Saturday, November 23, 2024
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अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत को लज्जित करने के उद्देश्य के पीछे केजरीवाल की मंशा क्या है?

केजरीवाल सिंगापुर वैरिएंट की बात करते हैं। फिर वहाँ से आने वाली उड़ानों को रद्द करने का बयान देते हैं... जबकि सिंगापुर से उड़ानें पहले से ही बंद हैं। आखिर दिल्ली के CM इतना चिल्लाते क्यों हैं... वो भी बिना सबूत के?

अरविन्द केजरीवाल ने अचानक कोरोना का एक सिंगापुरी वैरिएंट खोजा और मन ही मन आर्किमिडीज की तरह यूरेका यूरेका चिल्लाते हुए घोषणा कर दी कि यह वैरिएंट “हमारे बच्चों” के लिए बहुत खतरनाक है। उन्होंने केंद्र सरकार से माँग की कि सिंगापुर से आने वाली उड़ानें तुरंत बंद कर देनी चाहिए। उन्हें पता था कि इसका असर होगा इसीलिए उन्होंने यह बयान दिया था। असर हुआ भी।

सिंगापुर सरकार की ओर से तीखी प्रतिक्रिया आई। सिंगापुर के विदेश मंत्रालय ने भारतीय राजदूत से अपना विरोध दर्ज कराया। वहाँ के विदेश मंत्री की ओर से वक्तव्य जारी किया गया। मेरे व्हाट्सएप ग्रुप में सिंगापुर में रहने वाले एक मित्र ने बताया कि केजरीवाल के बयान को लेकर वहाँ सेलेब और यू-ट्यूबर्स से भी बहुत तीखी प्रतिक्रिया आ रही है। ऐसे में अनुमान लगाया जा सकता है कि एक आम सिंगापुरी की प्रतिक्रिया कैसी होगी?

भारत का विदेश मंत्रालय भी तुरंत हरकत में आया। मंत्रालय के प्रवक्ता ने वक्तव्य जारी करके बताया कि कोरोना का सिंगापुरी वैरिएंट जैसा कुछ नहीं है। साथ ही यह भी बताया गया कि कैसे भारत और सिंगापुर के रिश्ते हर तरह से अच्छे रहे हैं और कोरोना की दूसरी तीव्र लहर से लड़ने में भारत की मदद करने वाले देशों में सिंगापुर सबसे पहले आगे आया। ऐसे में यह सबके लिए आवश्यक है कि बिना जानकारी के ऐसे बयान न दें। बाद में खुद विदेश मंत्री को वक्तव्य जारी करके कहना पड़ा कि अरविन्द केजरीवाल के वक्तव्य को भारत का वक्तव्य न माना जाय।

परिस्थिति काबू में आते-आते काफी नुकसान हो चुका है, जिसका असर शायद कुछ दिनों बाद पता चले। सोशल मीडिया पर आई प्रतिक्रियाओं से लगा कि आम भारतीय के साथ-साथ पत्रकारों और संपादकों तक ने माना कि केजरीवाल को ऐसा बयान नहीं देना चाहिए था। पत्रकारों और संपादकों द्वारा ऐसा कहा जाना एक अनूठी घटना है जो शायद दशकों में एक बार ही हो सकती है।

वैसे कुछ पत्रकारों ने अपनी सशर्त आलोचना में कुछ ऐसा भी कहा जिसका अर्थ था; माना कि केजरीवाल द्वारा दिया गया यह बयान सही नहीं था पर विदेश मंत्रालय को दूसरे देश के सामने उनके बारे में ऐसा नहीं कहना चाहिए था। इनमें कुछ वे लोग भी थे, जिन्होंने एक समय भारतीय सांसदों द्वारा अमेरिका को पत्र लिखकर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वीजा न दिए जाने को न केवल उचित ठहराया था बल्कि काफी हद तक सेलिब्रेट भी किया था। 

जो कुछ भी हुआ उससे अनेकों प्रश्न उठते हैं। प्रश्न यह है कि अचानक केजरीवाल को ऐसा बयान देने की आवश्यकता क्यों पड़ गई? क्या यह बयान देने से पूर्व उन्होंने विदेश मंत्रालय या केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को कोई पत्र लिखा था या प्रधानमंत्री के साथ किसी मीटिंग में अपनी चिंता व्यक्त की थी? उनके पास यह रिपोर्ट कहाँ से आई कि सिंगापुर में कोरोना का कोई नया वैरिएंट मिला है जो केवल बच्चों को संक्रमित कर रहा है? यह किसी वैज्ञानिक पत्रिका में छपा था या किसी और देश के विशेषज्ञों ने इस बात को उठाया था? और यदि इस तरह की रिपोर्ट थी तो केवल केजरीवाल को कैसे पता चला? यह रिपोर्ट भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय तक क्यों नहीं पहुँची? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो उठाए जाने चाहिए और यह केजरीवाल की जिम्मेदारी है कि यदि वे अपने दावों या बयानों को गंभीर मानते हैं तो आगे आकर इन प्रश्नों का उत्तर दें। 

विदेश मंत्रालय से जारी हुई विज्ञप्ति के बाद भी दिल्ली सरकार की ओर से इस मामले को समाप्त करने की मंशा नहीं देखी गई। केजरीवाल के बचाव में उनके डिप्टी मनीष सिसोदिया उतरे और उन्होंने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके अपने मुख्यमंत्री का बचाव किया। बचाव तो क्या किया, कहा जा सकता है कि वही सारी बातें की जो केजरीवाल ने की थी।

मनीष सिसोदिया ने भी “अपने बच्चों” को लेकर चिंतित होने का दावा ठोंका और बताया कि; मोदी जी को सिंगापुर की चिंता है पर हमें हमारे बच्चों की चिंता है। इस बयान से सिसोदिया यह बात गोल कर गए कि केंद्र सरकार को सिंगापुर की नहीं बल्कि भारत-सिंगापुर संबंधों की चिंता है। 

इन नेताओं के सलाहकारों को चाहिए कि वे इन्हें बताएँ कि लोकतंत्र या राजनीति में वाक्पटुता का महत्व है पर हर कदम पर इसका इस्तेमाल करना नेतृत्व की अक्षमता दर्शाता है। सिसोदिया के प्रेस कॉन्फ्रेंस का सबसे निम्न बिंदु यह रहा कि उन्होंने भारतीय विदेश मंत्रालय से जारी विज्ञप्ति के बावजूद केंद्र सरकार पर आरोप लगाते हुए यह कहा कि; ये लोग हमें ब्रिटिश वैरिएंट से भी आगाह नहीं कर पाए थे। इन्हें पता है कि सिंगापुर सरकार कोरोना के किसी वैरिएंट को सिंगापुर वैरिएंट कहे जाने से नाराज है, उसके बावजूद सिसोदिया ब्रिटिश वैरिएंट की बात कर रहे हैं। सुनकर लगा जैसे यह काम जानबूझ कर किया जा रहा है ताकि भारत के और देशों से सम्बन्ध पर बुरा असर हो। प्रश्न यह भी उठता है कि सिसोदिया के इस बयान के पीछे मंशा क्या थी? आखिर संवैधानिक पद पर बैठा एक जिम्मेदार नेता ऐसे बयान क्यों दे रहा है जो दो देशों के बीच सम्बन्ध बिगाड़ सकते हैं?             

कोरोना से हर राज्य लड़ रहा है। राज्यों के मुख्यमंत्री उपलब्ध संसाधनों को बढ़ाने में लगे हैं ताकि महामारी से लड़ाई में आसानी हो। सबकी कोशिशें जारी हैं ताकि इस पर जल्दी काबू पाया जा सके। इस लड़ाई में और मुख्यमंत्री तो अपने अफसरों से मीटिंग करते या सुविधाओं की निरीक्षण करते दिखते हैं पर केजरीवाल ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिनकी मीटिंग न्यूज़ एजेंसी के कैमरे और माइक के साथ होती है। वे सुबह से ही कैमरे के सामने बैठ जाते हैं और कोरोना के विरुद्ध दिल्ली की लड़ाई को अपने बयानों से नेतृत्व देते हैं। उनके बयानों के साथ उनके जो पोज दिखाई देते हैं उनमें वे बिल्कुल किसी दर्शनशास्त्री से लगते हैं, जो इस लड़ाई में नेतृत्व क्षमता और वैज्ञानिक तरीकों में कम और दर्शनशास्त्र और बयानशास्त्र में अधिक विश्वास रखता है।   

बयानों से कोरोना की रोकथाम के इस केजरीवाली दर्शन ने तबसे और जोर पकड़ा है जबसे दिल्ली में ऑक्सीजन ऑडिट की बात उठी है। जबसे यह बात उच्चतम न्यायलय में उठी, उन्होंने अपने बयानों को एक अलग ही स्तर पर पहुँचा दिया है। प्रश्न यह है कि इन बयानों से घरेलू राजनीति में उद्देश्य के अनुसार विमर्श करवाने की मंशा समझ आती है पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को लज्जित करने के उद्देश्य के पीछे क्या मंशा है?

मजे की बात यह है कि ऐसे बयान देते हुए उनके पास तथ्यों की जानकारी भी नहीं रहती। तथाकथित सिंगापुर वैरिएंट पर बयान के साथ वहाँ से आने वाली उड़ानों को रद्द करने के केजरीवाल के बयान को ही ले लें। ऐसा बयान देने से पहले उन्हें यह पता क्यों नहीं है कि सिंगापुर से आने वाली उड़ानें मार्च महीने के तीसरे सप्ताह से ही बंद हैं? यह बात अपने बयानों के प्रति उनकी गंभीरता को दर्शाती है। ऐसा नहीं कि भारत को लज्जित करने का बयान केजरीवाल ने पहली बार दिया है।  इससे पहले वे बालाकोट स्ट्राइक को लेकर बयान दे चुके हैं जिसका पाकिस्तानी सरकार और मीडिया ने अपने घरेलू और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस्तेमाल किया।  

समय आ गया है कि किसी को जवाब न देने वाले केजरीवाल प्रश्नों से दो-चार हों और उनके जवाब दें। जवाब न देने से प्रश्न खत्म नहीं होते। उन्हें यह विचार करने की आवश्यकता है कि उनके ऐसा बार-बार करने से क्या केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्र सरकार या भारत की छवि पर ही बुरा असर पड़ रहा है? साथ ही उन्हें यह समझने की आवश्यकता है कि जीवन में सब कुछ राजनीति के बारे में नहीं होता। किसी भी नेता का यह विश्वास कि सब कुछ ‘मैनेज’ किया जा सकता है, एक दिन अचानक गायब हो जाता है। यदि आज नहीं तो कल व्यवस्था और अव्यवस्था पर उठते प्रश्नों के सामने केजरीवाल को आना ही होगा पर शायद तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।

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