOwL7A2
जब विडियो 29 सेकेंड से 49 सेकेंड का होते हुए अब 2 मिनट से ज़्यादा लम्बा आ गया है, जिसमें दंगाई और फ़सादी लौंडे लाइब्रेरी में पहुँचाए जा रहे हैं, कोई डायरेक्शन दे रहा है कि किधर जाना है, छुपना है, हाथों में पत्थर और गले में रुमाल का मास्क दिख रहा है, तब रवीश जी ने इंडिया टुडे के ‘एक और विडियो’ का लिंक डाला है। इस दोहरे रवैये पर सवाल तो पूछे जाएँगे। लेकिन इस आदमी से पूछना चाहिए कि क्या उसके पास अभी भी सही विडियो नहीं गया?
क्या यही छात्र लाइब्रेरी में छुपते हुए, इसी पुलिस पर आरोप लगाने के लिए भीतर जा कर आग ही लगा देती तो जिम्मेदारी किसकी होती? जब 15-16 दिसंबर को कुछ विडियो सामने आए थे, जिसमें कहीं भी पुलिस नहीं थी, और छात्र स्वयं ही टेबल आदि तोड़ते दिख रहे थे, तो ये सवाल उठा था कि इसमें पुलिस कहाँ है। साथ ही इस बात का अंदाज़ा पहले ही लग गया था कि अगर पुलिस घुसी भी होगी तो दंगाइयों का पीछा करते हुए घुसी होगी जो बाहर आग लगा कर, पत्थरबाजी करने के बाद लाइब्रेरी की तरफ भागे होंगे। अब यही सत्य साबित होती हुई दिख रही है।
आज विडियो में वही दिख रहा है। रवीश समेत कुछ लोगों का कहना है कि पुलिस डंडे क्यों मार रही है? भाई, हाथ में पत्थर ले कर घूमने वाले और बसों में आग लगाने वाले छात्र नहीं, फसादी होते हैं। उनसे अपराधियों की तरह ही निपटना चाहिए। उन्हें नियंत्रित करने के लिए लाठीचार्ज पुलिस को तब करना होता है जब मान-मनौव्वल की संभावना दंगाइयों की तरफ से खत्म हो जाती है। विडियो जैसे-जैसे बाहर आएँगे, सच भी सामने आता चला जाएगा।
अभी समय के साथ ऐसे और भी कुत्सित प्रयास किए जाएँगे। आज जामिया के दंगाइयों को बचाने के लिए प्रपंच खेला जा रहा है, बीते कल को जेएनयू के उपद्रवियों को बचाने के लिए भी ऐसा ही खेल किया गया था और आने वाले दिनों में शाहीन बाग़ के उपद्रवियों को गाँधीवादी बताने के लिए चल रहा प्रपंच भी और गहरा होगा। हर एक सरकार विरोधी हिंसा की वारदात में शामिल व्यक्ति को भारत का ‘स्वतंत्रता सेनानी’ साबित करने का प्रयास होता है, भले ही उसने पुलिस पर गोली चलाई हो या फिर आम लोगों पर पत्थर।