गुजरात के डीसा में एक हिन्दू युवती को लव जिहाद में फँसा कर उसे मुस्लिम बना दिया। बाद में धाक-धमकी से माँ का भी इस्लामी धर्मांतरण करवा दिया और पिता से 25 लाख रुपए की माँग की गई। दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के अनुसार, लड़की के चाचा ने बताया कि उनकी भतीजी को पड़ोस में रहने वाले एजाज ने प्रेमजाल में फँसाया और घर से भगाकर ले गया। बाद में उसका धर्म भी बदलवा दिया। जब लड़की की माँ बेटी को तलाशते हुए एजाज के यहाँ पहुँचीं तो उसे भी कैद कर लिया।
इसके बाद एजाज के परिवार वालों ने माँ-बेटी की रिहाई के बदले 25 लाख रुपए की माँग की। इससे परेशान होकर लड़की के पिता ने जहर खा लिया। उनका एक निजी अस्पताल में इलाज चल रहा है। शनिवार (3 सितंबर, 2022) को इस घटना के विरोध में डीसा के हिन्दू सड़कों पर आ गए और लव जिहाद के खिलाफ रैली में 15,000 से अधिक लोग शामिल हुए।
धर्मांतरण से इतनी आपत्ति क्यों है?
अमूमन लव-जिहाद के केस में सेक्युलर जमात के लोग प्रश्न करते हैं कि धर्म भले ही बदल जाएगा लेकिन वे लोग रहेंगे तो भारतीय ही। तो धर्मांतरण से इतनी आपत्ति क्यों है? तो इस लेख के माध्यम से हम उस आपत्ति को समझाएँगे। RSS के 5वें सरसंघचालक केएस सुदर्शन ने अपनी एक पुस्तिका ‘धर्मांतरण अथवा राष्ट्रांतरण’ में एक दृष्टांत दिया है कि ‘मीनाक्षीपुरम में एक नवधर्मांतरित बच्चे व उसके पिता से एक पत्रकार की भेंट हुई।
बच्चे ने अपनी तमिल शैली में अभिवादन करते हुए जब ‘वणक्कम’ कहा तो तुरंत ही उसके पिता ने उसकी पीठ पर एक धौल जमाते हुए उसे डाँटा, “नहीं, अब तुम हिन्दू नहीं हो। तमिल भी नहीं हो। अब तुम्हें ‘वणक्कम’ नहीं,’अस्सलामु अलैकुम’ कहना चाहिए।” उस पत्रकार ने जब बच्चे से का नाम पूछा तो भोले बच्चे ने अपनी पहले की आदत के अनुसार कहा, ‘शिवलिंगम’। पुनः सिर पर एक चपत और आदेश – “नहीं, वह नाम भूल जाओ। अब तुम ‘महमूद ग़ज़नवी’ हो।”
‘शिवलिंगम’ और ‘महमूद ग़ज़नवी’। सिक्का ही बदल गया! और भी बदले हुए नाम थे वहाँ पर – अफजलखां, मुहम्मद अली जिन्ना आदि।’ कहने की बात है कि धर्मांतरण की एक घटना के साथ ही ‘वणक्कम’ पराया हो गया और ‘अस्सलामु अलैकुम’ अपना हो गया। सोमनाथ के शिवलिंग को तोड़ने वाले विदेशी आक्रमणकारी महमूद ग़ज़नवी से नाता जुड़वा दिया। ऐसे में सम्पूर्ण हिन्दू समाज में जाति, पंथ, भाषा व दलों की सीमाओं को लाँघ कर धर्मांतरण से आपत्ति होना स्वाभाविक नहीं क्या?
इस विषय में सुदर्शन आगे लिखते हैं कि जिस धार्मिक और आध्यात्मिक आधार पर मातृभूमि के प्रति भक्ति का भाव भारत में सँवारा गया है, वह समग्र आधार ही इस्लामी चिंतन के अनुसार ‘बुतपरस्ती’ होने के कारण ‘कुफ्र’ है और इसीलिए सर्वथा त्याज्य है। वहाँ मातृभूमि के प्रति निष्ठा उत्पन्न करने का कोई आधार नहीं ,क्योंकि इस्लामी मिल्लत की संकल्पना किसी देश की सीमा को स्वीकार नहीं करती और दुनिया के सब मुस्लिमों की एक बिरादरी मानती है।
इसपर MR बेग कहते हैं, “चूँकि सिद्धान्ततः मुस्लिमों का कोई देश नहीं होना चाहिए, इसलिए इस कमी की पूर्ति उनमें अत्यधिक संघभाव के द्वारा होती है। यह विशेषता उन्हें गैर-इस्लामी देशों में वहाँ के जीवन से समरस नहीं होने देती और एक निष्ठावान मुसलमान को न विश्ववादी बनने देती है, न राष्ट्रवादी और न मानवतावादी।” निष्ठा के सम्बन्ध में सुदर्शन लिखते हैं, “भारत का बहुजन समाज मूर्तिपूजक होने से हिन्दुस्थान दारुल-हरब है, यह भाव सर्वसाधारण मुस्लिमों के मन में रहना कोई अस्वाभाविक बात नहीं है और इसलिए यह देश उसकी श्रद्धा का पात्र तब तक नहीं बन सकता जब तक यह दारुल-इस्लाम नहीं बन जाता।”
हामिद दलवाई ने पश्चिम बंगाल के मुस्लिमों की भावना का उल्लेख करते हुए एक लेख में कहा, कि “पश्चिम बंगाल का हर मुस्लिम शेख मुजीबुर्रहमान को मीर जाफर समझता है और उसे गोली से उड़ा देना चाहता है। राष्ट्रनिष्ठा और इस्लामनिष्ठा के एक द्वैत का, जिसे मुस्लिम एक गैर-इस्लामी देश में अनुभव करता है, अभी तक का इस्लामी-चिन्तन कोई समाधान नहीं खोज पाया है और इसीलिए आज इस्लाम में पंथांतरित होने का अर्थ है – उस देशनिष्ठा से दूर जाना जो किसी भी देश की राष्ट्रीयता का आधार है।”
निष्ठाओं का यही संघर्ष आखिर एक दिन शेख मुजीबुर्रहमान और उनके परिवार की निर्मम हत्या में परिणत हो गया। अम्बेडकर ने भी इसी चिंता से कि इस्लाम में दलित वर्गों का धर्मांतरण उन सभी का अराष्ट्रीयकरण कर देगा, उन्होंने इस्लाम में जाना योग्य नहीं समझा। ‘अखण्ड भारत और मुस्लिम समस्या’ में पंडित दीनदयाल उपाध्याय लिखते हैं, “मुस्लिम बनते ही पहला विचार यदि कोई करेगा तो वह है पूरी दुनिया को मुस्लिम बनाऊँगा। मुस्लिम समझता है कि जो मुहम्मद को मानता है वह अपना और जो नहीं मानता वह काफिर है। इस प्रकार वह दूसरे धर्मों के प्रति असहिष्णु हो जाता है।”
इसी कारण से, कल तक जिस व्यक्ति की प्रेरणा के जो स्त्रोत वेद, रामायण, महाभारत, गीता थे, मुस्लिम बनने के बाद वह अब एक किताब के आगे कुछ भी मानने को तैयार नहीं होगा। कल तक वह राम और कृष्ण को अपना पूर्वज मानता था लेकिन अब सोहराब और रुस्तम को मानने लगेगा। कल तक गाय को पूजता था, अब उसी को खाने की परम लालसा रखेगा। कल तक उसके नायक प्रताप और शिवाजी थे, अब वे उसके दुश्मन बन जाएँगे।
कल तक वह भारत को माता की तरह पूजता था लेकिन अब यह देश उसकी श्रद्धा का पात्र नहीं रहेगा। एकाएक उसकी निष्ठा दारुल-इस्लामिक देशों के प्रति हो जाएगी जहाँ मुस्लिम बहुमत में होंगे। और कल तक जो भारत उसकी पुण्यभूमि थी, अब उसका स्थान मक्का-मदीना ले लेंगे। दीनदयाल उपाध्याय अपनी पुस्तिका में लिखते हैं, “जो मुस्लिम मोहम्मद का अनुयायी है, यदि वह अनुयायी मात्र ही हो तो कोई चिंता की बात नहीं, पर चिंता का विषय यह है कि मुस्लिम बनने के बाद उसकी प्रकृति ही बदल जाती है। वह राष्ट्र से अलग हो जाता है और राष्ट्र के लिए शत्रु हो जाता है।