Friday, November 22, 2024
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आँकड़ेबाजी: मोदी के आने के बाद जागरूक हुई जनता, कई विजयी उम्मीदवारों को मिल रहे 50% से अधिक मत

अक्सर ये बातें कही जाती हैं कि चुनावों में 20-30 प्रतिशत मत लेकर उम्मीदवार विजयी हो जाते हैं और वे उस 70% जनता के भी नेता बन बैठते हैं, जिन्होंने उन्हें वोट दिया ही नहीं। लेकिन 2014 के बाद के आँकड़े...

अक्सर ये बातें कही जाती हैं कि चुनावों में 20-30 प्रतिशत मत लेकर उम्मीदवार विजयी हो जाते हैं और वे उस 70% जनता के भी नेता बन बैठते हैं, जिन्होंने उन्हें वोट दिया ही नहीं। भारतीय लोकतंत्र में बहुदलीय व्यवस्था है, न कि अमरीका या यूरोप के देशों की तरह द्विदलीय प्रणाली। चुनाव आयोग में पंजीकृत राजनीतिक दलों की संख्या 465 है, जबकि 7 राष्ट्रीय दल, 60 से अधिक क्षेत्रीय दल एवं 54 से अधिक गैर मान्यता प्राप्त पंजीकृत दल हैं। निर्दलीय भी चुनाव में प्रत्याशी हो सकते हैं। ऐसे में विधानसभा व लोकसभा के चुनावों में एक-एक क्षेत्रों में उम्मीदवारों की संख्या कभी-कभी 40-50 तक पहुँच जाती है।

राष्ट्रीय दलों व क्षेत्रीय दलों का अपना जनाधार अर्थात ठोस मतदाता होते हैं। ऐसे में किसी भी प्रत्याशी के लिए 50% या इससे अधिक मत प्राप्त करना टेढ़ी खीर है। किंतु इस विषय का एक दूसरा पहलू भी है कि क्या किसी उम्मीदवार के लिये 50% मत प्राप्त करना असंभव है। इसका जवाब हाँ नहीं हो सकता, क्योंकि कई नेताओं ने कुल मतों का आधे से अधिक प्राप्त कर अपने प्रतिद्वंद्वियों को हराया है। जयपुर से स्वतंत्र पार्टी की उम्मीदवार महारानी गायत्री देवी ने 1962 व 1967 के आम चुनाव में क्रमश: 77.08 व 64.01 प्रतिशत मत प्राप्त किए। 2004 में पश्चिम बंगाल के आरामबाग लोकसभा क्षेत्र से मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के अनिल बसु को 77.16% मत मिले थे। इसी श्रेणी में काकिनाडा से एमएस संजीव राव (1971), रामविलास पासवान, संतोष मोहन देव, द्रमुक के एनवीएन सोमू, गुजरात के राजकोट के बल्लभभाई रामजीभाई, नगालैंड के के.ए. संथम, नगा पीपुल्स पार्टी के सीएम चांग आदि का नाम आता है।

1977 के चुनाव में राज नारायण ने 53.51% वोट प्राप्त कर इंदिरा गाँधी को हराया था और जनता दल से लड़े अनिल शास्त्री को 1989 के चुनाव में बनारस से 62.31% मत मिले थे, जबकि अमेठी से जनता पार्टी के रविंद्र सिंह ने 60.47% मतों के साथ कॉन्ग्रेस के संजय गाँधी को पराजित किया था। 50% से अधिक वोट पाकर प्रतिद्वंद्वी को चित करने वाले इन सारे नामों में एक बात सामान्य है कि इनकी राजनीति का आधार पारिवारिक पृष्ठभूमि न होकर, स्वयं जनता के बीच किये गए संघर्ष का परिणाम था। लेकिन ऐसा बहुत कम हुआ, इन्हें आपवादिक स्थिति कही जाएगी।

इसके बाद वर्ष 2014 में भारतीय मतदाताओं की रुचि व रुझान दोनों ने करवट ली और एक अलग तरह की धारा चली। नरेंद्र मोदी बनारस लोकसभा क्षेत्र से 56.37% और वडोदरा से 72.75% मत पाकर विजयी हुए। साथ ही गुजरात, उत्तराखंड और हिमाचल में भारतीय जनता पार्टी के सभी उम्मीदवार 50 प्रतिशत से अधिक मत पाकर जीते, जबकि सीटों की संख्या के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 41% सीटों पर उम्मीदवारों ने 50% से अधिक मत प्राप्त कर प्रतिद्वंद्वियों को धूल चटाई। 2014 के लोकसभा चुनाव में 206 विजयी प्रत्याशी ऐसे रहे, जिन्हें 50% से अधिक मत मिले और खास बात यह रही कि इनमें से 70% से अधिक उम्मीदवार भारतीय जनता पार्टी के थे।

इस तरह यह कहा जा सकता है कि मतदाताओं में चुनाव को लेकर जागरूकता आई है और वे अपना मतदान निश्चित व स्पष्ट दृष्टि के साथ करते हैं। इसलिए अल्पमतों के साथ प्रतिनिधित्व करने का राग अप्रासंगिक होता जा रहा है। इसके कारणों की समीक्षा की जाए तो कई बातें निकल कर आती हैं। 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी ने जनसंवाद और मतदाताओं के साथ अंतर्संवाद की शैली से लोगों के बीच गये और आम नागरिकों के मन में राजनीति व राजनेताओं के प्रति दशकों से बैठी उदासीनता को समाप्त कर पाने में बहुत हद तक सफलता हासिल की। चुनाव प्रचार के दौरान मोदी द्वारा जनता से ख़ुद को प्रधानसेवक बनाने की अपील से जनता में यह संदेश गया कि राजनेता विशिष्ट व्यक्ति नहीं, बल्कि वह होता है, जो उनके बीच का और उनके लिये हो, जिससे वे अपनी आकांक्षाएँ, अपेक्षाएँ, आवश्यकताएँ कह सकें।

इसके अतिरिक्त सोशल मीडिया के प्रादुर्भाव व संचार साधनों के आगमन होने से जनता को राजनेताओं से सवाल पूछने, अंतर्संवाद करने और शिकायत प्रकट करने का हथियार भी मिला। इन सबका प्रभाव यह हुआ कि राजनीति में गैर राजनीतिक व्यक्तियों व आम जनता की रुचि बढ़ी और किसी दल या नेता के प्रति धारणा अपने आकलन एवं विश्लेषण पर करने लगा। अतः जनता ने भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को न केवल स्पष्ट बहुमत दिया, बल्कि करीब 38% उम्मीदवारों को 50% से अधिक मतों से जिताया।

इधर 2014 में विजय के बाद मोदी सरकार ने सुलभ व सस्ता इंटरनेट एवं मोबाइल नीति लागू करते हुए डिजिटल भारत अभियान को गाँव -गाँव तक पहुँचाया है। एक ओर सरकार अपने कार्यक्रमों, नीतियों व योजनाओं का लाभ सीधे जनता तक पहुँचा रही है और अपने पाँच साल के कामकाज एवं पार्टी की गतिविधियों व विचारों को भी आम लोगों तक पहुँचाने के लिए डिजिटल प्लेटफार्मों का आक्रामक उपयोग कर रही है तो दूसरी तरफ विपक्षी दल भी इसमें पीछे नहीं रहना चाहते हैं।

यह सच है कि जब समाज में मतदाताओं के पास सूचना का आदान-प्रदान, सूचना तक पहुँच होगी तो वह उम्मीदवार या दल के पक्ष अथवा विपक्ष पर विचार कर अपना निर्णय देगा। डिजिटल इंडिया और संचार क्रांति के कारण मतदाताओं के पास सरकार, पार्टी व उम्मीदवार के विषय में जानकारी इकट्ठा करने के साथ अपना हित व अहित सोचकर मतदान के दिन निर्णय लेने की संभावना और बढ़ चुकी है। ऐसे में संभव है कि इस बार के चुनाव में जनता अपना निर्णय जब सुनायेगी तो किसी दल व उम्मीदवारों को सरकार बनाने के लिये 50% से अधिक मत देकर भारतीय राजनीति में आये इस सकारात्मक बदलाव की धारा का प्रवाह और तीव्र करेगी।

(लेखक सामाजिक व राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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Harish Chandra Srivastava
Harish Chandra Srivastavahttp://up.bjp.org/state-media/
Spokesperson of Bharatiya Janata Party, Uttar Pradesh

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