चुनाव प्रचार के लिए केरल पहुँचे नेहरू को अपने आसपास जब बहुत सारे लाल झंडे दिखे, तो उन्होंने अपने बगल में बैठे शख्स से पूछा- क्या ये चीनी जंक्शन है? इसके बाद...
"वो राजनीतिक लोग ही थे, जो ये सब नहीं चाहते थे। उसमें खासकर कॉन्ग्रेस थी, जो उस हार के पीछे की कड़वी सच्चाई लोगों को नहीं बताना चाहती थी। जिसका खामियाजा हमारी सेना ने भुगता।"
'चाऊ-माओ' के बीच अपने लिए वैश्विक छवि तलाश रहे नेहरू ने कभी सीमा पर हो रही सैनिकों की मौत को लेकर जुबान नहीं खोली। उन्हें यह स्वीकार करते दशक बीत गए कि सीमा पर कुछ चिंताजनक हो रहा है।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी की माता जोगमाया ने भी पंडित नेहरू को एक भावपूर्ण पत्र लिखकर अपने पुत्र की मृत्यु की निष्पक्ष जाँच की माँग की थी। लेकिन, एक माँ की माँग को भी नहीं माना गया।
नेहरू ने तो मानो अपने आदर्श पश्चिमी देशों से भी कुछ नहीं सीखा। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जब सोवियत संघ मित्र राष्ट्रों के साथ खड़ा हुआ, तब उसने विचारधारा की परवाह नहीं की थी और वह पूँजीवादियों के साथ नजर आया।
वह असंतोष न चीन के कम्युनिस्टों के हक में होगा और न भारत के वामपंथियों और उनके पोषक कॉन्ग्रेस के। इसलिए, नानजिंग के प्रेसिडेंशियल पैलेस और जनपथ की बेचैनियाँ आज एक सी दिख रहीं।
भारत ने हाल ही में अक्साई चीन के इस क्षेत्र में सड़क निर्माण किया है। जिसका कि चीन की कम्युनिस्ट सरकार की ओर से काफी विरोध किया गया। सामरिक दृष्टि से यह क्षेत्र संवेदनशील है।