Sunday, October 13, 2024
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‘मैं एक महान दिवंगत आत्मा की माँ हूँ’: जब अब्दुल्ला के मित्र नेहरू ने बलिदानी मुखर्जी की माँ की माँग ठुकराई

"जंगल में शेर को आज तक किसी ने राजमुकुट पहनाया है? वह तो स्वयं राजा है। डॉक्टर मुखर्जी जहाँ होंगे, वो वहीं अपनी आभा बिखेरेंगे। वो जहाँ होंगे, वहाँ विद्वता की बात करते हुए राष्ट्रप्रेम पर बल देंगे।"

जब किसी की मौत होती है तो पुलिस जाँच करती है। किसी की मौत के साथ जब जनभावनाएँ जुड़ी हों या जाँच से कोई संतोषजनक निष्कर्ष न निकला हो तो स्वतंत्र एजेंसियों से जाँच की भी व्यवस्था है। लेकिन, जनसंघ के संस्थापक डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत की जाँच नहीं हो सकी।

मंगलवार (जून 23, 2020) को जब उनकी मौत को 67 साल होने आए हैं, देश सवाल तो पूछेगा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत की स्वंतंत्र जाँच क्यों नहीं कराई?

जून 2019 में भाजपा अध्यक्ष (तब कार्यकारी) जेपी नड्डा ने कहा था कि वो जवाहरलाल नेहरू ही थे, जिन्होंने डॉ मुखर्जी की मृत्यु की जाँच कराने से इनकार कर दिया था। बकौल नड्डा, इतिहास साक्षी है कि नेहरू ने पूरे देश की माँग को ठुकरा दिया था। बता दें कि हिन्दू राष्ट्रवाद के पुरोधाओं में से एक डॉ मुखर्जी ने ही 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी, जो बाद में भाजपा रूप में परिवर्तित हुआ।

श्यामा प्रसाद मुखर्जी की माता श्रीमती जोगमाया ने भी पंडित नेहरू को एक भावपूर्ण पत्र लिखकर अपने पुत्र की मृत्यु की निष्पक्ष जाँच की माँग की थी। लेकिन, एक माँ की माँग को भी नहीं माना गया। उनकी माँ जोगमाया ने नेहरू को भेजे पत्र में लिखा था कि वो एक महान दिवंगत आत्मा की माता हैं और ये माँग करती हैं कि स्वतंत्र व सक्षम व्यक्तियों द्वारा अविलम्ब एक पूर्णरूपेण निष्पक्ष और खुली जाँच होनी चाहिए।

उन्होंने आगे नेहरू को चेताते हुए कहा था कि यह एक महान दुःखान्त घटना है, जो स्वतंत्र भारत में घटी है और भारत की जनता ज़रूर निर्णय करेगी कि इसका कारण क्या था और इस बारे में आपकी सरकार ने क्या भूमिका निभाई? उन्होंने लिखा था कि किसी भी बड़े से बड़े व्यक्ति ने ही ये कृत्य क्यों न किया हो, क़ानून उसे सज़ा दे। साथ ही जनता सावधान हो जाए ताकि किसी और माँ को स्वतंत्र भारत में इस तरह से आँसू न बहाना पड़े।

डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 50 के दशक की शुरुआत में ‘एक विधान, एक प्रधान, एक निशान’ आंदोलन शुरू किया था। जम्मू कश्मीर में तब ‘प्रधानमंत्री’ का पद होता था। संविधान, झंडा और दूसरे राज्यों के लोगों के वहाँ न बसने का नियम तो हालिया अनुच्छेद 370 के प्रावधान निरस्त होने तक मौजूद थे। डॉ मुखर्जी इसी भेदभाव को ख़त्म करने के पक्ष्धर थे, जो तब असंभव सा लगता था। मई 11, 1953 को जम्मू कश्मीर में घुसने पर उन्हें गिरफ़्तार किया गया था।

श्रीनगर के जेल में ही उनकी मृत्यु हुई, जिसकी वजह हार्ट अटैक को बताया गया। तब शेख अब्दुल्ला कश्मीर के प्रधानमंत्री थे, जो उनके शव पर माल्यार्पण करने भी आए थे। अब जब पश्चिम बंगाल में भाजपा मजबूत बन कर उभर रही है और वहाँ अगले साल विधानसभा चुनाव में वामपंथी दलों के प्रभाव के बावजूद पहली बार कड़ी टक्कर होने जा रही है, डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी आज एक बार फिर से भारतीय राजनीति में प्रासंगिक हो उठे हैं।

तृणमूल कॉन्ग्रेस और वामपंथी कैडरों में इसकी छटपटाहट देखी जा सकती है क्योंकि मार्च 2018 में जिस तरह से कोलकाता में जाधवपुर यूनिवर्सिटी के माओवादी समर्थक छात्रों ने डॉ मुखर्जी की प्रतिमा को तोड़ डाला, उससे वामपंथी दलों की बेचैनी प्रदर्शित होती है। उससे कुछ दिनों पहले ही त्रिपुरा में भाजपा की सरकार बनने के बाद जनता द्वारा लेनिन की प्रतिमा गिराई गई थी। लेकिन, बंगाल में बंगाल के ही सपूत की प्रतिमा को भी वामपंथियों ने नहीं बख़्शा।

डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को जवाहरलाल नेहरू ने पहले अंतरिम केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किया था क्योंकि कॉन्ग्रेस और हिन्दू महासभा के अधिवेशन साथ-साथ होते थे और महात्मा गाँधी की भी यही सलाह थी। उनके बारे में एक बार दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने बड़ी अच्छी बात कही थी। उनकी पार्टी छोटी थी लेकिन वो बिना बनाए ही विरोधी दल के नेता बन गए थे। किसी ने डॉक्टर मुखर्जी से कहा कि आपको तो नेता बनाया नहीं गया है, चुना नहीं गया है फिर भी आप विरोधी दल के मान्य नेता कैसे?

उस समय युवा अटल बिहारी वाजपेयी ने इस प्रश्न का जवाब देते हुए कहा- “जंगल में शेर को आज तक किसी ने राजमुकुट पहनाया है? वह तो स्वयं राजा है। डॉक्टर मुखर्जी जहाँ होंगे, वो वहीं अपनी आभा बिखेरेंगे। वो जहाँ होंगे, वहाँ विद्वता की बात करते हुए राष्ट्रप्रेम पर बल देंगे।” जब डॉ मुखर्जी गिरफ़्तार हुए थे तब वाजपेयी उनके साथ ही थे। उन्होंने वाजपेयी को वापस भेज दिया था।

उन्होंने कहा था कि अटल जाओ और दुनिया को बताओ कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने परमिट सिस्टम को तोड़ दिया है। तभी तो उनके बलिदान के कुछ ही दिनों बाद नेहरू को कश्मीर में परमिट सिस्टम हटाने के लिए मजबूर होना पड़ा। तब क्षुब्ध अटल बिहारी वाजपेयी ने एक कविता लिख कर अपना दर्द प्रकट किया था। ‘जम्मू की पुकार‘ शीर्षक की इस कविता की कुछ पंक्तियाँ आज भी झकझोड़ती है:

अत्याचारी ने आज पुन: ललकारा, अन्यायी का चलता है दमन दुधारा।
आँखों के आगे सत्य मिटा जाता है, भारत माता का शीश कटा जाता है।
क्या पुन: देश टुकड़ों में बँट जाएगा? क्या सबका शोणित पानी बन जाएगा?
कब तक जम्मू को यों ही जलने देंगे? कब तक जुल्मों की मदिरा ढलने देंगे?
चुपचाप सहेंगे कब तक लाठी गोली? कब तक खेलेंगे दुश्मन खून से होली?
प्रह्लाद-परीक्षा की बेला अब आई, होलिका बनी देखो अब्दुल्लाशाही।
माँ-बहनों का अपमान सहेंगे कब तक? भोले पाण्डव चुपचाप रहेंगे कब तक?
आओ खण्डित भारत के वासी आओ, कश्मीर बुलाता, त्याग उदासी आओ?

जब डॉक्टर मुखर्जी ने अपना बलिदान दिया, तब अटल बिहारी वाजपेयी उनके राजनीतिक सचिव थे। वो तब तक सांसद भी नहीं बने थे और पत्रकारिता में अनवरत व्यस्त रहा करते थे। डॉक्टर मुखर्जी के बलिदान के बाद वीर सावरकर ने कहा था कि एक महान देशभक्त और महान सांसद शिष्ट नष्ट हो गया है। कहते हैं, उनके बलिदान के 8-9 महीनों बाद शेख अब्दुल्ला की गिरफ़्तारी से देश चकित हो गया था।

नेहरू और अब्दुल्ला अनन्य मित्र थे, ऐसे में लोग ये सवाल ज़रूर पूछ रहे थे कि क्या अगर डॉक्टर मुखर्जी का बलिदान नहीं हुआ होता तो शेख अब्दुल्ला की गिरफ़्तारी संभव होती? डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पाँच सूत्री माँगों में एक ये भी था कि पाकिस्तान से प्रताड़ित होकर आए हिन्दुओं और सिखों के रहन-सहन की व्यवस्था की जाए। आज दशकों बाद सीएए के रूप में उनका ये स्वप्न पूरा हुआ।

सरदार पटेल ने भी इस बात की भविष्यवाणी की थी कि जवाहरलाल नेहरू अब शेख अब्दुल्ला की मैत्री के मोहजाल में फँसे हुए हैं लेकिन समय आते ही उन्हें अब्दुल्ला का असली रंग दिख जाएगा। महाराजा हरि सिंह भी अब्दुल्ला के इस चाल-चरित्र से वाकिफ थे, तभी उन्होंने उसे जेल में बंद किया था। लेकिन, नेहरू भारत में सत्ता हस्तांतरण के दौर के बीच भी महाराजा का विरोध करने कश्मीर दौड़ पड़े – अपने मित्र अब्दुल्ला के लिए!

आज समय ने सिद्ध कर दिया है कि नेहरू गलत थे और श्यामा प्रसाद मुखर्जी व सरदार पटेल जैसे लोग दूरद्रष्टा थे। जब ‘स्टेचू ऑफ यूनिटी’ सरदार सरोवर बाँध के पास भारत का गर्व बन कर खड़ा है, अनुच्छेद 370 के प्रावधानों के निरस्त होने और सीएए के अस्तित्व में आने से पता चलता है कि डॉक्टर मुखर्जी की नीतियाँ भविष्य के भले के लिए थीं। अफ़सोस ये कि उनकी मृत्यु की निष्पक्ष जाँच नहीं हो सकी।

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अनुपम कुमार सिंह
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भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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