राहुल गाँधी ने 13 फरवरी को ट्विटर पर ऐलान किया कि कॉन्ग्रेस की सरकार बनते ही स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू कर दी जाएँगी। राहुल गाँधी ने इसे ‘न्याय के पथ पर पहली गारंटी’ करार दिया। खास बात ये है कि राहुल गाँधी ने ये ऐलान उस समय किया, जब किसान आंदोलन 2.0 शुरू हो चुका है और पंजाब-हरियाणा के किसानों ने दिल्ली की सीमाओं पर डट चुके हैं। राहुल गाँधी ने जिस बात का ऐलान किया है, और जिस समय किया है, वो ये बताता है कि किसान आंदोलन का कॉन्ग्रेस किस तरह से फायदा उठाना चाहती है। वैसे, इस लेख में हम न सिर्फ स्वामीनाथन आयोग के बारे में आपको बताएंगे, बल्कि ये भी समझाएंगे कि इससे क्या फायदे-नुकसान होंगे। इसके साथ ही एमएसपी क्या है? और किसानों की 24 फसलों वाली सूची पर एमएसपी लागू कर दिया जाए, तो उसके क्या नफा-नुकसान होंगे।
सबसे पहली बात, राहुल गाँधी ने किया क्या ऐलान?
राहुल गाँधी ने एक्स पर लिखा, “किसान भाइयों आज ऐतिहासिक दिन है! कॉन्ग्रेस ने हर किसान को फसल पर स्वामीनाथन कमीशन के अनुसार MSP की कानूनी गारंटी देने का फैसला लिया है। यह कदम 15 करोड़ किसान परिवारों की समृद्धि सुनिश्चित कर उनका जीवन बदल देगा। न्याय के पथ पर यह कॉन्ग्रेस की पहली गारंटी है।”
किसान भाइयों आज ऐतिहासिक दिन है!
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) February 13, 2024
कांग्रेस ने हर किसान को फसल पर स्वामीनाथन कमीशन के अनुसार MSP की कानूनी गारंटी देने का फैसला लिया है।
यह कदम 15 करोड़ किसान परिवारों की समृद्धि सुनिश्चित कर उनका जीवन बदल देगा।
न्याय के पथ पर यह कांग्रेस की पहली गारंटी है।#KisaanNYAYGuarantee
दरअसल, राहुल गाँधी जिस स्वामीनाथन आयोग की बात कर रहे हैं, उस आयोग का गठन कॉन्ग्रेस की यूपीए-1 सरकार ने किया था। 18 नवंबर को प्रोफेसर एम एस स्वामीनाथन की अगुवाई में बनाई गई इस कमेटी ने 5 हिस्सों में अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी। इस आयोग ने दिसंबर 2004 में पहली रिपोर्ट, अगस्त 2005 में दूसरी, दिसंबर 2005 में तीसरी और अप्रैल 2006 में चौथी रिपोर्ट सौंपी। पाँचवी और अंतिम रिपोर्ट 6 अक्टूबर 2006 को सौंपी गई, जिसमें किसानों को लेकर कई अहम बिंदुओं को शामिल किया गया था। इस रिपोर्ट में क्या कुछ था, वो हम आगे बताएँगे, अभी जानिए कि उस रिपोर्ट का क्या हुआ?
यूपीए-1 सरकार, जिसमें राहुल गाँधी सांसद थे, सोनिया गाँधी सुपर पीएम थी और कथित तौर पर किसानों, पिछड़ों, दलितों, मुस्लिम वोटरों की राजनीति करने वाली पार्टियाँ भी थी, साथ ही वो पार्टियाँ भी, जो खुद को कम्युनिष्ट बताते हुए नास्तिकता का प्रबल समर्थक बताती थी। उस समय ने 2007 में राष्ट्रीय कृषि नीति की घोषणा की थी, जिसमें प्रो एमएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट का कोई जिक्र नहीं था। ऐसा क्यों था? क्योंकि कॉन्ग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार ने आयोग की रिपोर्ट को अव्यवहारिक और बाजार को ‘हिला’ देने वाला माना और उसकी सिफारिशों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया।
वैसे, इसका खुलासा संसद में साल 2010 में हुआ, जब यूपीए-1 यूपीए-2 में बदल चुकी थी। उस समय बीजेपी के राज्यसभा सांसद और बाद में केंद्रीय मंत्री बने प्रकाश जावड़ेकर ने यूपीए-2 सरकार से संसद में पूछा था कि क्या स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू की गई हैं? अगर की गई हैं, तो उसके क्या प्रावधान हैं। अगर आयोग की सिफारिशों को लागू नहीं किया गया, तो इसके पीछे के कारण क्या हैं? इसका जवाब आया कृषि राज्य मंत्री की तरफ से, उस समय कृषि राज्य मंत्री केवी थॉमस थे।
संसद में लिखित में जवाब देते हुए केवी थॉमस ने कहा, “प्रो. एम एस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय किसान आयोग ने सिफारिश की है कि एमएसपी को उत्पादन की औसत लागत से कम से कम 50 प्रतिशत अधिक होना चाहिए। लेकिन इस सिफारिश को सरकार ने स्वीकार नहीं किया है। क्योंकि एमएसपी की सिफारिश कृषि लागत और मूल्य आयोग द्वारा कई मामलों पर विचार के बाद की जाती है। ऐसे में लागत पर कम से कम 50 प्रतिशत की बढ़ोतरी करना बाजार को प्रभावित कर सकता है। ऐसे में एमएसपी और उत्पादन लागत के बीच संबंध कुछ मामलों में प्रतिकूल हो सकता है।” और ये रही कॉन्ग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए-2 सरकार के जवाब की कॉपी…
This was the UPA Government’s response to a question whether the govt at the time had accepted recommendations of Swaminathan Commission regarding MSP pic.twitter.com/3ag8uD4wJU
— ANI (@ANI) February 14, 2024
अब सवाल ये आता है कि राहुल गाँधी उस आयोग की सिफारिशों को लागू करने की गारंटी क्यों दे रहे हैं? जिसे सरकार में रहते हुए खुद कॉन्ग्रेस ही नकार चुकी है। जबकि मौजूदा केंद्र सरकार ने एमएसपी में आने वाली फसलों की न सिर्फ संख्या बढ़ाई है, बल्कि एमएसपी भी लगातार बढ़ाई है। अब जिस स्वामीनाथन आयोग को लागू करने की बात की जा रही है, उसका फसलों की एमएसपी तय करने का फॉर्मूला क्या है? ये जानना भी बेहद जरूरी है। उससे पहले ये जान लीजिए कि एमएसपी क्या है और सरकार को किसान को फसल का मूल्य देने के बाद और कितना खर्च करना पड़ता है?
एमएसपी क्या है? ये कैसे तय होता है?
भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के अंतर्गत कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कोस्ट्स एंड प्राइसेस डिपार्टमेंट (सीएसीपी) एमएसपी तय करता है। एमएसपी का मतलब है-न्यूनतम समर्थन मूल्य। इसे अंग्रेजी में मिनिमम सपोर्ट प्राइस कहते हैं। मौजूदा समय में केंद्र सरकार 24 फसलों पर एमएसपी देती है। ये फसल की कीमत होती है, जिसे सरकार तय करती है। सरकार इसी दाम पर किसानों से अनाज खरीदती है, फिर उसे अपनी व्यवस्थाओं के माध्यम से गरीबों को सस्ते में बेचती है। एमएसपी तय होने के बाद सरकार जिस दाम में खरीदती है, उसका पूरा भुगतान वो सीधे किसान को करती है। लेकिन छोटी जोत वाले किसानों को इसका बहुत ज्यादा फायदा नहीं पहुँचता।
बहरहाल, मुद्दे पर आते हैं। सरकार जिस अनाज को किसान से खरीदती है, उसके बाद भी उस अनाज पर सरकार को काफी पैसा खर्च करना पड़ता है। ये खर्च फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया यानी एफसीआई के माध्यम से होता है। इसमें मंडी से गेहूँ की खरीद एमएसपी पर करने के बाद सरकार को लगभग 34 प्रतिशत पैसा बाकी के कामों में खर्च करना पड़ा है।
टीवी9 से बातचीत में एफसीआई के पूर्व अध्यक्ष आलोक सिन्हा ने बताया है कि सरकार को क्यों एमएसपी देने के बाद भी काफी पैसा खर्च करना पड़ता है। उन्होंने बताया, एफसीआई को एमएसपी के ऊपर मंडी से गेहूँ खरीदने के लिए 14 फीसदी की प्रोक्योरमेंट कॉस्ट यानी मंडी टैक्स, आढ़त टैक्स, रूरल डेवलपमेंट सेस, पैकेजिंग, लेबर, स्टोरेज देना पड़ता है। इसके बाद उसे आम लोगों तक पहुँचाने में 12 प्रतिशत खर्च आता है, इसमें लेबर चार्ज, ट्रांसपोर्ट, लोडिंग-अनलोडिंग का खर्च आता है। यही नहीं, अपने गोदामों तक इस आनाज को पहुँचाने और वहाँ से निकालने के बीच में जितने समय तक वो अनाज गोदाम में होता है, उस पर भी 8 प्रतिशत की लागत आती है। इसमें गोदामों को चलाने, उसके रखरखाव इत्यादि का भी खर्च आता है।
इस इस उदाहरण से समझें कि एमएसपी पर गेहूँ की खरीद अगर 2500 रुपए प्रति क्विंतल के हिसाब से की गई, इसमें 25 रुपए प्रति किलोग्राम सरकार ने लागत मानी। और इसी एमएसपी पर सरकार ने 1000 क्विंतल गेहूँ खरीद लिया, तो सरकार का खर्च 2500X1000= 25,00,000 रुपए तो किसानों को देने में खर्च हो गए। इसके बाद आम लोगों तक मुफ्त में या मामूली कीमत पर यही गेहूँ पहुँचाने के लिए सरकार को 25,00,000 + 34% अन्य खर्च भी करना पड़ा। इस तरह से 1000 क्विंतल गेहूँ की खरीद पर सरकार को 25 लाख रुपए नहीं, बल्कि 8 लाख 50 हजार अन्य खर्चों को जोड़कर कुल 33 लाख 50 हजार रुपए खर्च करने पड़े। यानी प्रति किलो की खरीद पर सरकार ने किसानों को 25 रुपए दिए, लेकिन वही अनाज गरीबों को मुफ्त में पहुँचाने के लिए सरकार पर कुल खर्च आया 33.50 रुपए का। यही नहीं, सरकार को इस फसल की खरीद के दौरान औसतन 8 प्रतिशत खराब गुणवत्ता का भी अनाज मिलता है। वो अनाज सरकार किसी को दे नहीं सकती, तो ये नुकसान भी सरकार को उठाना पड़ता है।
स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें क्या हैं? और कैसे ये गैर-व्यावहारिक है
खैर, मामला स्वामीनाथन आयोग का है। तो अब समझ लीजिए कि स्वामीनाथन आयोग ने क्या सिफारिशें की हैं। स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश है-एमएसपी को सी2+50 प्रतिशत के फॉर्मूले से लागू करने की। किसान आंदोलनकारी मोदी सरकार से एमएसपी पर यही फॉर्मूला लागू करने करने की माँग कर रहे हैं। ऐसे में सी2+50 प्रतिशत का मामला कैसे पूरे देश को अस्त व्यस्त कर सकता है, ये भी जान लीजिए।
स्वामीनाथन आयोग ने सी2+50 का आँकड़ा बताने के लिए फसल लागत को तीन हिस्सों में बाँटा था। ए2, ए2+एफएल और सी2, इसमें ए2 का मतलब फसल के पैदा होने तक की सभी लागत, जैसे जुताई, बुवाई, खाद, पानी, बीज और कीटनाशक जैसी चीजें शामिल हैं। इसमें मजदूरी भी शामिल है। दूसरा ए2+एफएल का मतलब है-लागत + किसान परिवार की मेहनत। वहीं, सी2 का मतलब है-ए2+एफएल+ जमीन के लीज का खर्च और ब्याज पर लिए पैसों की भी लागत। इस तरह से ये सी2 हुआ। स्वामीनाथन आयोग ने इसी सी2 को कुल लागत माना और उसका 50प्रतिशत हिस्सा किसान को लाभ के तौर पर देते हुए फॉर्मूला बताया सी2+50 का।
इसे और भी सरल तरीके से ऐसे समझें। मान लीजिए किसी किसान ने 100 क्विंटल गेहूँ उगाया। एमएसपी पर सरकार इसे 2500 रुपए यानी 25 रुपए प्रति किलो लागत मानते हुए खरीद रही है। तो किसान को मिले 2,50,000 रुपए। यानी ढाई लाख। अब इसे स्वामीनाथन आयोग के सुझाव के हिसाब से देखें, तो मान लीजिए कि 100 क्विंटल गेहूँ की पैदावार के लिए किसान ने 5 एकड़ जमीन की। इसे सालाना 20 हजार रुपए में लीज पर लिया। इसके अतिरिक्त किसान परिवार में 4 लोग खेत में काम कर रहे हैं, तो उनकी मजदूरी जोड़ लीजिए। चूँकि किसान आंदोलन कारी मजदूरी को 300 रुपए प्रतिदिन से बढ़ाकर 700 रुपए करने की माँग कर रहे हैं, तो यही कीमत रखते हैं। इस तरह से 4 लोगों का परिवार प्रति दिन 4X700=2800 रुपए की हुई। तीस दिन वाले एक माह में ये मजदूरी 84,000 हजार रुपए हुई। गेहूँ के उत्पादन में 4 माह का समय लगता है। चार माह में उन्होंने औसतन 84,000 की मजदूरी की, बाकी दिन उन्होंने दूसरे काम किए। ऐसे में सी2 + फॉर्मूले के तहत 100 क्विंतल गेहूँ की कीमत सरकार को कितनी पड़ेगी?
ये कीमत 2,50,000 + 84,000 + 10,000= 3,44,000 +50% (1,72,000) (चूँकि साल में औसतन दो फसल उगती है, ऐसे में लीज की कीमत 10 हजार ही रखते हैं, जो न्यूनतम है) बैठेगी। ऐसे में सरकार अगर सी2+50 फॉर्मूले के तहत ये गेहूँ खरीदना चाहेगी, तो उसे ये 100 क्विंतल गेहूँ खरीदने के लिए उसे 3,44,000+1,72,000= 5,16,000 रुपए किसान को देने पड़ेंगे। अब इसी अनुपात में एमएसपी के हिसाब से खर्च होने वाला 34% का खर्च भी बढ़ सकता है। हालाँकि अभी हम उतना ही जोड़ते हैं। ऐसे में 34 प्रतिशत का खर्च कुल 1,75,440 रुपए जोड़कर कुल लागत 6,91,440 (5,16,000 + 1,75,440) पड़ेगी। इस तरह से एक किलो गेहूँ जो 25 रुपए में सरकार खरीद रही है, उसकी कीमत 69.15 रुपए बैठेगी। अब सोचिए, अगर सरकार करीब 70 रुपए किलो गेहूँ खरीदेगी, तो बाजार में इसका क्या दाम होगा? आम लोगों को गेहूँ कैसे मिल पाएगा?
अभी पूर्वी यूपी-बिहार के निकले युवा जो बाहर के शहरों में प्रति माह 15-20 हजार रुपए कमा कर अपना जीवन जैसे-तैसे चला रहे हैं, वो युवा कहाँ जाएँगे? यहाँ बात सिर्फ गेहूँ की हुई है, इसी अनुपात में अन्य फसलों की कीमत क्या होगी? इसका अंदाजा लगा सकते हैं। ऐसे में स्वामीनाथन आयोग के सी2+50 फॉर्मूले को कैसे लागू किया जाएगा ? ये सवाल राहुल गाँधी से पूछा जाना चाहिए।
वैसे, एक साधारण आँकड़ा जो साल 2020 का है, सरकार का आँकड़ा है, उसे भी रखना बेहद जरूरी हो जाता है। स्वामीनाथन आयोग छोड़ दीजिए, सिर्फ एमएसपी को कानूनी गारंटी देने पर ही सरकार की क्या हालत हो सकती है, वो जान लीजिए। केंद्र सरकार के मुताबिक, वित्त वर्ष 2020 में देश की कृषि उपज का कुल मूल्य 40 लाख करोड़ रुपए था। इसमें इसमें डेयरी, खेती, बागवानी, पशुधन और एमएसपी फसलों के उत्पाद शामिल हैं। इसमें सिर्फ 24 फसलें एमएसपी के दायरे में हैं। उनका कुल मूल्य 10 लाख करोड़ रुपए था। इसका सिर्फ 25 प्रतिशत हिस्सा ही सरकार खरीद पाई, जिसमें 2.5 लाख करोड़ खर्च हुए। ये कुल कृषि उपज का महज 6.25 प्रतिशत है। जबकि एमएसपी वाली फसलों के हिसाब से सिर्फ 25 प्रतिशत। ऐसे में सवाल ये है कि अगर सरकार ने एमएसपी गारंटी कानून लागू कर दी, तो उसे 10 लाख करोड़ रुपए सिर्फ इन फसलों को साल 2020 की एमएसपी पर खर्च करने होंगे। अभी तो सरकार ने एमएसपी भी बढ़ाई है। तो ये आँकड़ा बढ़ेगा।
अब इसके आगे ये देखिए कि इस साल केंद्र सरकार ने बुनियादी ढाँचे पर खर्च करने के लिए अब तक की सबसे बड़ी रकम 11.11 लाख करोड़ रुपए तय किए हैं। ऐसे में अगर इतना पैसा सिर्फ एमएसपी वाली फसलों की खरीदी पर खर्च हो जाएगी, सरकार बाकी विकास कार्यों पर कैसे खर्च करेगी? दूसरी बात, देश के किसान फिर इन्हीं 24 फसलों का उत्पादन शुरू कर देंगे और ये उत्पादन भी बढ़ जाएगा। फिर बाकी खाद्य पदार्थों की आपूर्ति सरकार को विदेशों से आयात करके पूरी करनी पड़ेगी, जैसे अभी खाद्य तेलों और दालों की करनी पड़ती है। उसकी व्यवस्था कैसे की जाएगी? दूसरा, आपके उत्पाद की सी2=50 फॉर्मूले के चलते जो कीमत हो जाएगी, वो दुनिया में कहीं भी खरीदी नहीं जा सकेगी। फिर इस अनाज का क्या होगा?
अब आते हैं मूल सवाल पर कि किसानों की माँगों को सरकार क्यों नहीं मान रही है? किसानों द्वारा एमएसपी की गारंटी के लिए माँगा जा रहा कानून क्यों नहीं बनाया जा रहा है? तो उम्मीद है कि इन सवालों के जवाब आपको मिल गए होंगे। दरअसल, किसान संगठनों की माँगे न सिर्फ अव्यवहारिक हैं, बल्कि देश को खत्म कर देने वाली भी है। ऐसे में राहुल गाँधी ने चुनावी लॉलीपॉप की तरह भले ही स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की बात कह दी हो, पर उन्हें भी पता है कि ऐसा करना भारत देश ही नहीं, दुनिया के किसी भी देश के लिए तबाही की तरह होगी। वैसे, साल 1977 से 1981 के बीच अमेरिका में ‘गारंटी कानून’ के चलते सरकार और पूरे देश की क्या हश्र हुई, वो जानना भी दिलचस्प है।
अतीत के अनुभव को भी देख लेते राहुल गाँधी
चलिए, वो किस्सा भी बता देते हैं कि सरकार एमएसपी पर गारंटी कानून और स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को क्यों नहीं मान पा रही है, चाहते हुए भी। दरअसल, साल 1977 में अमेरिका के राष्ट्रपति थे जिमी कार्टर। उन्होंने ऐलान किया कि अमेरिका में दूध के दाम हर 6 माह में बढ़ेंगे और पैसा सरकार देगी। ऐसे में लोगों ने दुग्ध उत्पादन में तेजी ला दी। सरकार के पास स्टोरेज की कमी हो गई। स्थानीय स्तर पर दूध की खपत कम हो गई, क्योंकि दाम बढ़ते गए और लोग डॉलर के चक्कर में सारा दूध बेचते गए। सरकार ने इसका हल निकाला कि वो दूध की जगह चीज खरीदेगी। बस, फिर क्या था? कॉरपोरेट कंपनियाँ मैदान में आ गई। उन्होंने सरकार द्वारा तय किए रेट पर दूध खरीदना शुरू कर दिया, और चीज बनाकर सरकार को सप्लाई करने लगे।
एक समस्या और आई कि किसानों ने कंपनियों को खराब गुणवत्ता का दूध भी बेचना शुरू कर दिया, क्योंकि उन्हें अधिकाधिक कमाई दिख रही थी और सरकार कानून के चलते सबकुछ खरीदने को मजबूर ती। ऐसे में सरकार ने कहा कि वो ‘चीज’ को टेस्ट करने के बाद खरीदेगी, यानी गुणवत्ता की जाँच (क्वॉलिटी चेकिंग) शुरू हो गई। उधर, सरकार के सारे गोदाम चीज से भरने लगे। सरकार ने 120 फुटबॉल स्टेडियमों के आकार के बराबर का बहुत बड़ा गोदाम बनवाया लेकिन समस्या कम नहीं हुई।
साल 1981 आते-आते अमेरिकी सरकार ने 200 करोड़ डॉलर से भी अधिक की रकम दूध और चीज खरीदने पर खर्च कर दिया था। ये सारा सामान उत्पादन की तुलना में बिका भी नहीं, महँगा होने के चलते स्थानीय स्तर पर इसका उपभोग भी नहीं हुआ। ऐसे में 1981 में राष्ट्रपति बने रोनाल्ड रीगन ने फैसला लिया कि अब बस, सरकार और दूध-चीज नहीं खरीद सकती। उन्होंने इस योजना को बंद कर दिया। लेकिन तब तक पूरी व्यवस्था की चूलें हिल चुकी थी।
अब सवाल आपसे है, कि आप क्या चाहते हैं? क्या सरकार को इन राजनीतिक माँगों को माँग कर देश को बर्बादी की कगार पर ढकेल देना चाहिए या फिर उनकी अन्य समस्याओं की तरफ देखना चाहिए? सवाल ये भी है कि एमएसपी सिर्फ 24 फसलों की होगी, तो बाकी फसले उगाने वाले या फलों की खेती में जुटे किसानों का क्या होगा? या फिर कुछ मुट्ठी भर किसानों के लिए एमएसपी लागू कर दिया जाए और देश की बड़ी आबादी को भूख से मरने के लिए छोड़ दिया जाए? या फिर राहुल गाँधी-अरविंद केजरीवाल (किसान आंदोलन को समर्थन) की तरह बिना हिसाब-किताब के ही ‘कुछ भी’ घोषणा करके राजनीतिक रोटियाँ सेंक ली जाए? सोचिए, ये काम आप पर छोड़ता हूँ।