सदियों बाद अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फ़ैसला आया जिसका सभी ने स्वागत किया। फ़ैसले के साथ ही राम जन्मभूमि पर एक भव्य राम मंदिर के निर्माण का रास्ता भी साफ़ हो गया। लेकिन इस फ़ैसले के बाद, वामपंथी, इतिहासकारों, प्रोफेसरों के ऐसे कई बयान और शपथपत्र सामने आए हैं जो इन्होंने इलाहबाद हाईकोर्ट में दिए थे, ये इनके ज्ञान और कहीं न कहीं इनकी द्वारा शिक्षित छात्रों की भयावह तस्वीर उजागर करती है। वैसे इन सबने सोशल मीडिया पर भी इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपना दु:ख व्यक्त किया है।
ट्विटर यूजर @PeeliHaldi ने ट्विटर पर, वामपंथी इतिहासकारों द्वारा पेश किए गए कुछ हास्यास्पद प्रमाणों का उल्लेख किया।
Prof Meenakshi Jain read 5000+ pages long judgement by Hon’ble Sudhir Agarwal, J. and showed us surreal things..https://t.co/xlf1jLS7Hg
— Yellow पीतः (@PeeliHaldi) March 5, 2017
जेएनयू की एक प्रोफेसर सुवीरा जायसवाल ने स्वीकार किया कि वो बाबरी मस्जिद के बारे में कुछ नहीं जानती थीं। जब वह अस्तित्व में आई तो उसे यह नहीं पता था कि इस मुद्दे पर उन्हें जो भी जानकारी थी वह मीडिया रिपोर्ट्स और ‘हिस्टोरियंस रिपोर्ट टू द नेशन’ से मिली थी, जिसे अदालती कार्यवाही के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया था।
एक अन्य इतिहासकार एससी मिश्रा ने कोर्ट में कहा था कि उन्हें इस बात की जानकारी नहीं थी कि जज़िया क्या था। उन्होंने कहा, ”मुझे याद नहीं है कि जज़िया केवल हिन्दुओं पर लगाया गया था।” इसके आगे उन्होंने कहा, “मैंने बाबरी मस्जिद के निर्माण के बारे में कई किताबें पढ़ी हैं, लेकिन मुझे इस वक़्त किसी किताब का नाम याद नहीं है।”
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पीएचडी डिग्रीधारी सुशील श्रीवास्तव ने निष्कर्ष निकाला कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि मस्जिद किसी मंदिर को ध्वस्त करने के बाद बनाई गई थी, भले ही वह फारसी पढ़ या लिख नहीं सकते थे, अरबी नहीं पढ़ सकते थे और संस्कृत का भी ज्ञान उन्हें नहीं था। इसके लिए उन्होंने अपने ससुर एसआर फारूकी की मदद ली थी।
अगर यह सब विचित्र नहीं था, तो इसके आगे उन्होंने जो कहा उसे पढ़िए, “मुझे एपिग्राफी का कोई ज्ञान नहीं है। मुझे न्यूमिज़माटिक का कोई ज्ञान नहीं है। मैंने पुरातत्व में कोई विशेषज्ञता हासिल नहीं की। मैंने भूमि के सर्वेक्षण के बारे में कोई ज्ञान हासिल नहीं किया…”
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में एक सेवानिवृत्त प्रोफेसर सूरज भान ने भी श्रीवास्तव के बारे में बहुत कुछ कहा। उनका मानना है कि रामायण मूल रूप से तुलसी दास द्वारा लिखी गई थी। एक इतिहासकार के रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय के आरसी ठकरान ने “समाचार पत्रों और पत्रिकाओं को ज्ञान का स्रोत माना” और स्वीकार किया कि उन्होंने “इस संबंध में किसी इतिहासकार द्वारा एक पुस्तक नहीं पढ़ी।” ठकरान ने खुद को एक ‘फील्ड पुरातत्वविद्’ की बजाए ‘टेबल पुरातत्वविद्’ के रूप में वर्णित किया। ।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर डी मंडल ने कहा था, “मैं कभी अयोध्या नहीं गया। मुझे बाबर के के इतिहास का कोई विशेष ज्ञान नहीं है।” उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि उन्हें ‘यज्ञ’ या ‘वेद’ का अर्थ नहीं पता था। शायद इसकी जानकारी उन्हें JNU की पीएचडी (हैदराबाद विश्वविद्यालय) होल्डर सुप्रिया वर्मा से मिली।
सुप्रिया वर्मा के मुताबिक, “यह कहना ग़लत है कि ‘यक्ष’ या ‘यक्षी’ का संबंध केवल हिन्दू धर्मशास्त्र तक सीमित है। वास्तव में, यह बौद्ध धर्म से भी जुड़ा हुआ है।” इसके बाद, अपने शब्दों का रुख़ मोड़ते हुए उन्होंने कहा, “मैं यह नहीं कह सकती कि ‘यक्ष’ या ‘यक्षी’ शब्द बौद्ध धर्म की किस धार्मिक पुस्तक में उल्लेखित है।”
ग़ौर करने वाली बात यह है कि ये वो इतिहासकार हैं जिन्होंने राम मंदिर मामले पर अपना वामपंथी प्रोपेगेंडा फैलाने का काम किया। कोर्ट में दिए गए इनके बयानों से लोगों के भरोसे को ठेस पहुँचेगी और साथ ही इससे हमारे देश की शिक्षा प्रणाली के प्रति लोगों का विश्वास भी कम होगा। यह विश्वास करना लगभग मुश्किल है कि इस तरह के बयान शपथ के तहत एक संतुलित दिमाग वाले लोगों द्वारा दिए गए थे।
इससे भी अधिक चिंता का विषय यह है कि इन लोगों ने उन छात्रों को भी शिक्षित किया जो भविष्य में सैकड़ों लोगों को शिक्षित करेंगे। यह हमारी शिक्षा की स्थिति की एक भयानक तस्वीर को उजागर करता है। इससे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि वर्तमान सरकार को प्राथमिकता के आधार पर छात्रों को पढ़ाए जाने वाले इतिहास के पाठ्यक्रम में संशोधन की आवश्यकता क्यों है?
* इस रिपोर्ट में उपयोग की गई सभी तस्वीरों को @PeeliHaldi से लिया गया है।