मुरादाबाद में 13 अगस्त 1980 को ईद के दिन एक बड़ा दंगा हुआ था। इस दंगे के बारे में अब तक ये कहकर प्रचारित किया जाता रहा है कि इसके पीछे अप्रवासी हिंदू (विशेषत: पाकिस्तान से आए हिंदू) शामिल थे। इस दंगे के पीछे की वजह बताया जाता है कि ईदगाह में ‘नमाजियों के बीच सुअर’ छोड़े गए थे। इस दंगे में करीब 83 लोगों की मौत हुई थी, जबकि 122 लोग घायल हो गए थे। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस दंगे की जाँच रिपोर्ट विधानसभा में रखी तो इसका खुलासा हुआ।
हैरानी की बात ये है कि 1983 में बनाई गई जाँच कमेटी की रिपोर्ट को कभी न तो सार्वजनिक किया गया था, न ही सदन के पटल पर रखा गया था, क्योंकि इससे इस दंगे के असली ‘कर्ता-धर्ता’ लोगों की पहचान सार्वजनिक हो जाती। हालाँकि, 8 अगस्त 2023 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने न सिर्फ इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज एमपी सक्सेना की कमिटी वाली जाँच रिपोर्ट को विधानसभा पटल पर रखा, बल्कि दंगों के पीछे की साजिश की कॉन्ग्रेसी और मुस्लिम लीगी कनेक्शन को बेनकाब भी कर दिया।
यही नहीं, इसे हिंदू-मुस्लिम दंगा कहकर प्रचारित किया जाता रहा, जो कि पूरी तरह गलत है। जज एमपी सक्सेना ने अपनी जाँच रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा है कि इन दंगों के लिए कॉन्ग्रेस और मुस्लिम लीग ही जिम्मेदार थे, न कि हिंदू जनता। इस रिपोर्ट में कई अहम मुस्लिम नेताओं, इमाम, हिंदू नेताओं और उस समय मौजूद रहे पुलिस अधिकारियों के बयान दर्ज हैं, जो चीख-चीख कर ये कह रहे हैं कि इन दंगों के पीछे आरएसएस, बीजेपी और हिंदू नहीं, बल्कि मुस्लिम लीग और कॉन्ग्रेस के नेता जिम्मेदार थे। उस समय केंद्र और राज्य, दोनों में ही कॉन्ग्रेस की सरकार थी।
जस्टिस सक्सेना रिपोर्ट की कॉपी ऑपइंडिया के पास मौजूद है। 496 पन्नों की इस रिपोर्ट की अहम बातों को हम आपके सामने रख रहे हैं, जिसमें मुस्लिम लीग और कॉन्ग्रेस के नेताओं की प्लानिंग की जानकारी है।
कौन थे दंगों के पीछे के बड़े चेहरे?
मुरादाबाद में कॉन्ग्रेस और मुस्लिम लीग दो बड़े खिलाड़ी थे। मुस्लिम लीग की जमात का नेतृत्व शमीम अहमद और हामिद हुसैन उर्फ अज्जी और उनके समर्थक कर रहे थे, जो उत्तर प्रदेश में मुस्लिम लीग को फिर से खड़ा करना चाहते थे। वहीं, कॉन्ग्रेसी हाफिज मोहम्मद सिद्दीकी की अगुवाई में काम कर रहे थे। इस रिपोर्ट में हिंदू पक्ष के 6 लोगों के लिखित बयान दर्ज हैं, जिसमें साफ-साफ लिखा है कि ये हिंसा अचानक नहीं, बल्कि पूर्व-नियोजित थी।
मुरादाबाद में भाजपा के तत्कालीन जिलाध्यक्ष हरिओम शर्मा का भी बयान इस रिपोर्ट में दर्ज है, जिन्होंने कहा था कि ये हिंसा बहुत बड़ी साजिश का महज एक हिस्सा भर ही थी। इस हिंसा के लिए मुस्लिम पक्ष को बाहरी देशों, इस्लामी संगठनों जैसे मुस्लिम लीग, जमीयत उलेमा-ए-हिंसा और तबलीगी-ए-इस्लाम ने फंडिंग की थी। इन्होंने नया इस्लामी राज्य बनाने के अभियान को गति देने के लिए यूपी के अलीगढ़ और मुरादाबाद को चुना था।
मुरादाबाद पीतल नगरी नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ पीतल से बने सामान अरब देशों को जाते थे, जिनकी नजर इस पूरे क्षेत्र को मुस्लिम बहुल क्षेत्र में परिवर्तित करना था। इसके लिए उन्होंने मुस्लिम लीग की सहायता से बिहार एवं पश्चिम बंगाल के मुस्लिमों को अवैध तरीके से अलीगढ़ से लेकर मुरादाबाद तक बसाया गया, ताकि उत्तर प्रदेश की जनसांख्यिकी को बदला जा सके। मुस्लिमों की बढ़ी आबादी की वजह से मुरादाबाद में लंबे समय तक सांप्रदायिक हिंसा होती रही।
हरिओम शर्मा ने अपने लिखित बयान में इस बात पर जोर डाला है कि कॉन्गेस और मुस्लिम लीग ने वोट बैंक और दबदबे की राजनीति के लिए कई गलत काम किए। इनमें 13 अगस्त 1980 के दंगे से तीन माह पहले से ही कई हिंसक वारदातों को अंजाम देने की साजिश भी शामिल थी।
दरअसल, रियाज नाम के एक मुस्लिम ने 1980 में एक दलित लड़की का अपहरण कर उसका गैंगरेप किया था। रियाज को मुस्लिम लीग नेता शमीम ने बचाने की कोशिश की। पुलिस ने बहुत कोशिश के बाद उस लड़की को बरामद कर उसे परिवार के हवाले कर दिया। पुलिस की इस कार्रवाई से मुस्लिम नाराज हो गए और दलितों के साथ उनकी तानातनी बढ़ गई।
इसी तरह, 31 मई को हुए चुनाव के दौरान हुई हिंसा में कॉन्ग्रेस के हाफिज मोहम्मद सिद्दीकी की तरफ से अप्रवासी मुस्लिमों और गुंडों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इस दौरान सिद्दीकी के समर्थकों ने ‘आधी रोटी खाएँगे, पाकिस्तान बनाएँगे’ और ‘पंजाबियों को भगाएँगे, नया असम बनाएँगे’ जैसे नारे मुरादाबाद के टाउन हॉल के बाहर लगाए।
एक अन्य घटना में जावेद नाम के गुंडे ने जून 1980 में ठाकुर समाज के युवक से रोडरेज में झगड़ा किया था, जिसमें वो काफी चोटिल हो गया था। उसे पुलिस के लोग मौके से उठाकर थाने ले जा रहे थे, तभी उसने रास्ते में दम तोड़ दिया। खुद को मुस्लिमों का सबसे बड़ा हमदर्द साबित करने के लिए मुस्लिम लीग के शमीम अहमद खान ने इसे पुलिस के हाथों हुई हत्या साबित करने की कोशिश की। रोक के बावजूद शमीम ने जावेद के शव के साथ कब्रिस्तान तक जुलूस निकाला।
इस जुलूस में कॉन्ग्रेस नेता मोहम्मद सिद्दीकी भी शामिल हुआ और भीड़ को भड़का कर पुलिस थाने पर हमला कराया, जिसमें पुलिसकर्मियों की पिटाई की गई। पूरे मुरादाबाद में ऐसे हमले हुए। एडिशनल डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट (एडीएम) डीपी सिंह को पीट-पीट कर मार डाला गया, वो भी मुरादाबाद के एसपी और डीएम के सामने। शाम के समय इस्लामिक भीड़ ने गलशहीद पुलिस चौकी (आउटपोस्ट) पर हमला बोलकर 2 पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी और हथियार लूट ले गए। थाने को भी आग लगा दिया। जिहादियों ने नारे लगाए कि वो ‘अधिकारियों को चैन से नहीं जीने देंगे’।
इसी कड़ी में अगला मामला उसी दलित समाज की बच्ची से जुड़ा था, जिसे मुस्लिमों ने अगवा कर रियाज ने गैंगरेप किया था। पुलिस पर हमले की घटनाओं के बाद बच्ची के परिजन डर गए और लड़की की शादी तय कर दी। 27 जुलाई को जब बारात इंदिरा चौक पहुँची तो मुस्लिम भीड़ ने उन पर पत्थरबाजी शुरू कर दी। इस दौरान हथियारबंद मुस्लिमों की भीड़ ने दलितों के घरों में आग भी लगा दी। कई लोग घायल हो गए, जिसमें बनवारी नाम के युवक की मौत भी हो गई।
इस दौरान उन्होंने पुलिस की गाड़ी को भी आग लगाने की कोशिश की। इस मामले में दलित वाल्मीकि समुदाय ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई, लेकिन ताकतवर मुस्लिम दंगाईयों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। इस मामले में गवाह दयानंद गुप्ता ने बताया कि मुस्लिमों ने शहर भर में सुअरों को जहर देकर मारना शुरू कर दिया।
इन सब घटनाओं की वजह से मुरादाबाद में तनाव और गहरा गया। इसका फायदा मुस्लिम लीग और कॉन्ग्रेस के नेताओं ने 13 अगस्त 1980 को ईद के दिन उठाया। उन्होंने अपने समर्थकों के माध्यम से सुअरों वाली घटना को अंजाम दिया और पूरे मुरादाबाद को दंगों की चपेट में धकेल दिया।
भाजपा नेता हरिओम शर्मा ने उस दिन को याद करते हुए बयान में बताया है कि ईद के मौके पर ईदगाह के पास लगाए गए शिविरों में मुस्लिमों की भीड़ ने आग लगा दी। इसमें उन 2 शिविरों को छोड़ दिया गया, जिन्हें मुस्लिम लीग चला रही थी। उस दौरान मुस्लिम लीग के नेता अपने शिविरों (कैंप) के पास ही थे, जबकि उन्हें नमाज में शामिल होना था।
इस बात से साफ है कि वो दंगों के प्रति पहले से जानते थे और सारी साजिश उनकी रची हुई थी। हालाँकि, इस बात के कोई सबूत नहीं मिले कि ईदगाह में सुअर गए थे। इतना नहीं, इसके अलावा एक और अफवाह फैलाई गई कि पुलिस ने सैकड़ों मुस्लिमों को ईदगाह के अंदर मार दिया है।
इन अफवाहों की वजह से बड़ी संख्या में इकट्ठा हुए मुस्लिमों ने ‘हिंदुओं और पुलिस वालों को मारने और उनके घरों को जलाने के लिए नारेबाजी’ की। उनके पास जो भी हथियार थे, उनसे भीड़ ने हिंदुओं पर हमले किए। इस दौरान सभी मुस्लिम नेता उस भीड़ के समर्थन में थे।
हरिओम शर्मा ने अपने बयान में कहा कि इन सब कामों के लिए मुस्लिम नेताओं को पाकिस्तान व अन्य बाहरी देशों से मदद मिली थी। खूब पैसे और हथियार इकट्ठे किए गए थे। बाद में दंगाइयों के घरों से भारी मात्रा में हथियार बरामद हुए, जो 13 अगस्त को ईदगाह के पास हुई हिंसा और उसके बाद की हिंसा में उपयोग किए गए थे।
आरोप-प्रत्यारोप का भी चला दौर
जब यह दंगा हुआ तो उस समय कॉन्ग्रेस के तत्कालीन नेता वीपी सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उस समय केंद्रीय मंत्री रहे योगेंद्र मकवाना इन दंगों का आरोप आरएसएस, जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी पर मढ़ते रहे। वहीं, इंदिरा गाँधी ने विदेशी शक्तियों (पाकिस्तान) और सांप्रदायिक पार्टियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की।
उस समय टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक रहे गिरिलाल जैन ने उन दंगों के पीछे ‘असमाजिक तत्वों’ और मुस्लिमों को हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने इस बात के लिए आलोचना की कि मुस्लिम नेता असलियत बयान करने की जगह आरएसएस पर हिंसा का दोष मढ़ रहे हैं।
इस हिंसा के लिए वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने मुस्लिम संगठनों को कटघरे में खड़ा किया। वहीं, पत्रकार और पूर्व सांसद एमजे अकबर ने अपनी किताब ‘Riot After Riot’ में इस घटना का जिक्र करते हुए लिखा है कि ‘ये हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं था, बल्कि कैल्कुलेटेड कोल्ड ब्लडेड नरसंहार था, जिसे कम्युनल पुलिस फोर्स ने अंजाम दिया था। अपनी संलिप्तता को छिपाने के लिए उन्होंने इसे हिंदू-मुस्लिम दंगे का नाम दिया।’
इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के संवाददाता कृष्णा गाँधी ने इस नरसंहार के पीछे ‘मुस्लिम लीग के नेताओं द्वारा समर्थित अपराधियों के समूह’ को जिम्मेदार पाया। इन आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच इस दंगे की जाँच के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस एमपी सक्सेना को जाँच का जिम्मा सौंपा गया।
जस्टिस सक्सेना ने 496 पन्नों की अपनी जाँच रिपोर्ट मई 1983 में जमा की। इस रिपोर्ट में मुस्लिम लीग के नेताओं और वीपी सिंह को दंगों के लिए जिम्मेदार ठहराया। हालाँकि, पिछले 4 दशकों में इस रिपोर्ट की फाइलें एक जगह से दूसरी जगह भेजी जाती रहीं। ऐसा कम से कम 14 बार किया, लेकिन किसी भी सरकार ने इसे सार्वजनिक करने की जहमत नहीं उठाई।
योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य सरकार ने 43 साल पुरानी इस फाइल को खोलने का निश्चय किया। इस साल मई में राज्य की कैबिनेट ने जस्टिस एमपी सक्सेना कमीशन की रिपोर्ट को उत्तर प्रदेश के सदन में रखने का फैसला लिया और 8 अगस्त को सदन में रखा गया।
इस रिपोर्ट ने उन सभी अवधारणाओं को खारिज कर दिया है, जिसमें मुरादाबाद के दंगों के पीछे गलत तरीके से राष्ट्रवादी शक्तियों को जिम्मेदार बताया जाता था। इस रिपोर्ट ने साफ कर दिया है कि मुरादाबाद के दंगों के पीछे सिर्फ और सिर्फ कॉन्ग्रेसी और मुस्लिम लीग जिम्मेदार थे।