Friday, November 22, 2024
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दंगों के नाम पर डराने वाली कॉन्ग्रेस का इतिहास 16000+ हिंदू-मुस्लिम-सिख के खून से लथपथ है

आँकड़े झूठ नहीं बोलते। एक दो घटनाओं को बार-बार रट कर बस ये एक भ्रम फैलाया जाता है कि भाजपा के शासनकाल में सांप्रदायिक हिंसा की वारदातें बढ़ जाती हैं। जबकि कॉन्ग्रेस का 'हाथ' खून से लथपथ है।

गुजरात में जब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे, तब हुए दंगों को लेकर अक्सर भ्रम फैलाने की कोशिश की जाती रही है। बड़ी चालाकी से इन सबके बीच में कॉन्ग्रेस के शासनकाल में हुए दंगों को भुला दिए जाते हैं। गुजरात में हुए एक दंगे की आड़ में उन हज़ारों लोगों को याद भी नहीं किया जाता, जो कॉन्ग्रेस शासित राज्यों में हुए दंगों में मौत की भेंट चढ़ गए। अक्सर कहा जाता है कि केंद्र और उत्तर प्रदेश में मोदी-योगी के आने के बाद सबसे ज्यादा
सांप्रदायिक हिंसक वारदातें हुई। लेकिन, अगर आँकड़ों की बात करें तो 2013 में जब यूपी में अखिलेश और केंद्र में मनमोहन की सरकार थी, तब वहाँ सबसे ज्यादा सांप्रदायिक वारदातें हुई थीं।

2017 में उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा की 195 वारदातें हुईं जबकि 2013 में यह आँकड़ा 247 का था। उस समय न तो यूपी में योगी थे और न ही केंद्र में मोदी। लेकिन, कुछ विश्लेषक झूठ के आधार पर यह कहते नहीं हिचकते कि मोदी राज में ऐसी घटनाएँ बढ़ गई हैं। इसी तरह 2008-2017 के दशक की बात करें तो महाराष्ट्र में भी सबसे ज्यादा सांप्रदायिक हिंसक वारदातें 2009 में हुई थी। उस वर्ष वहाँ 128 ऐसी घटनाएँ हुईं थीं। उस समय केंद्र और राज्य दोनों ही जगहों पर कॉन्ग्रेस की सरकार थी। इसी तरह 2010 में वहाँ 117 और 2008 में 109 ऐसी वारदातें हुईं। जबकि 2014 से 2017 के बीच किसी भी वर्ष में सांप्रदायिक हिंसा के आँकड़े इतने नहीं गए। उलटा 2016 में यह आँकड़ा घट कर 68 और फिर 2017 में 46 पर पहुँच गया।

2013 में यूपी में ऐसी घटनाओं में 77 लोग मारे गए। महाराष्ट्र में 2008 और 2009 में सांप्रदायिक हिंसा के कारण क्रमशः 26 और 22 लोग मारे गए। 2015, 16 और 17 में ये आँकड़ा घटते-घटते क्रमशः 14, 6 और 2 पर पहुँच गया। 2014 से 2017 के बीच इन आँकड़ों में कमी आई। अब हम आपको हाल ही में यूपीए के शासनकाल में हुए उन दंगों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसमें भारी जान-माल की क्षति हुई। लेकिन कई पत्रकार आज भी गुजरात-गुजरात की रट लगाए बैठे हैं। इसके बाद हम पुराने समय में कॉन्ग्रेस के शासनकाल में हुए बड़े दंगों की बात करेंगे।

मुज़फ्फरनगर दंगा, यूपी (2013 )

2013 में यूपी के मुज़फ्फरनगर में हुए दंगों में जानमाल की भारी क्षति हुई थी। उस समय केंद्र में कॉन्ग्रेस की सरकार थी और राज्य में अखिलेश यादव (सपा) की सरकार थी। अगस्त-सितम्बर में हुए इन दंगों में 60 से भी अधिक लोग मारे गए थे और कई घायल हुए थे। सुप्रीम कोर्ट ने इस दंगे को लेकर तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को फटकार भी लगाई थी।

भरतपुर दंगा, राजस्थान (2011)

2011 में अशोक गहलोत के मुख्यमंत्रित्व काल में भरतपुर में हुए दंगों में 8 लोग मारे गए थे और क़रीब 25 लोग जख़्मी हुए थे। इस दंगे की जाँच सीबीआई को सौंपी गई थी। अशोक गहलोत फिर से राजस्थान के मुख्यमंत्री बने हैं। हैरत यह कि उनसे इस दंगे को लेकर सवाल नहीं पूछे जाते।

अब हम आगे कॉन्ग्रेस राज में हुए उन भीषण दंगों के बारे में बात करेंगे, जो इतने भयावह थे कि उनके सामने छिटपुट घटनाओं को दंगे का रूप देने वाले शर्म से अपना मुँह छुपा लें।

1993 बॉम्बे दंगा, महाराष्ट्र

इस दंगे में 900 के क़रीब लोग काल के गाल में समा गए थे। उस समय शरद पवार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 में हुए इन दंगों को सबसे भीषण दंगों में से एक माना जाता है। तब केंद्र में नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस की सरकार थी।

हैदराबाद दंगा, आंध्र प्रदेश (1990)

1990 में आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में हुए सांप्रदायिक दंगों में 200 से भी अधिक लोग मारे गए थे। उस दौरान आंध्र प्रदेश में कॉन्ग्रेस की सरकार थी। हैदराबाद दंगे के बारे में कहा जाता है कि तब एक भी दोषी को गिरफ़्तार नहीं किया गया था। तत्कालीन मुख्यमंत्री मारी चेन्ना रेड्डी ने कहा था कि ये दंगे उनकी अपनी ही पार्टी के प्रतिद्वंद्वियों द्वारा भड़काए गए हैं। इस दंगे में मारे गए और घायल लोगों में आधे से ज्यादा हिन्दू थे।

1984 सिख दंगा

1984 में दिल्ली और पंजाब में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद सिखों को चुन-चुन कर मारा गया था। इस दंगे में कई कॉन्ग्रेस नेताओं पर आज तक मुक़दमे चल रहे हैं। इस दंगे में 10,000 के क़रीब सिख मारे गए थे। पूरे भारतीय में शायद ही कभी इस तरह एकतरफा रूप से इतने लोगों को मारने की कोई अन्य घटना घटी हो। अकेले दिल्ली में हज़ारों सिखों को मार डाला गया था, उनकी बस्तियाँ जला डाली गईं थीं और महिलाओं तक को नहीं छोड़ा गया था।

मामला अभी तक कोर्ट में लंबित है। हालाँकि किसी से छिपा नहीं है कि इस दंगे को कॉन्ग्रेस नेताओं (याद कीजिए राजीव गाँधी का धरती डोलने वाला वाक्य) द्वारा अंजाम दिया गया था। विकीलीक्स के ख़ुलासे के मुताबिक, अमेरिका तक ने भी इस दंगे में पूर्ण रूप से कॉन्ग्रेस का हाथ माना था। अमेरिका ने माना था कि कॉन्ग्रेस और उसके नेता सिखों को घृणाभाव से देखते थे। सिख समाज आज तक उस दंगे के दंश को झेल रहा है जबकि कई आरोपित खुला घूम रहे हैं।

नेली दंगा, असम (1983)

फरवरी 1983 में इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री थीं और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा था। ऐसे में 3000 से भी अधिक लोगों का दंगे में मारा जाना कॉन्ग्रेस सरकार की अक्षमता का परिचायक है। अनाधिकारिक आँकड़ों के मुताबिक़, इस दंगे में 10,000 के क़रीब लोग मारे गए थे। स्थानीय निवासियों और मुस्लिमों के इस ख़ूनी संघर्ष को रोकने में तत्कालीन सुरक्षा व्यवस्था नाकाम साबित हुई थी।

यह स्वतंत्र भारत का तब तक का सबसे बड़ा नरसंहार था। सरकारी तौर पर मृतकों के परिजनों को मुआवजे के नाम पर 5-5 हज़ार रुपए दिए गए थे। नेली नरसंहार के लिए शुरू में कई सौ रिपोर्ट दर्ज की गई थी। कुछ लोग गिरफ़्तार भी हुए लेकिन देश के सबसे जघन्य नरसंहार के अपराधियों को सजा तो एक तरफ, उनके ख़िलाफ़ मुकदमा तक नहीं चला। बंगाली विरोधी आंदोलन के बाद जो सरकार सत्ता में आई, उसने एक समझौते के तहत नेली नरसंहार के सारे मामले वापस ले लिए।

भागलपुर दंगा, बिहार (1987)

केंद्र में राजीव गाँधी के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस की सरकार चल रही थी। बिहार में भी सत्येंद्र नारायण सिन्हा के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस ही सत्तासीन थी। ऐसे में, बिहार के इतिहास का सबसे भीषण दंगा भड़का और हज़ार से भी अधिक लोग मारे गए। 50,000 से भी अधिक लोगों को अपना घर-बार छोड़ कर भागना पड़ा। इस दंगे के बाद ही लालू यादव ने मुस्लिम-यादव समीकरण को बुना और बिहार की गद्दी को जीतने में कामयाब रहे।

शहर में शांति बहाली के लिए तत्कालीन सिने स्टार सुनील दत्त और शत्रुघन सिन्हा को कई बार भागलपुर आना पड़ा था। गंभीरता को भाँपकर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी भी आए थे पर उन्हें अस्पताल से ही लौट जाना पड़ा था। तब कर्फ्यू तोड़कर लोग तिलकामांझी चौराहे पर आ गए थे और उनके काफिले को रोक एसपी के तबादले को रद्द करने को सरकार को मजबूर कर दिया था। कॉन्ग्रेस इस घटना के बाद से बिहार की सत्ता पर कभी काबिज़ नहीं हो सकी।

गुजरात दंगा, 1969

2002 के गुजरात दंगों की चर्चा तो की जाती है लेकिन बड़ी चालाकी से 1969 में उसी गुजरात में हुए भीषण दंगों को याद तक नहीं किया जाता। कारण उस दौरान केंद्र और राज्य, दोनों में ही कॉन्ग्रेस की सरकार थी। इस दंगे में 500 के आसपास लोग मारे गए थे और लगभग इतने ही घायल भी हुए थे। हिन्दू दलितों और मुस्लिमों के इस संघर्ष को भड़काने में जमात उलेमा नामक मजहबी संगठन के नेताओं द्वारा भड़काऊ बयान का हाथ था।

1980 में यहाँ फिर सांप्रदायिकता की आग भड़की और 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद भी हिन्दू-मुस्लिमों में हिंसक संघर्ष हुआ। इन दंगों को लेकर कॉन्ग्रेस नेताओं से सवाल नहीं पूछे गए!

मोरादाबाद दंगा, यूपी (1989)

मोरादाबाद में दूसरे मजहब वालों द्वारा एक दलित लड़की के अपहरण के बाद उपजे तनाव में 500 के क़रीब लोग मारे गए थे। हालाँकि, अनाधिकारिक आँकड़ों की बात करें तो इसमें 2500 से भी ज्यादा लोगों के मारे जाने की बात कही गई। राज्य में नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस सत्तासीन थी और केंद्र में राजीव गाँधी प्रधानमंत्री थे। ऐसे में, देश के सबसे बड़े राज्य और राजधानी दिल्ली से सटे इस क्षेत्र में हज़ारों लोगों का मारा जाना कॉन्ग्रेस नेतृत्व पर सवाल खड़े करता है और उन पर भी जिन्होंने इस दंगे को लेकर उतने सवाल नहीं पूछे, जितने गुजरात को लेकर पूछे गए।

इस तरह से कॉन्ग्रेस शासनकाल में कई भीषण दंगे हुए, जिनको लेकर उन पर सवाल नहीं दागे गए। भाजपा शासनकाल में देश अपेक्षाकृत शांत है और ऐसी घटनाओं में कमी आई है। अगर हम 2011-2013 की बात करें तो उस दौरान भी कॉन्ग्रेस शासित राज्य सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में सबसे ज्यादा थे। उस दौरान कॉन्ग्रेस शासित महाराष्ट्र में 270 ऐसे मामले आए, जो देश में सबसे ज्यादा था। 2013 में तो देश में जितनी भी सांप्रदायिक हिंसा की वारदातें हुई, उनमें से 35% सपा शासित यूपी में हुई। इसीलिए, एक दो घटनाओं को बार-बार रट कर ये बस एक भ्रम फैलाया जाता है कि भाजपा के शासनकाल में सांप्रदायिक हिंसा की वारदातें बढ़ जाती हैं।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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