कश्मीरी पंडितों की जब हम बात करते हैं तो उसके दो पहलू हैं। एक पहलू कश्मीरी पंडित या कश्मीरी हिंदू है, तो वहीं दूसरे पहलू पर कभी बात नहीं होती। हम इनके दु:ख के बारे में बात करते हैं, लेकिन मुसलमानों के आतंक की बात नहीं करते। जबकि उल्टा होना चाहिए। इनका दु:ख तो ये जी ही रहे हैं, लेकिन जिन पर चर्चा होना चाहिए कि इन मुसलमानों ने क्या किया? उसका क्या? उस पर बात क्यों नहीं होती?
इसी तरह से एक पक्ष को चर्चा से गायब किया जाता है। आतंकियों के अपराधों पर, उसके दुष्कृत्यों पर हम कभी चर्चा नहीं करते। इसी तरह से एजेंडा पेश किया जाता है कि हम तो कश्मीरी पंडितों के साथ हैं, लेकिन क्या तुम मुसलमान आतंकियों के खिलाफ हो?
रवीश लिखते हैं, “इंसाफ का इंतजार लंबा हो ही गया है और शायद आगे भी हो, लेकिन चुप्पी उनके भीतर चुप रही।” रवीश इंसाफ दोगे कैसे इन लोगों को? जब तुम बात ही नहीं कर रहे हो कि किसने इनके साथ अपराध किया है, तो इंसाफ दोगे कैसे?
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