Tuesday, November 19, 2024
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‘कनाडा में रहते हैं खालिस्तानी समर्थक’ : PM जस्टिन ट्रुडो ने आखिरकार खुद खोली अपनी पोल, PM मोदी के प्रति नफरत दिखाने से नहीं चूँके

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने हाल ही में यह स्वीकार किया है कि कनाडा में खालिस्तान समर्थक मौजूद हैं। उनका यह बयान ऐसे समय में सामने आया है जब भारत पहले ही कनाडाई सरकार पर आरोप लगा चुकी है कि वह खालिस्तान समर्थकों को पनाह देते हैं।

ट्रूडो ने खालिस्तानियों की मौजूदगी की बात स्वीकारते हुए थोड़ी लीपापोती भी की। उन्होंने आगे कहा कि कनाडा में खालिस्तान समर्थक है लेकिन ये खालिस्तानी सिख समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं ठीक वैसे ही जैसे कनाडा में मोदी समर्थक हैं लेकिन वो हिंदुओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते।

बता दें कि जस्टिन ट्रुडो की यह टिप्पणी भारत और कनाडा के संबंधों पर असर डालने वाली है। वैसे ही 2023 में दोनों के पबीच संबंधों में उस वक्त से खटास है जब से ट्रुडो सरकार ने निज्जर की हत्या में भारतीय एजेंटों की भूमिका होने की बात कही थी और भारत ने ऐसे आरोपों को खारिज कर दिया था।

इसके बाद भारतीय उच्चायुक्तों को निशाना बनाया गया तो भारत ने ओटावा में अपने उच्चायुक्तों को वापस बुला लिया। साथ ही कनाडाई राजनयिकों को निष्कासित भी कर दिया। मगर ट्रुडो सरकार द्वारा भारत पर आरोप लगाने का सिलसिला थमा नहीं। वो खुलकर खालिस्तानियों को समर्थन देते रहे।

हाल में हिंदुओं पर जब ब्रैम्पटन में हमला हुआ तो ये एकदम साफ था कि हमला खालिस्तानियों ने किया है लेकिन ट्रुडो ने इस हमले के मामले में खालिस्तानियों की आलोचना नहीं की। ट्रूडो ने कहा कि हिंसा करने वाले लोग किसी भी समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करते। उन्होंने कहा, “यहाँ हिंसा, असहिष्णुता या धमकी के लिए कोई जगह नहीं है।”

जिस जगह पर भगवान राम ने की महादेव की पूजा, वहाँ मंदिर के पास खड़ी कर दी मस्जिद-मजार: हिंदू संगठन बोले- कोरोना के दौरान छिपकर हुआ निर्माण, इलाके में ‘टोपी वालों’ की गतिविधि बढ़ी

उत्तर प्रदेश के बाँदा में जिस जगह पर भगवान राम ने भगवान शंकर को जलाभिषेक की थी, वहाँ अवैध रूप से एक मस्जिद बना दी गई है। इसको लेकर विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल ने विरोध प्रदर्शन किया है और उस अवैध मस्जिद को गिराने की माँग करते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखा है। बाम्बेश्वर पर्वत पर स्थित उस शिवलिंग को बमदेव भोलेनाथ की मंदिर के नाम से जाना जाता है।

विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल का आरोप है कि कोरोना काल के जब हर तरफ लॉकडाउन था, उस दौरान इस पर्वत पर मुस्लिमों ने चुपके से एवं अवैध रूप से मस्जिद का निर्माण कर लिया था। VHP के मंडल अध्यक्ष अशोक ने कहा कि वहाँ पर आधा दर्जन मजारें भी बना ली गई हैं। पहाड़ पर रोज फतिहा और हर शुक्रवार को जुमे की नमाज पढ़ी जाती है।

हिंदू संगठनों का आरोप है कि इस जगह पर कोई मुस्लिम बस्ती नहीं थी, लेकिन अब काफी तादाद में यहाँ मुस्लिम हने लगे हैं। इससे सुरक्षा को लेकर खतरा पैदा हो गया है। ऐसे में मस्जिद और अवैध ढाँचों को गिराने के लिए विश्व हिंदू परिषद के अधिकारियों ने जिला कलेक्टर और पुलिस कप्तान के साथ-साथ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखा है।

पत्र में कहा गया है कि इस्लाम धर्म के लोग भारत का इस्लामीकरण करा रहे हैं। हिंदू संगठनों का कहना है कि वे इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे। अगर सरकार ने इसे नहीं हटाया तो वे इस मस्जिद को गिरा देंगे। हिंदू संगठनों की माँग है कि अवैध मस्जिद एवं मकबरे का बनाने वालों को तत्काल जेल में डाला जाना चाहिए और अवैध ढाँचों एवं उसे बनाने वालों के मकानों पर बुलडोज़र चलना चाहिए।

विश्व हिंदू परिषद के चंद्रमोहन बेदी ने कहा कि यह पर्वत बहुत पुराना है। यहाँ पर पीछे की तरफ कुछ लोगों ने अवैध रूप से मजार बनाई और फिर उसे धीरे-धीरे मस्जिद में बदल दिया। उन्होंने कहा कि लोगों को अंधविश्वास में डाल दिया और जगह हथिया ली। उन्होंने पूछा कि जब सतह पर पत्थर ही पत्थर हैं तो मजार कैसे बन सकती है। मजार बनाने के लिए खुदाई होती है, लेकिन पत्थर पर खुदाई कैसे होगी।

VHP के महामंत्री दीपू दीक्षित ने बताया कि शुरू में मुस्लिमों ने पर्वत के एक पत्थर को हरे रंग से पोता फिर धीरे-धीरे इस पर मजार बनाई। फिर इस पर एक बड़ी मस्जिद बना दी। इसके बाद काफी लोग यहाँ टोपी लगाकर आना शुरू हो गए। दीपू ने कहा कि यह एक कैंसर का रूप है। इसे तत्काल जड़ से काटकर फेंक देना चाहिए, वरना यह पूरे शरीर को खराब कर देगा।

बाम्बेश्वर पर्वत पर बने प्राचीन मन्दिर के पुजारी पुत्तन महाराज ने और मंदिर कमिटी के अध्यक्ष ने भी मस्जिद का विरोध किया है। उनका कहना है यह यह स्थिति अयोध्या और काशी मथुरा जैसी बन सकती है। इस मंदिर को लेकर मान्यता है कि भगवान राम ने अपने वनवास के दौरान यहाँ के शिवलिंग पर जलाभिषेक किया था। इस दौरान भगवान शंकर ने उन्हें दर्शन दिया था।

‘मैं हिंदू हूँ इसलिए प्रोफेसर एहतेशाम 3 साल से जान-बूझकर कर रहे हैं फेल’: छात्रा के आरोप पर AMU का दावा- नकल करते पकड़ी गई थी, अब जाँच कमिटी बताएगी सच्चाई

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) की एक हिन्दू छात्रा ने आरोप लगाया है कि मुस्लिम ना होने के कारण उसके साथ भेदभाव हो रहा है। छात्रा ने कहा है कि उसे गैर मुस्लिम होने के कारण लगातार तीन साल से फेल किया जा रहा है। AMU ने इस मामले में छात्रा के आरोपों को नकारते हुए जाँच के लिए एक कमिटी बना दी है।

AMU में BA LLB कर रही छात्रा अवंतिका गौर ने यह आरोप लगाए हैं। अवंतिका पहले वर्ष की छात्रा हैं। अवंतिका ने कहा है कि उन्होंने 2021 में एडमिशन लिया था लेकिन उन्हें लगातार 3 बार फेल किया गया। अवंतिका ने फेल करने का आरोप इतिहास के प्रोफ़ेसर एहतशाम पर लगाया है।

एहतशाम इसी विभाग के प्रोफ़ेसर हैं। अवंतिका ने इस संबंध में 3 नवम्बर, 2024 को AMU परिसर के भीतर धरना भी दिया था। छात्रा का कहना था कि उसको फेल किए जाने कि वजह यह है कि मुस्लिम नहीं है। अवंतिका के आरोपों को लेकर अब AMU प्रशासन ने भी जवाब दिया है।

AMU के प्रॉक्टर मोहम्मद वसीम और डिप्टी प्रॉक्टर मोहम्मद हशमत अली ने इन आरोपों को नकारा है। AMU के कंट्रोलर मुजीबुल्लाह जुबेरी ने कहा अवंतिका 2021 में AMU में आईं थी और पहले साल वह फेल हो गईं थी। जुबेरी ने बताया कि 2022 में अवंतिका को नक़ल करते हुए पकड़ा गया था।

जुबेरी का कहना है कि 2023 में भी अवंतिका 3 विषयों में फेल हो गईं थी क्योंकि उन्होंने 5 में से 3 विषयों के जवाब लिखे थे। जुबेरी ने कहा है कि अवंतिका के आरोपों को लेकर AMU ने इतिहास विभाग के प्रोफ़ेसर मानवेन्द्र कुमार पुंडीर की अध्यक्ष में एक कमिटी का गठन कर दिया है जो इस मामले की जाँच करेगी।

अवंतिका ने माँग की थी कि उनकी कॉपी किसी और प्रोफ़ेसर से चेक करवाई जाए। जुबेरी ने कहा कि इस संबंध में उन्हें कोई आवेदन नहीं मिला है। उन्होंने कहा है कि कमिटी जैसी रिपोर्ट पेश करेगी, वैसा ही एक्शन अवंतिका के मामले में लिया जाएगा।

लोकसभा की तरह महाराष्ट्र चुनाव में भी ‘वोट जिहाद’ की तैयारी, मुस्लिमों को साधने में जुटे 180 NGO: रोहिंग्या-बांग्लादेशियों के बढ़ते दखल पर TISS भी कर चुका है आगाह

मुंबई की जानी-मानी यूनिवर्सिटी टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस में हाल में एक अध्य्यन हुआ था जिससे ये पता चला कि मुंबई में रोहिंग्याओं और बांग्लादेशी घुसपैठियों का प्रभाव बढ़ रहा है। अब इसी के बाद एक जानकारी और सामने आई जिससे ये खुलासा हुआ है कि महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों से पहले मुस्लिम वोटों को बीजेपी के खिलाफ लामबंद करने के लिए 180 से ज्यादा एनजीओ काम कर रहे हैं। इन एनजीओ ने केवल मुंबई में 9 लाख मुस्लिम मतदाताओं को जोड़ा है।

रिपोर्टों के अनुसार, ये एनजीओ के लोग मुस्लिम समुदाय के बीच जाते हैं, उन्हें समझाते हैं और फिर इनका इस्तेमाल वोटिंग टर्नआउट बढ़ाने के लिए किया जाता है। कहने को ये एनजीओ इसलिए जागरूकता फैला रही हैं ताकि मुस्लिम मतदाता अपने अधिकारों का सहीं इस्तेमाल करें। लेकिन, ये सभी जानते हैं कि इस्लामी कट्टरपंथियों के लिए वोट का सही इस्तेमाल असल में भाजपा को सत्ता से बाहर निकालने से अधिक कुछ भी नहीं है।

इन इस्लामी संगठनों ने पिछले कुछ महीनों में मुस्लिम समुदाय के लोगों के बीच पहुँच बनाने के लिए कई अभियान चलाए हैं। इस दौरान इन्होंने सैंकड़ों बैठकें की, सूचना सत्र आयोजित किए और सामुदायिक कार्यक्रम किए…। हाल में कुछ ऐसी कुछ बैठकों की वीडियो भी सोशल मीडिया पर सामने आई। वीडियोज में देखा जा सकता है कि कि कैसे मुस्लिमों को भाजपा के खिलाफ भड़काया और इंडी के समर्थन में वोट देने के लिए कहा जा रहा है।

आपको पता हो कि ये एनजीओ सिर्फ मुस्लिमों को इकट्ठा करके उन्हें वोटिंग के अधिकार का इस्तेमाल करने को नहीं कहते बल्कि वो किसे वोट दें इस बात को भी सुनिश्चित किया जाता है। मजहबी उलेमा बताते हैं कि उनके अनुयायी किसे वोट दें और किसे बिलकुल नहीं नहीं।

बता दें कि चुनावों से पहले भाजपा के खिलाफ मुस्लिमों को एकत्रित करने का काम जो ये एनजीओ कर रहे हैं वो चिंताजनक है।

क्यों? अगर इसे समझना है जो TISS की स्टडी में क्या कहा गया इसे जानना होगा।

मुंबई में बढ़ रही रोहिंग्या और मुस्लिमों की घुसपैठ

हाल में TISS ने ‘मुंबई में अवैध अप्रवासी: सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिणामों का विश्लेषण’ शीर्षक से किए गए अध्य्यन में जो निष्कर्ष आए, उन्हें सबके आगे पेश किया था। हैरानी की बात यह है कि इस रिपोर्ट से साफ पता चलता है कि कुछ राजनीतिक संस्थाओं ने वोट बैंक की राजनीति के लिए अवैध घुसपैठियों का इस्तेमाल करके लोकतांत्रिक प्रक्रिया बाधित की और घुसपैठियों के फर्जी पहचान पत्र बनवाकर उन्हें चुनाव का हिस्सा बनवाया।

इस रिपोर्ट में महाराष्ट्र के इलाकों में हुए जनसांख्यिकी बदलाव की ओर ध्यान उजागर किया गया है।बताया गया है कि मुंबई में 1961 में हिंदुओं की आबादी 88% थी, जो 2011 में घटकर 66% रह गई। इस दौरान, मुस्लिम जनसंख्या 8% से बढ़कर 21% तक पहुँच गई। यदि यह प्रवृत्ति जारी रही, तो अनुमान है कि 2051 तक हिंदू आबादी 54% से कम हो जाएगी और मुस्लिम आबादी लगभग 30% तक बढ़ सकती है।

टिस की स्टडी का शीर्षक

रिपोर्ट में साफ कहा गया कि बांग्लादेश और म्यांमार से आने वाले अवैध प्रवासियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। विशेष रूप से, बांग्लादेशी और रोहिंग्या समुदाय के लोग झुग्गी क्षेत्रों में बस रहे हैं, जिससे मुंबई के सामाजिक और आर्थिक ढांचे पर दबाव बढ़ रहा है। इसके अलावा मुंबई के स्थानीय लोगों और अप्रवासी समुदायों के बीच आर्थिक असमानताओं की वजह से समाजिक तनाव, हिंसा की घटनाएँ , महिलाओं की तस्करी के मामले, देह व्यापार में भी वृद्धि हो रही है।

लोकसभा चुनावों में एनजीओ की बैठकों का दिखा था असर

गौरतलब है कि एक ओर मुंबई में बढ़ रही घुसपैठ की रिपोर्टें हैं और दूसरी ओर विधानसभा में मुस्लिमों को एकजुट करने की… दोनों खबरें एकदूसरे से अलग नहीं हैं। महाराष्ट्र में बढ़ती मुस्लिम घुसपैठियों की आबादी, उन्हें मिलते संरक्षण का परिणाम क्या होता है ये मई-जून में हुए लोकसभा चुनावों में हमने देखा था। मुस्लिमों को इसी तरह एकजुट करके, समझाकर उन्हें भाजपा के विरोध में वोट डालने के लिए कहा गया था।

खुलेआम फतवे निकाले गए थे कि मुस्लिमों को पुणे, शिरुर, बारामती और मावल निर्वाचन क्षेत्रों से क्रमशः कॉन्ग्रेस, एनसीपी (शरद पवार) और शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) का प्रतिनिधित्व करने वाले उम्मीदवारों को ही वोट देना है। मौलाना सज्जाद नोमानी ने तो एक कार्यक्रम में कहा था कि आज वोट देने वाले हर मुसलमान को अपने समुदाय के पक्ष में अपने अधिकार का इस्तेमाल करना चाहिए। उन्होंने मुसलमानों के मन में यह डर भी भर दिया कि अगर मोदी सत्ता में आए तो सभी मज़ार और मदरसे जमींदोज कर दिए जाएँगे। मुंबई में शिवसेना (यूबीटी) द्वारा आयोजित रैली में इस्लामी झंडे भी लहराए गए।

नतीजे क्या हुए ये सबने देखा। लोकसभा चुनावों में मुस्लिम क्षेत्रों में मतदान प्रतिशत काफी बढ़ गया था। उदाहरण के लिए, शिवाजी नगर, मुम्बादेवी, बायकुला, और मालेगाँव सेंट्रल जैसे क्षेत्रों में मतदान की दर 60% से अधिक रही। वहीं अंतिम नतीजों की बात करें तो एकनाथ शिंदे की अगुआई वाली शिवसेना ने लोकसभा चुनावों में 7 सीटें हासिल कीं, बीजेपी ने 9 सीटें जीतीं, जबकि एनसीपी (शरद पवार), कॉन्ग्रेस और उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना की पार्टियों ने मुस्लिम और वामपंथी समर्थन हासिल करके क्रमशः 8, 13 और 9 सीटें हासिल कीं।

उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र में मुस्लिम इस बार भी लोकसभा चुनावों की तरह वोटिंग करने के लिए तैयार हैं। उनके पास पहले अलग-अलग विकल्प थे कि वो शरद पवार की एनसीपी को वोट दें या कॉन्ग्रेस को, एआईएमआईएम को दें या फिर उद्धव ठाकरे की शिवसेना को… लेकिन इस बार उन्हें पहले ही समझाया जा चुका है कि उन्हें अपने वोट बँटने नहीं देना नहीं है। संगठित होकर एक उम्मीदवार को जिताना है जो उनके हित में काम करे। वो चाहे इंडी गठबंधन का हो या फिर उनका चुना कोई अन्य।

जो बीदर किला ASI की संपत्ति, उसके 17 ‘स्मारकों’ को अपनी प्रॉपर्टी बता रहा है कर्नाटक वक्फ बोर्ड: किसानों की 1200 एकड़ जमीन पर भी ठोक चुका है दावा

देश के विभिन्न राज्यों के वक्फ बोर्डों का मुँह सुरसा की फैलता जा रहा है। कर्नाटक वक्फ बोर्ड ने अब राज्य के ऐतिहासिक बीदर किले के अंदर स्थित 17 स्मारकों को अपनी संपत्ति के रूप में चिन्हित किया है। ये संपत्तियाँ किले के प्रमुख स्थलों में से शामिल हैं। यह किला भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के तहत है। हालाँकि, ASI को अभी तक इसकी जानकारी नहीं है।

बीदर किला परिसर में स्थित 60 संपत्तियों में से 17 पर राज्य वक्फ बोर्ड ने अपना दावा किया है। इन संपत्तियों में प्रसिद्ध 16 खंबा (सोलह खंभे वाली) मस्जिद, बहमनी शासकों और उनके परिवार के सदस्यों की 14 कब्रें शामिल हैं। इन कब्रों में अहमद शाह-IV, उसकी बीवी, अलाउद्दीन, हसन खान, मोहम्मद शाह-III, निज़ाम, सुल्तान अहमद शाह वली और सुल्तान महमूद शाह की कब्र शामिल हैं।

वक्फ बोर्ड के एक शीर्ष अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर PTI को बताया कि इस संबंध में ASI को नोटिस नहीं दिया गया है। उसने कहा, “बोर्ड ASI को नोटिस कैसे जारी कर सकता है, जो कई दशकों से ऐतिहासिक स्मारकों का संरक्षक है।” उन्होंने कहा कि वक्फ बोर्ड के नाम पर बहुत सारी शरारतें और गलत सूचनाएँ फैलाई जा रही हैं, जिससे मुस्लिम समुदाय का नाम खराब हो रहा है।

उस अधिकारी ने कहा, “जब से विवाद शुरू हुआ है, हमने सभी नोटिस वापस लेने का फैसला किया है, क्योंकि बहुत लंबे समय से जमीन पर बैठे लोगों को बेदखल करना अन्यायपूर्ण और अवैध है।” बता दें कि इससे पहले कर्नाटक वक्फ बोर्ड ने यहाँ के किसानों की 1200 एकड़ (लगभग 2000 बीघा) जमीन पर अपना हक जता चुका है। इसको लेकर किसानों को नोटिस भी जारी किया गया है।

इस बीच, वक्फ (संशोधन) विधेयक 2024 पर संयुक्त संसदीय समिति के अध्यक्ष जगदंबिका पाल प्रभावित किसानों से बातचीत करने के लिए 7 नवंबर को कर्नाटक के हुबली और विजयपुरा का दौरा करेंगे। भाजपा सांसद तेजस्वी सूर्या ने पाल से कुछ दिन पहले ही अनुरोध किया था कि वे विजयपुरा जिले के किसानों को वक्फ बोर्ड के साथ उनके भूमि विवादों पर चर्चा करने के लिए गवाह के रूप में आमंत्रित करें।

बेंगलुरू दक्षिण से सांसद और समिति के सदस्य सूर्या ने मंगलवार (5 नवंबर) को कहा, “वक्फ पर JPC के अध्यक्ष ने वक्फ की हिंसक कार्रवाई से प्रभावित किसानों से बातचीत करने के लिए 7 नवंबर को हुबली और बीजापुर का दौरा करने के मेरे अनुरोध को स्वीकार कर लिया है। अध्यक्ष किसान संगठनों, मठों से बातचीत करेंगे और उन्हें दी गई याचिकाएँ संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष रखी जाएँगी।”

कुछ दिन पहले किसानों से मिले तेजस्वी सूर्या ने कहा कि किसानों ने दावा किया है कि नोटिस भेजे जाने के अलावा कुछ भूमि खंडों के लिए आरटीसी (अधिकार, किरायेदारी और फसलों का रिकॉर्ड), ‘पहानी’ और म्यूटेशन रजिस्टर में कानून की उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना बदलाव किए गए हैं।

चीनी दूतावास में फिर हुई पाकिस्तानी PM शहबाज शरीफ की पेशी? अपने नागरिकों पर लगातार हमले से नाराज है बीजिंग, बता चुका है ‘असहनीय’

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने इस साल दूसरी बार बुधवार (6 नवंबर) को चीनी दूतावास का दौरा किया। इस दौरान उन्होंने कराची में चीनी नागरिकों पर गोलीबारी की निंदा की। इस गोलीबारी में दो चीनी नागरिक घायल हो गए थे। यह घटना मंगलवार (5 नवंबर) को कराची के SITE औद्योगिक क्षेत्र में हुई थी।

चीनी नागरिक कराची में लिबर्टी मील में नई मशीनरी लगाने के लिए गए थे। इस दौरान उन्होंने सुरक्षा के पुख्ता प्रबंध नहीं किए थे। रिपोर्ट में कहा गया है कि चीनी नागरिक रोजाना बुलेटप्रूफ वाहन में आते थे। उन्हें एक निजी एजेंसी और सिंध पुलिस की विशेष सुरक्षा इकाई (एसपीयू) द्वारा सुरक्षा भी प्रदान की जाती थी।

शहबाज शरीफ ने पाकिस्तान में चीनी राजदूत जियांग जैदोंग से कहा, “मैं यहाँ चीनी नागरिकों पर हुए हमले की निंदा करने और घायलों का हाल-चाल जानने आया हूँ। मैं व्यक्तिगत रूप से इस घटना में शामिल लोगों को पकड़ने की प्रक्रिया की निगरानी कर रहा हूँ और यह सुनिश्चित कर रहा हूँ कि उन्हें उचित सजा मिले।”

पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने दावा किया कि चीन पाकिस्तान का पुराना मित्र है, लेकिन ऐसा लगता है कि भारत से शत्रुता रखने वाला उशका पड़ोसी कुछ और नहीं, बल्कि चीन की कठपुतली और उपनिवेश है। ऐसा लगता है कि पाकिस्तान में चीनी नागरिकों की सुरक्षा करने में विफल रहने पर पाकिस्तानी नेता को फटकार लगाने के लिए चीन द्वारा समय-समय पर बुलाया जाता है।

हालाँकि, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री कार्यालय ने चीनी राजदूत के साथ शरीफ की मुलाकात को संवेदना व्यक्त करने और कार्रवाई का आश्वासन देने वाला एक मुलाकात बताया है। हकीकत ये है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री आमतौर पर अन्य देशों के दूतावासों का दौरा नहीं करते हैं। राजदूतों को प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा तलब किया जाता है। इससे पता चलता है कि चीन ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को तलब किया था।

CPEC प्रोजेक्ट पर काम कर रहे नागरिकों पर हमले से चीन चिंतित

अक्टूबर 2024 में बलूच विद्रोहियों ने हवाई अड्डे के पास एक कार पर घात लगाकर हमला कर दिया था, जिसमें कई चीनी नागरिक मारे गए थे। खबर है कि कराची के जिन्ना अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास हुए इन विस्फोटों में दो चीनी नागरिक मारे गए थे। बलूच लिबरेशन आर्मी के मजीद ब्रिगेड ने इस आत्मघाती विस्फोट की जिम्मेदारी ली थी।

इस साल मार्च में खैबर पख्तूनख्वा क्षेत्र में एक बाँध परियोजना पर काम कर रहे पाँच चीनी नागरिक एक आत्मघाती बम विस्फोट में मारे गए थे। बताया जा रहा है कि एक आत्मघाती हमलावर ने विस्फोटकों से लदे अपने वाहन को इन चीनी इंजीनियरों के काफिले में घुसा दिया था। उस समय चीनी नागरिक बख्त ज़हीर में CPEC से जुड़े बाँध परियोजना स्थल की ओर जा रहे थे।

इसके कुछ ही घंटों के भीतर ही प्रधानमंत्री शरीफ तनाव कम करने और अपनी संवेदना व्यक्त करने के लिए चीनी दूतावास पहुँचे। उल्लेखनीय है कि हाल के दिनों में पाकिस्तान में चीनी नागरिकों पर हमले बहुत बढ़ गए हैं और कई रिपोर्टों से पता चलता है कि इनके पीछे बलूच विद्रोहियों का हाथ है। बलूच इन परियोजनाओं का विरोध कर रहे हैं।

साल 2022 में कराची विश्वविद्यालय में एक वैन में विस्फोट हुआ था, जिसमें तीन चीनी प्रशिक्षक और उनके पाकिस्तानी चालक की मौत हो गई थी। इसी तरह साल 2021 में उत्तरी पाकिस्तान में एक बस में हुए विस्फोट में 13 लोग लोगों की मौत हो गई थी। इन मृतकों में 9 चीनी नागरिक भी शामिल थे।

हमलों को रोकने में पाकिस्तान की विफलता पर चीन नाराज़

पिछले महीने पाकिस्तान ने चीन के साथ एक संयुक्त बयान में कहा था कि उसने दक्षिण एशियाई देश में चीनी नागरिकों और परियोजनाओं की सुरक्षा बढ़ाने के लिए प्रतिबद्धता है। उस दौरान बीजिंग ने बलूच विद्रोहियों द्वारा हमलों में वृद्धि के जवाब में तत्काल सुरक्षा कदम उठाने की माँग की थी। चीन ने पाकिस्तान में चीनी नागरिकों पर हमलों की गहन जाँच की भी माँग की थी।

चीन के विदेश मंत्रालय के अनुसार, “(टीम ने) माँग की कि पाकिस्तानी पक्ष घटना के बाद की स्थिति को उचित तरीके से सँभाले और घायलों के इलाज में कोई कसर न छोड़े। इसके साथ ही घटना की सच्चाई की जाँच करे, अपराधियों को पकड़े और दंडित करे तथा पाकिस्तान में चीनी कर्मियों, संस्थानों एवं परियोजनाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कड़े कदम उठाए।”

चीनी नागरिकों की सुरक्षा को प्राथमिकता देने के बार-बार के वादों के बावजूद पाकिस्तान अपनी धरती पर चीनी नागरिकों की सुरक्षा करने में विफल रहा है। इसको लेकर चीन की नाराजगी इस तथ्य से समझी जा सकती है कि 31 अक्टूबर 2024 को चीन ने पाकिस्तान को फटकारते हुए कहा कि यह चीन के लिए अस्वीकार्य है कि उसके नागरिकों पर पाकिस्तान में बार-बार हमला किया जाए।

क्या पाकिस्तान में आएगी चीनी सेना?

अपने नागरिकों की सुरक्षा को लेकर चिंतित चीन चाहता है कि पाकिस्तान में काम कर रहे उसके नागरिकों की सुरक्षा के लिए उसके अपने बख्तरबंद वाहन और सुरक्षा बल हों। इस साल सितंबर में कहा गया था कि पाकिस्तान में काम कर रहे चीनी नागरिकों की सुरक्षा के लिए चीन और पाकिस्तान संयुक्त सुरक्षा कंपनियाँ स्थापित करने के एक समझौते पर पहुँचने के करीब हैं।

प्रस्तावित समझौते में पाकिस्तान में चीनी सुरक्षा बल शामिल मौजूद रहेंगे, जिसका पाकिस्तान ने चीनी दबाव के बावजूद पहले विरोध किया था। इस व्यवस्था के परिणामस्वरूप चीनी नागरिकों को बख्तरबंद वाहनों में इधर-उधर ले जाया जा सकता है। प्रस्ताव में वाहन-माउंटेड मोबाइल सुरक्षा उपकरण और बैलिस्टिक-संरक्षित बख्तरबंद वाहनों जैसे उन्नत सुरक्षा उपायों को शामिल करना शामिल है।

जिनकी रथ की धूल ने बदल दी राजनीति, जिनकी सांगठनिक अग्नि में तप कर निखरे नरेंद्र मोदी: 97 के हुए ‘भारत रत्न’ स्वयंसेवक

देश के पूर्व प्रधानमंत्री, भाजपा के पूर्व मुखिया और रामरथ यात्रा के नायक भारत रत्न लालकृष्ण आडवाणी शुक्रवार (8 नवम्बर, 2024) को 97 साल हो गए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें जन्मदिन की बधाई दी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि उनका यह जन्मदिन इस बार इसलिए विशेष हैं क्योंकि इसी साल उन्हें भारत रत्न दिया गया है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत के प्रमुख स्टेट्समेन में एक करार दिया है और कहा है कि उन्होंने देश के विकास के बड़ा योगदान दिया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ ही रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और बाकी नेताओं ने भी आडवाणी के जन्म दिन पर बधाई दी है।

लालकृष्ण आडवाणी भारत में राम मंदिर आंदोलन और भाजपा के प्रखर दक्षिणपंथी अवतार के लिए हमेशा ही जाने जाते रहेंगे। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिलकर देश को कॉन्ग्रेस के अलावा एक राष्ट्रव्यापी मजबूत विकल्प दिया, जो कि वामपंथ जैसी विचारधारा 5 दशक में भी नहीं कर पाई थी।

लालकृष्ण आडवाणी का जीवन भी उत्तर चढ़ाव से भरा रहा है। वह अब उन कुछ गिने चुने नेताओं में से हैं जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया है और सावरकर तथा गाँधी जैसे महान लोगों के समय के साक्षी रहे हैं। लालकृष्ण आडवाणी के जीवन परिचय में फ़िल्में-किताबें, अध्यात्म और हिंदुत्व की राजनीति, सब कुछ रही है।

कराची में जन्म, अंग्रेजी शिक्षा, पड़ोसी पारसी

लालकृष्ण आडवाणी का जन्म 8 नवंबर, 1927 को सिंध (जो अब पाकिस्तान में है) के कराची शहर में हुआ था। उनके परिवार में उनके अलावा सिर्फ उनके माता-पिता और बहन ही थे। उनके जन्म के तुरंत बाद उनके परिवार ने जमशेद क्वार्टर्स (पारसी कॉलोनी) मोहल्ले में ‘लाल कॉटेज’ नाम का एकमंजिला बँगला बनवाया था। उसी मोहल्ले में कई समृद्ध पारसी समाज के लोग रहते थे।

सिंधी हिन्दुओं की आमिल शाखा से उनका परिवार ताल्लुक रखता था। आमिल समाज के बारे में बता दें कि ये लोग लोहानो वंश के 2 मुख्य भागों में से जुड़े थे जो वैश्य समुदाय से आते थे। मुस्लिम बादशाह भी अपने प्रशासकीय तंत्र में इनकी सहायता लेते थे।

ये लोग नानकपंथी होते थे और सिख धर्म से इनकी नजदीकी थी। आगे चल कर सिंध में सरकारी नौकरियों में भी इनका दबदबा रहा। लालकृष्ण के दादा धरमदास खूबचंद आडवाणी संस्कृत के विद्वान थे और एक सरकारी हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक भी। उनके पिता किशिनचंद एक व्यापारी थे।

उनकी शिक्षा-दीक्षा ‘सेंट पैट्रिक्स हाईस्कूल फॉर बॉयज’ में हुई थी। एक ऐसे स्कूल में, जिसकी स्थापना सन् 1845 में आयरलैंड से आए कैथोलिक मिशनरियों ने की थी। वहाँ एक चर्च भी था। पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे परवेज मुशर्रफ भी उसी स्कूल से पढ़े थे। 1936-42 तक की अवधि लालकृष्ण आडवाणी के जीवन में इसी स्कूल में गुजरी। 

फिल्मों से प्रेम, किताबों का शौक

आपको ये जान कर सुखद आश्चर्य होगा कि लालकृष्ण आडवाणी बचपन में और युवावस्था में अंग्रेजी फ़िल्में देखा करते थे और खूब अंग्रेजी किताबें पढ़ते थे। सिनेमा और अंग्रेजी पुस्तकों से लालकृष्ण आडवाणी का लगाव उनके शुरुआती जीवन का एक विशेष हिस्सा है।

इसका जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘मेरा देश, मेरा जीवन‘ में भी किया है। इसमें उन्होंने बताया है कि कैसे वो अपने 4 मामाओं में सबसे छोटे सुंदर मामा के साथ अक्सर फ़िल्में देखने निकल जाते थे। उन्होंने ‘फेंकेंस्टाइन’ नामक एक डरावनी फिल्म का जिक्र किया है, जो उन्होंने उस जमाने में देखी थी।

ये 1931 की एक हॉरर फिल्म थी, जिसे पेबी वेबलिंग के एक नाटक के आधार पर बनाई गई थी। ये नाटक मैरी शेली की 1818 में आए उपन्यास पर आधारित थी। इसी के नाम पर फिल्म का नाम भी रखा गया। ‘यूनिवर्सल स्टूइडियोज’ ने इस फिल्म का निर्माण किया, जिसके के रीमेक बन चुके हैं।

लालकृष्ण आडवाणी के जीवन में एक ऐसा समय भी आया जब उन्होंने 15 वर्षों तक 1942-56 के दौरान कोई फिल्म नहीं देखी। फिर वो जब मुंबई अपने सुंदर मामा के यहाँ गए तो उन्होंने ‘हाउस ऑफ वेक्स’ नामक फिल्म देखी। ये एक थ्रीडी फिल्म थी। ये भी एक मिस्ट्री हॉरर फिल्म थी।

लालकृष्ण आडवाणी का किताबों से प्रेम उनके कॉलेज पहुँचने के बाद चालू हुआ। आडवाणी ने 1942 हैदराबाद (पाकिस्तान) स्थित दयाराम गिदूमल कॉलेज में एडमिशन लिया। कॉलेज की लाइब्रेरी में वो पुस्तकें पढ़ने में समय व्यतीत करने लगे। उनकी रूचि विदेशी व्यवस्था में अधिक थी।

उन्होंने फ्रेंच लेखक जूल्स वर्न के सारे उपन्यास पढ़ डाले – ‘जर्नी टू द सेंटर ऑफ द अर्थ’, ‘ट्वेंटी थाउजेंड लीग्स अंडर द सी’, ‘अराउंड द वर्ल्ड इन 80 डेज’ इत्यादि किताबें पढ़ी हैं। इसके अलावा लालकृष्ण आडवाणी ने चार्ल्स डिकेंस का ‘अ टेल ऑफ टू सिटीज’ और एलेक्जेंडर ड्यूमा का ‘द थ्री मस्केटियर्स’ नामक उपन्यास भी पढ़ी थी। उनकी क्रिकेट में भी रूचि थी।

संघ ने बदली जीवन की दिशा

लालकृष्ण आडवाणी के राजनीति में आने की नीँव उसी दिन पड़ गई थी जब 14 वर्ष की आयु में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) में शामिल हो गए थे। उनका RSS से जुड़ाव एक दोस्त के माध्यम से हुआ था। RSS के माध्यम से उनकी जान-पहचान पूर्णकालिक प्रांत प्रचारक राजपाल पुरी से हुई जो उनके मार्गदर्शन भी बने।

RSS में रहते हुए उन्हें द्विराष्ट्र वाले सिद्धांत के बारे में भी पता चला, जिसके तहत मुस्लिम नेता अपने लिए अलग इस्लामी मुल्क माँग रहे थे। विभाजन के बारे में सोच कर ही वो हैरान हो उठते थे। इसी दौरान उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप और गुरु गोविन्द सिंह के बारे में पुस्तकें पढ़ीं।

न लालकृष्ण आडवाणी ने राजपाल पुरी की सलाह के बाद वीर विनायक दामोदर सावरकर की 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर लिखी पुस्तक पढ़ी। नवंबर 1947 में ऐसा समय भी आया जब आडवणी सावरकर से उनके बम्बई स्थित आवास पर मिले और विभाजन को लेकर दोनों के बीच चर्चा हुई। RSS में रहते हुए ही उनका झुकाव लगातार राष्ट्रवाद की तरफ होता चला गया।

देश का बँटवारा और मुंबई में जीवन की फिर से शुरुआत

लालकृष्ण आडवाणी और उनका परिवार 1947 के बँटवारे में भारत चला आया। यहाँ वह मुंबई में आकर बसे। उनके पिता ने यहाँ फिर से व्यापार करना चालू किया जबकि आडवाणी इस दौरान संघ के कराची क्षेत्र के प्रचारक के तौर पर संगठन के काम में तल्लीन हो गए।

1947 से लेकर 1951 के के बीच लालकृष्ण आडवाणी राजस्थान के अलग-अलग हिस्सों में RSS का काम करते रहे। इसके बाद जब भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई, तो वह उसके पहले कुछ सदस्यों में से एक थे। आडवाणी 1957 आते-आते पार्टी के महासचिव बन चुके थे और बाद में वह दिल्ली जनसंघ के अध्यक्ष भी बने।

इस दौरान उनकी नजदीकी अटल बिहारी वाजपेयी से बढ़ी। वह वाजपेयी और बाकी नेताओं को उनके संसदीय कामों में मदद करते थे। आडवाणी 1970 तक दिल्ली की राजनीति में सक्रिय रहे। वह यहाँ के स्थानीय निकाय के मुखिया भी रहे। 1970 में वह पहली बार दिल्ली से राज्यसभा पहुँचे। उन्हें इंदिरा गाँधी सरकार में आपातकाल के विरोध के चलते जेल में भी डाला गया।

1977 में जब देश में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी की सरकार आई तो वह उसमें सूचना प्रसारण मामलों के कैबिनेट मंत्री बने। 1980 आते-आते जब स्पष्ट हो गया कि समाजवादी देश को कॉन्ग्रेस के सामने एक विकल्प नहीं दे सकते तो उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिल कर भाजपा की नीँव रखी।

RSS का प्रचारक बना हिंदुत्व का नायक

लालकृष्ण आडवाणी भाजपा के 1988 तक दो बार अध्यक्ष बन चुके थे। इसी दौरान देश में राम मंदिर आंदोलन तेज हो रहा था। अब तक सौम्य स्वभाव के माने जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी ने इस मंदिर आंदोलन को समर्थन देने का फैसला लिया। उन्होंने इसके लिए रामरथ यात्रा का ऐलान किया।

यह यात्रा 25 सितम्बर को सोमनाथ से निकली थी और इसको अलग-अलग प्रदेशों से होते हुए 30 अक्टूबर, 1990 को अयोध्या पहुँचना था। उनका रामरथ जहाँ से गुजरता, उसकी धूल लोग माथे में लगाते। रथ के पीछे हिन्दुओं का रेला चलता। लोग एक ही बात रटते, “लाठी-गोली खाएँगे-मंदिर वहीं बनाएँगे।”

आडवाणी की इस रथ यात्रा का प्रभाव था कि पूरे देश से कारसेवक अयोध्या में जुटने लगे। कारसेवक इस बात पर अडिग थे कि मंदिर निर्माण तो होकर रहेगा चाहे तत्कालीन प्रदेश सरकार कितना भी जोर लगा ले। इसी कड़ी में 30 अक्टूबर, 1990 को अयोध्या में कारसेवकों पर गोली भी चली जिसमें कोठारी बन्धु समेत तमाम कारसेवक मारे गए।

एक कारसेवक ने मरते हुए अपने खून से सड़क पर ‘जय श्री राम’ लिखा। यात्रा शुरू होने के बाद एक ओर देश के करोड़ों हिन्दुओं की आस्था के सेवक आडवाणी खड़े थे तो दूसरी तरफ वीपी सिंह, मुलायम सिंह और लालू यादव जैसे नेता कैसे अधिकाधिक मुस्लिम वोट बटोरे जाएं इसके लिए आपस में ही होड़ कर रहे थे।

इस यात्रा को रोक कर बिहार के समस्तीपुर में लालू यादव ने रोक लिया। लालू यादव इस कदम के जरिए अपने आप को मुस्लिमों का मसीहा स्थापित करना चाहते थे। इसके साथ ही वह दिखाना चाहते थे कि वही एक ताकत हैं जो देश में हिंदुत्व के उभार को रोक सकते हैं।

रामरथ यात्रा ने मंदिर आंदोलन को घर-घर में बहस का मुद्दा बना दिया। आडवाणी को इस मामले में निर्विवाद तौर पर आंदोलन का राजनीतिक नेता मान लिया गया। आडवाणी ने भी बिना पीछे हटे हुए कहा कि मंदिर वहीं बनाएँगे, उसको कौन रोकेगा। उन्होंने साफ़ कर दिया कि देश की अदालतें तय नहीं करेंगी कि करोड़ों के आराध्य का जन्म कहाँ हुआ।

इस आंदोलन और रामरथ यात्रा के बाद देश की राजनीति में मार्क्सवाद, वामपंथ, समाजवाद, और कॉन्ग्रेस के अवसरवाद के बराबर में हिंदुत्व और दक्षिणपंथ का एक विकल्प खड़ा हो गया। आडवाणी ने इस हिंदुत्व को देश के पटल पर ऐसी शक्ति बना दिया जिसकी काट आज तक कॉन्ग्रेस जैसी पार्टियां नहीं खोज पाई।

उपप्रधानमंत्री, भारत रत्न और पार्टी का उदय

लालकृष्ण आडवाणी मात्र हिंदुत्व के नायक ही नहीं बल्कि देश की बड़ी राजनीतिक शख्सियतों में से भी एक हैं। आडवाणी देश के उप्रधानमंत्री रहे, गृह मंत्री रहे। भाजपा के अध्यक्ष रहे और साथ ही नरेन्द्र मोदी जैसे नेताओं को उनके ही सानिध्य में राजनीति की बारीकियाँ सीखने का मौक़ा मिला।

उनके सामने ही पार्टी अब तक 6 बार केंद्र में सत्तारूढ़ हो चुकी है। उनके ही सामने पार्टी का विस्तार 2 सीटों से लेकर 300 पार तक पहुँचा है। पार्टी गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी हार्टलैंड कहे जाने वाले राज्यों से निकल कर कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों में विकल्प बनी है और उत्तर पूर्वी राज्यों में उसने कॉन्ग्रेस और वामदलों का सफाया कर दिया है।

AMU पर पैमाना सेट, पर ‘अल्पसंख्यक दर्जे’ पर फैसला सुप्रीम कोर्ट की नई बेंच करेगी: क्या है आर्टिकल 30A, विवाद कितना पुराना… जानिए सब कुछ

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे से संबंधित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार (8 नवंबर) को 1967 में दिए अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ के अपने फैसले को पलट दिया। इसमें कहा गया था कि क़ानून द्वारा बना कोई संस्थान अल्पसंख्यक संस्थान होने का दावा नहीं कर सकता। AMU अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं, इसका फैसला अब सुप्रीम कोर्ट की नियमित पीठ करेगी।

सुप्रीम कोर्ट के सात सदस्यीय संविधान पीठ ने यह फैसला 4:3 के बहुमत से सुनाया। इस पीठ की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने की। पीठ में CJI चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जेबी पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और एससी शर्मा थे। जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस शर्मा की राय बहुमत से अलग थी।

अज़ीज़ बाशा मामले को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोई संस्थान सिर्फ़ इसलिए अपना अल्पसंख्यक दर्जा नहीं खो देगा, क्योंकि उसे क़ानून द्वारा बनाया गया था। बहुमत ने कहा कि कोर्ट को यह जाँच करनी चाहिए कि विश्वविद्यालय की स्थापना किसने की और इसके पीछे ‘दिमाग’ किसका था।

सीजेआई के नेतृत्व वाली बहुमत ने कहा कि अगर वह जाँच अल्पसंख्यक समुदाय की ओर इशारा करती है तो संस्थान संविधान के अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यक दर्जे का दावा कर सकता है। इस तथ्यात्मक निर्धारण के लिए संविधान पीठ ने मामले को एक नियमित पीठ को सौंप दिया। इस मामले में अब आगे की सुनवाई नियमित पीठ में होगी।

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ इलाहाबाद हाई कोर्ट के साल 2006 के फैसले से उत्पन्न संदर्भ पर सुनवाई कर रही थी। उसमें कहा गया था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 1 फरवरी 2024 को इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। इससे पहले पीठ ने 8 दिनों तक इस मामले की सुनवाई की थी।

सुप्रीम कोर्ट के पीठ के बहुमत वाले पक्ष का तर्क

CJI की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ के बहुमत का फैसला CJI ने पढ़कर सुनाया। उन्होंने कहा कि यदि इसे केवल उन संस्थानों पर लागू किया जाए, जो संविधान लागू होने के बाद स्थापित किए गए थे तो इससे संविधान का अनुच्छेद 30 कमजोर हो जाएगा। ‘निगमन’ और ‘स्थापना’ शब्दों का परस्पर उपयोग नहीं किया जा सकता।

सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट का दृश्य (साभार: x/barandbench)

उन्होंने कहा कि केवल इसलिए कि AMU को शाही कानून द्वारा शामिल किया गया था, इसका मतलब यह नहीं है कि इसे अल्पसंख्यक द्वारा ‘स्थापित’ नहीं किया गया था। यह तर्क नहीं दिया जा सकता है कि विश्वविद्यालय की स्थापना संसद द्वारा की गई थी, क्योंकि क़ानून कहता है कि इसे विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए पारित किया गया था। इस तरह की औपचारिकता अनुच्छेद 30 के उद्देश्यों को विफल कर देगी।

बहुमत ने कहा कि औपचारिकता को वास्तविकता का रास्ता देना चाहिए। यह निर्धारित करने के लिए कि संस्थान की स्थापना किसने की, न्यायालय को संस्थान की उत्पत्ति का पता लगाना चाहिए और यह पहचानना चाहिए कि इसके पीछे ‘दिमाग’ किसका था। यह देखना होगा कि भूमि के लिए धन किसे मिला और क्या अल्पसंख्यक समुदाय ने मदद की।

CJI ने कहा कि यह जरूरी नहीं है कि संस्थान की स्थापना केवल अल्पसंख्यक समुदाय के लाभ के लिए की गई हो। यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि प्रशासन अल्पसंख्यक के पास ही होना चाहिए। अल्पसंख्यक संस्थाएँ धर्मनिरपेक्ष शिक्षा पर जोर देना चाहती हैं और इसके लिए प्रशासन में अल्पसंख्यक सदस्यों की आवश्यकता नहीं है।

इस फैसले पर असहमति रखने वाले जजों का तर्क

पीठ में बहुमत के फैसले से तीन जजों ने अलग राय रखी। जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि अल्पसंख्यक अनुच्छेद 30 के तहत कोई संस्थान स्थापित कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें किसी क़ानून के साथ-साथ यूजीसी द्वारा भी मान्यता प्राप्त होनी चाहिए। अज़ीज़ बाशा और टीएमए पाई में 11 न्यायाधीशों की पीठ के फ़ैसले के बीच कोई टकराव नहीं है।

उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत शैक्षणिक संस्थानों में विश्वविद्यालय भी शामिल हैं। अनुच्छेद 30 के तहत सुरक्षा पाने के लिए अल्पसंख्यक संस्थानों को अल्पसंख्यक द्वारा ‘स्थापित’ और ‘प्रशासित’ के संयुक्त अर्हता को पूरा करना होगा। किसी विश्वविद्यालय या संस्थान को शामिल करने वाले क़ानून के पीछे विधायी मंशा उसकी अल्पसंख्यक स्थिति तय करने के लिए आवश्यक होगी।

न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने साल 1981 में अंजुमन में पारित संदर्भ आदेश पर आपत्ति जताई, जिसमें मामले को सीधे 7 न्यायाधीशों की पीठ को भेजा गया था। हालाँकि, उन्होंने यह भी कहा कि तत्कालीन सीजेआई की अगुवाई वाली पीठ द्वारा साल 2019 में दिया गया संदर्भ विचारणीय है।

वहीं, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता ने स्पष्ट रूप से कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है और यह अनुच्छेद 30 के अंतर्गत नहीं आता। उन्होंने यह भी कहा कि साल 1981 और साल 2019 में दिए गए संदर्भ अनावश्यक थे। वहीं, जस्टिस शर्मा ने भी कहा कि अल्पसंख्यक संस्थान को धर्मनिरपेक्ष शिक्षा का विकल्प भी देना चाहिए।

उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 30 का सार अल्पसंख्यकों के लिए किसी भी तरह के तरजीही व्यवहार को रोकना और इस तरह सभी के लिए समान व्यवहार करना है। यह मान लेना कि देश के अल्पसंख्यकों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए सुरक्षित आश्रय की आवश्यकता है, गलत है। अल्पसंख्यक अब मुख्यधारा का हिस्सा हैं और समान अवसरों में भाग ले रहे हैं।

7 सदस्यीय बेंच का गठन और इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय के संदर्भ में सुनवाई

इस मामले में 7 सदस्यीय बेंच का गठन तत्कालीन CJI रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 3 जजों की बेंच द्वारा 2019 में पारित संदर्भ आदेश के परिणामस्वरूप किया गया था। यह संदर्भ 2006 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील की सुनवाई के दौरान हुआ।

इसका मुख्य मुद्दा यह था कि ‘किसी शैक्षणिक संस्थान को अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान मानने के क्या संकेत हैं? क्या किसी संस्थान को अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान इसलिए माना जाएगा, क्योंकि वह किसी धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्ति द्वारा स्थापित किया गया है या उसका प्रशासन किसी धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्ति द्वारा किया जा रहा है?’

पीठ के समक्ष जो चार विचारणीय मुख्य पहलू थे:

(1) क्या एक विश्वविद्यालय, जो एक क़ानून (एएमयू अधिनियम 1920) द्वारा स्थापित और शासित है, अल्पसंख्यक का दर्जा दावा कर सकता है,

(2) एस अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ (5 न्यायाधीशों की पीठ) में सुप्रीम कोर्ट के 1967 के फैसले की शुद्धता की जाँच, जिसने एएमयू की अल्पसंख्यक स्थिति को खारिज कर दिया था,

(3) एएमयू अधिनियम में 1981 के संशोधन की प्रकृति और शुद्धता, जिसने बाशा मामले में निर्णय के बाद विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया,

(4) बाशा मामले के निर्णय पर भरोसा करके क्या साल 2006 में एएमयू बनाम मलय शुक्ला में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा यह निष्कर्ष निकालना सही था कि एएमयू एक गैर-अल्पसंख्यक संस्थान होने के नाते मेडिकल पीजी पाठ्यक्रमों में मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए 50% सीटें आरक्षित नहीं कर सकता है।

विवाद का इतिहास

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे का विवाद लगभग 50 साल पुराना है। सन 1967 में सुप्रीम कोर्ट ने विश्वविद्यालय के संस्थापक अधिनियम में दो संशोधनों को चुनौती देने पर फ़ैसला सुनाया था। इसमें तर्क दिया गया था कि वे AMU की स्थापना करने वाले मुस्लिम समुदाय को अनुच्छेद 30 के तहत इसे प्रशासित करने के अधिकार से वंचित करते हैं।

इनमें से पहला संशोधन 1951 में किया गया, जिसके तहत यूनिवर्सिटी के सर्वोच्च शासी निकाय यूनिवर्सिटी कोर्ट में गैर-मुस्लिमों के सदस्य होने की अनुमति देता था। इसके साथ ही विश्वविद्यालय के लॉर्ड रेक्टर की जगह विजिटर को नियुक्त किया गया था, जो भारत के राष्ट्रपति थे। दूसरा संशोधन 1965 में करके AMU की कार्यकारी परिषद की शक्तियों का विस्तार किया गया था। यानी यूनिवर्सिटी कोर्ट अब सर्वोच्च शासी निकाय नहीं था।

एस अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ 1967 मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि AMU की ना ही स्थापना और ना ही प्रशासन मुस्लिम अल्पसंख्यक द्वारा किया गया था। इसके बजाय यह यह केंद्रीय विधानमंडल (अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम 1920) के एक अधिनियम के माध्यम से अस्तित्व में आया था। इस फैसले का मुस्लिम समुदाय ने कड़ा विरोध किया।

तत्कालीन सरकार ने साल 1981 में एएमयू अधिनियम में संशोधन किया और कहा कि इसकी स्थापना मुस्लिम समुदाय द्वारा भारत में मुस्लिमों की सांस्कृतिक और शैक्षणिक उन्नति को बढ़ावा देने के लिए की गई थी। इसके बाद साल 2005 में AMU ने पहली बार स्नातकोत्तर चिकित्सा कार्यक्रमों में मुस्लिमों को 50 प्रतिशन आरक्षण दिया। इसके अगले साल AMU के फैसले को इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी गई।

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने विश्वविद्यालय के आदेश और 1981 के संशोधन, दोनों को रद्द कर दिया। हाई कोर्ट ने तर्क दिया कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अज़ीज़ बाशा फैसले के अनुसार अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। हाईकोर्ट के इस आदेश को तुरंत सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। यह चुनौती केंद्र की UPA सरकार ने दी थी।

हालाँकि, साल 2016 में केंद्र की मोदी सरकार ने यूपीए सरकार वाली इस अपील को वापस ले लिया। इसके बाद साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने इसे सात जजों की बेंच को सौंप दिया। अब 7 जजों की बेंच ने बहुमत के आधार पर इस अजीज बाशा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया।

क्या होता है अल्पसंख्यक दर्जा?

संविधान में साल 2006 में शामिल अनुच्छेद 15(5) के तहत अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित करने से छूट दी गई है। AMU का अल्पसंख्यक दर्जा न्यायालय में विचाराधीन है और साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया था। इसलिए विश्वविद्यालय में एससी/एसटी कोटा लागू नहीं है।

केंद्र सरकार ने इस साल सुप्रीम कोर्ट के समक्ष तर्क दिया था कि अगर अलीगढ़ मु्स्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान घोषित किया जाता है तो यह नौकरियों और सीटों में एससी/एसटी/ओबीसी/ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण प्रदान नहीं करेगा। इसके विपरीत, यह मुस्लिमों को आरक्षण देगा, जो 50 प्रतिशत या उससे भी अधिक हो सकता है।

इसके साथ ही केंद्र सरकार ने यह भी तर्क दिया था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का ‘प्रशासनिक ढाँचा’ वर्तमान व्यवस्था से बदल जाएगा। वर्तमान व्यवस्था के तहत विभिन्न क्षेत्रों के लोगों से मिलकर बनी कार्यकारी परिषद की सर्वोच्चता प्रदान है। साथ ही राष्ट्रीय महत्व का संस्थान होने के बावजूद AMU में अन्य ऐसे संस्थानों से अलग प्रवेश प्रक्रिया होगी।

केंद्र ने यह भी तर्क दिया कि एएमयू जैसे बड़े राष्ट्रीय संस्थान को अपनी धर्मनिरपेक्ष मूल को बनाए रखना चाहिए और राष्ट्र के व्यापक हित को सर्वप्रथम पूरा करना चाहिए। वहीं, AMU की ओर से कहा गया कि केंद्र का यह मानना ​भ्रामक है कि एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा सार्वजनिक हित के विपरीत होगा, क्योंकि इससे उन्हें अन्य वंचित समूहों के लिए सीटें आरक्षित करने से छूट मिल जाएगी।

क्या है संविधान का अनुच्छेद 30?

संविधान का अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यक समुदाय के शिक्षण संस्थानों की स्थापना और उनके प्रबंधन के अधिकार से संबंधित है। यह अनुच्छेद अल्पसंख्यक समुदाय को अपनी भाषा, संस्कृति और धर्म की रक्षा एवं प्रसार के लिए शिक्षण संस्थान स्थापित करने और उसे चलाने का अधिकार प्रदान करता है। उन्हें अपने शिक्षण संस्थान में अपने धर्म एवं संस्कृति का शिक्षा देने का अधिकार होता है।

इस तरह अल्पसंख्यक समुदाय अपने संस्थान में प्रवेश, शिक्षा और परीक्षा को संचालित कर सकते हैं। इस तरह वे अपने संस्थान के नियम और कानून स्वयं तय कर सकते हैं। इसका प्रशासन भी उन्हीं के हाथ में होगा। अल्पसंख्यक समुदाय के शिक्षण संस्थानों को सरकार द्वरा मान्यता प्राप्त होना जरूरी है। अगर सरकार चाहे तो इन शिक्षण संस्थानों को वित्तीय सहायता भी प्रदान कर सकती है।

अनुच्छेद 30(1) में कहा गया है कि सभी अल्पसंख्यकों को, चाहे वे धर्म या भाषा के आधार पर हों, अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रशासन करने का अधिकार होगा। वहीं, अनुच्छेद 30(1A) अल्पसंख्यक समूहों द्वारा स्थापित किसी भी शैक्षणिक संस्थान की संपत्ति के अधिग्रहण के लिए राशि के निर्धारण से संबंधित है।

अनुच्छेद 30(2) में कहा गया है कि सरकार को सहायता देते समय किसी भी शैक्षणिक संस्थान के साथ इस आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए कि वह किसी अल्पसंख्यक के प्रबंधन के अधीन है, चाहे वह धर्म या भाषा के आधार पर हो। अनुच्छेद 29 भी अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करता है और यह प्रावधान करता है कि कोई भी नागरिक/नागरिकों का वर्ग जिसकी अपनी अलग भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे उसे बनाए रखने का अधिकार है।

संविधान सभा में हुई थी बहस

दरअसल, 8 दिसंबर 1948 को संविधान सभा ने अपनी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देने ने की आवश्यकता पर बहस की। सभा के एक सदस्य ने इस अनुच्छेद के दायरे को भाषाई अल्पसंख्यकों तक सीमित करने के लिए एक संशोधन पेश किया। उन्होंने तर्क दिया कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य को धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों को मान्यता नहीं देनी चाहिए।

वहीं, सभा के एक अन्य सदस्य ने भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी भाषा और लिपि में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के मौलिक अधिकार की गारंटी देने का प्रस्ताव रखा। वह अल्पसंख्यक भाषाओं की स्थिति के बारे में चिंतित थे, यहाँ तक कि उन क्षेत्रों में भी जहाँ अल्पसंख्यकों की आबादी काफी अधिक थी। संविधान सभा ने प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया।

महिला को अगवा कर 4 लोग ले गए जंगल, कपड़े उतार किया शोषण, गला घोंट दफना दिया: योग शिक्षिका ने ‘साँस रोक’ मौत को दी मात, सारे गिरफ्तार

कर्नाटक के बेंगलुरु से एक हैरान करने वाली घटना प्रकाश में आई है। ऐसी घटना जिसे सुन आपको लगेगा ये हकीकत या फिल्म का सीन। दरअसल मामला देवनहल्ली के पास का है। यहाँ एक योगा टीचर का कुछ लोगों ने अपहरण किया और जंगल में ले जाकर उन्हें मारने की कोशिश की। अपहरणकर्ता अपने मंसूबों में कामयाब हो ही जाते अगर योगा टीचर सही समय पर अपनी सांस रोककर मरने की एक्टिंग नहीं करती।

मामला 23 अक्तूबर 2024 का है। पुलिस ने इस मामले में महिला, किशोर समेत आरोपितों को गिरफ्तार किया है। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, एक बिंदु नाम की महिला को शक था कि योगा टीचर की उसके पति के साथ नजदीकी है। ऐसे में उसने अपने दोस्त सतीश रेड्डी, जो जासूसी एजेंसी चलाता था, उसको महिला पर नजर रखने को कहा।

सतीश योगा सीखने के बहाने महिला के संपर्क में आया और फिर उससे बोला कि वो राइफल शूटिंग सेशन के लिए उसके घर के पास चले। योगी टीचर जैसे ही कार में गई, वहाँ तीन आदमी, एक लड़का भी आ गए। इसके बाद गाड़ी रुकी धनमित्तेनहल्ली, सिडलग हट्टा तालुक के एक जंगली इलाके में।

यहाँ इन सबने महिला को धमकाया, उसके कपड़े उतारे, उसका शोषण किया और फिर उसके केबल से गला घोंट उसे मारने का प्रयास किया। इसी दौरान महिला ने अपनी सांस रोक ली। अपहरणकर्ताओं को लगा कि वो मर गई है। उन्होंने एक गड्ढे में उसका शव डाल उसपर हल्की सी मिट्टी डाल दी।

जैसे ही आरोपित वहाँ से गए। महिला जगी। अपने ऊपर की मिट्टी हटाई और भागते हुए आकर अस्पताल में एडमिट हुई। शिकायत देने के बाद जाकर ये पूरा मामला खुला। पुलिस ने इस मामले में बिंदु नाम की महिला के अलावा उसके दोस्त सतीश रेड्डी (40), रमना (34), नागेंद्र रेड्डी (35), रविचंद्र (27) और एक नाबालिग लड़के को भी गिरफ्तार किया है। सतीश, रमना और नागेंद्र आंध्र प्रदेश के रहने वाले हैं, जबकि रविचंद्र और लड़का रायचूर जिले के रहने वाले हैं।

‘झूठा और बेईमान है जस्टिन ट्रूडो’: डोनाल्ड ट्रंप का पुराना पोस्ट वायरल, बोले मस्क- चुनाव में इनका सफाया होगा; ‘The Australian Today’ पर बैन से भी घिरा कनाडा

कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो शुरुआत से अपनी हरकतों के कारण घिरते आए हैं। 2018 में कभी ट्रंप ने उन्हें स्पष्ट रूप से बेईमान और झूठा कहा था और अब कनाडाई लोग भी सोशल मीडिया पर ऐसी बातें लिख रहे हैं। हाल में कनाडा ने ‘द ऑस्ट्रेलियन टुडे’ को अपने देश में बैन किया तो इस मीडिया आउटलेट ने भी ट्रुडो को लताड़ लगाई है।

दरअसल, द ऑस्ट्रेलियन टुडे ने हाल में विदेशी मंत्री एस जयशंकर और ऑस्ट्रेलियाई विदेशी मंत्री पेनी वोंग की प्रेस कॉन्फ्रेंस को दिखाया था जिसके बाद कनाडा ने उन्हें अपने देश में ब्लॉक कर दिया। इसके बाद द ऑस्ट्रेलिया टुडे के प्रबंध संपादक जितार्थ जय भारद्वाज ने इसकी कड़ी निंदा की। उन्होंने पूछा कि अगर कनाडा की समस्या भारत से है तो वो हमें निशाना बना रहा है।

उन्होंने कहा, “हमारा पब्लिकेशन आजाद मीडिया की वकालत करना जारी रखेगा। हम अपने समुदाय की ओर से दिखाई गई एकजुटता का महत्व समझते हैं। सूचना की स्वतंत्रता और दर्शकों के विविध दृष्टिकोणों तक पहुँचने के अधिकार को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं।”

बता दें कि सिर्फ ‘द ऑस्ट्रेलियन टुडे’ ने ही नहीं, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने भी इस मामले पर तीखी प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने कहा कि कनाडा की ऐसी कार्रवाई से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति पाखंड की बू आती है।

वहीं, एक्स के मालिक एलन मस्क तो खुलेआम उनका विरोध कर रहे हैं। किसी ने एक ट्वीट में एलन मस्क से कहा कि वो अपने देश कनाडा में ट्रुडो से मुक्ति चाहते हैं तो एलन मस्क ने जवाब दिया कि चिंता न की जाए अगले चुनावों में ट्रुडो का सत्ता से हटना निश्चित है।

इसके अलावा डोनाल्ड ट्रंप के कुछ पुराने ट्वीट भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं। अपने ट्वीट में उन्होंने बताया था कि किस तरह जी7 में ट्रुडो का रवैया अलग था और बाद में प्रेस कॉन्फ्रेंस के समय अलग। उन्होंने ट्रुडो को उस समय पोस्ट में बेईमान और बहुत धरा हुआ व्यक्ति बताया था।