हाँ, मैं संवेदनहीन हो गया हूँ। मेरे देश में मौतें होती रहती हैं और जान महज एक संख्या बन कर रह गई है- चाहे वो किसी ग़रीब की हो, बच्चे की हो या फिर बलिदानी जवानों की हो। मैं संवेदनहीन हो गया हूँ क्योंकि हर दिन, हर पल, हर घण्टे और हर मिनट कोई न कोई मर रहा है। मेरे देश की बुनियाद ही मौत पर रखी गई थी। मेरा देश जब बँटा था, तभी 20 लाख लोग मारे गए थे। जब मेरे देश के राष्ट्रपिता की हत्या हुई थी, तब भी 10 हज़ार ब्राह्मणों को मार डाला गया था। मेरे देश में मौत महज एक आँकड़ा है, गणित है, अंक है।
मेरे देश में बच्चे जन्म लेते मारे जाते हैं। कई तो पैदा होने से पहले भी मार दिए जाते हैं। अरे, 10 लाख शिशु तो अकेले 2017 में मर गए थे। पानी, स्वच्छता, स्वास्थ्य सेवा और अच्छा पोषण नहीं मिला था। ख़ैर, मुझे इसका बहुत दुःख हुआ। लेकिन हाँ, मेरा दुःख तभी गायब हो गया जब मुझे पता चला कि 2 लाख लड़कियाँ हर साल तो पैदा होने से पहले पेट में ही मार दी जाती हैं। मेरे देश में माँ-बाप ही ऐसे हैं तो सरकार की क्या तारीफ़ करूँ। मेरा देश महान है।
अब आप बताइए, मेरे देश में ये सब नॉर्मल है या नहीं? संवेदनाएँ क्यों जताएँ? कहाँ से लाऊँ मैं इतनी संवेदनाएँ? नहीं हैं, आती ही नहीं हैं। जनसंख्या ज्यादा है न। इतनी ज्यादा है कि 50 हज़ार माँए तो प्रत्येक वर्ष अपने बच्चे को जन्म देकर ही मर जाती हैं। बच्चे रह जाते हैं, जिनमें से बहुतेरे अनेक कारणों से बाद में मर जाते होंगे। मैं चैंपियंस ट्रॉफी देखता हूँ, आईपीएल देखता हूँ, वर्ल्ड कप देखता हूँ और कभी-कभी तो हॉकी-फुटबॉल वगैरह में भी रुचि दिखाते हुए भारत को चीयर करता हूँ।
हमारे यहाँ तो एक आंदोलन भी पैदा होता है तो कुछेक हज़ार को यूँ ही निगल जाता है। 35 हज़ार तो इस्लामिक आतंकियों ने स्वर्ग भेज दिए। बाकी जो कुछेक थे, उनमें से 15,000 से अधिक नागरिकों को तो नक्सलियों ने ही निपटा दिया। मेरे देश में पेट भरने वाला भी मरता है। मरता नहीं है, ख़ुद को मारता है। पिछले 25 वर्षों में 3 लाख किसानों ने आत्महत्या की। मौसम की मार, कम पैदावार, पानी की कमी, सरकार की अनदेखी- तमाम कारण है, क्या-क्या गिनाएँ? हाँ, मौतें गिनी जाती हैं हमारे यहाँ, कारण नहीं।
जब सरकारी डेटा ही कहता है कि पिछले 12 वर्षों में 40 लाख मौतें ऐसी थी, जो टाली जा सकती थीं। लेकिन यमराज की ग़लती, ले गए। 40 लाख अप्राकृतिक मौतें। क्या किया जाए? बारिश आती है तो मर जाते हैं, गर्मी बढ़ती है तो मरते हैं, शीतलहर से भी मरते हैं। जिनके आँकड़े अब सौ में गिनाउँगा तो शायद आपको अच्छे न लगें, इसीलिए मैनें ज्यादा खँगाला ही नहीं। अरे हाँ, हमारे यहाँ तो राजनीतिक पार्टियाँ भी मारती हैं। ना ना, बंगाल और केरल के आँकड़े कम हैं, चुभेंगे। 1984 में 20 हज़ार सिखों को काट डाला गया था।
इस्लामिक आतंक की पैरवी करने वाले भी बैठे हैं, नक्सलियों के भी हित चाहने वाले बैठे हुए हैं, ऐसे में स्वास्थ्य और स्वच्छता सेवाओं की हालत जर्जर होने से मरने वालों का पूछना ही क्या? स्वच्छता अभियान के दुश्मन बैठे हैं, आयुष्मान भारत के दुश्मन बैठे हैं, उज्ज्वला योजना के दुश्मन बैठे हैं और योग दिवस के दुश्मन तो आपको अभी दिखेंगे। क्या किया जा सकता है? जहाँ इतने लोग सिर्फ़ एक कारण से मर जाते हों, जितनी यूरोप के कई देशों की जनसंख्या है, तो कैसे होगा विकास?
मैंने देखा है मातृत्व मृत्यु दर में अभूतपूर्व कमी होते, मैंने देखा है शिशु मृत्यु दर को लगातार घटते, मैंने देखा है नक्सलियों-आतंकियों के कारण होती मौतों को घटते, मैंने देखा है आतंकियों और नक्सलियों का सफ़ाया होते। जिसके कारण यह सब देखने को मिल रहा है, उसका मनोबल कैसे तोड़ दूँ? किसी के घर में भी मृत्यु होती है तो रिश्तेदार 3 दिन बाद हाहा-हीही करते मिलते हैं, मैं अप्राकृतिक मौत की बात कर रहा हूँ। वो तो प्रधानमंत्री है, वो नहीं रुक सकता, एक पल भी नहीं, सब कुछ सामान्य रहेगा पहले की ही तरह।
मैंने देखा है उज्ज्वला के आने के बाद से फेफड़े व श्वास रोगों में कमी आते, देखा है छोटे बच्चों (चूल्हे की वजह से जिनकी श्वास नाली काली पड़ जाती थी) को लाभ होते। प्रधानमंत्री सब जानता होगा। शायद उसे मुजफ्फरपुर वाली घटना भी पता होगी, अगर ग़लती हुई है तो उसे एहसास भी होगा, लेकिन हाँ, फिर भी जो सारी अन्य प्रक्रियाएँ हैं, क्रियाकलाप हैं- सब सामान्य तरीके से पूर्ववत चलते रहेंगे। संसद भी चलेगी। सब अच्छे नहीं हैं, एक पर सब टिका है, कब तक टिका रहेगा यह समय बताएगा।
जनता को क्या करना चाहिए? शायद हमें अब सिर्फ़ और सिर्फ़ समाधान की चर्चा करनी चाहिए, कहीं उसके कानों तक पहुँचे। चीजें अस्पताल और संसद भवन से नहीं, किसी गाँव के गंदे मुसहरटोली से शुरू होनी चाहिए यह सरकार को बताना पड़ेगा। गोरखपुर व आसपास के 14 ज़िलों में जो इसी पार्टी की सरकार ने सिर्फ़ 1 साल में कर दिखाया है, बिहार में भी उसे कर दिखाना होगा। मेरे देश को ऐसा बनना पड़ेगा, जहाँ एक भी मौत पर पूरा भारत उस दिन के लिए बन्द रहे। उसके लिए स्वच्छता और स्वास्थ्य पर नीचे, बहुत नीचे, काफ़ी नीचे से काम करना होगा।
सरकार को दिक्कतें आती हैं। जब तक राज्य, जिला या फिर स्थानीय जनप्रतिनिधि और प्रशासन कोई कार्ययोजना नहीं बनाएगा, तब तक केंद्र फंडिंग किस चीज के लिए करेगा? जहाँ तक मैंने देखा है, केंद्र ने रुपयों को लेकर अनदेखी नहीं की है। हाँ, ज़िम्मेदारियाँ नहीं निभाई गई हैं- स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा, प्रशासन द्वारा। अब केंद्र सरकार को मॉनिटरिंग की व्यवस्था करनी पड़ेगी, दिन दर दिन, हफ्ता दर हफ्ता। शायद तब कहीं बात बने। जहाँ कुछ भी नहीं है, सब कुछ जीरो है- वहाँ दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का पीएम आकर भी कुछ नहीं कर सकता, वह लाचार है। उससे नहीं होगा। उससे कुछ नहीं होगा।
लेकिन अगर उसने जीवन स्तर बेहतर बनाने का वादा किया है तो वह कर के दिखा देगा, जैसा कि उसने कई क्षेत्रों में किया है। मैं अपने लिए कुछ नहीं माँगता, मेरे देश में ये जो मौतें सामान्य हो गई हैं, जो कारक इसके पीछे काम कर रहे हैं, उसे ठीक कर दो। तुम नहीं ठीक करोगे तो कोई ऐसा आकर बैठ जाएगा, जिससे लोग कुछ माँग ही नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें पहले से पता होगा कि कोई फायदा नहीं है जैसे 2014 के पहले 10 साल तक हुआ था।
योग ज़रूरी है, स्वच्छता ज़रूरी है- पीएम ने झाड़ू पकड़ा तो यह जनांदोलन बन गया। पीएम ने योगाभ्यास किया तो यह गलियों से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक पहुँच गया। जैसे वित्त मंत्रालय में 30 के करीब सुस्त अधिकारियों को भगा दिया गया है, ऐसा ही आमूलचूल परिवर्तन स्वास्थ्य मंत्रालय में भी कर दो। काम कहाँ अटक रहा है, देखना पड़ेगा। कुछ ऐसा ही उठा लो हाथ में, जिससे स्वास्थ्य सेवाएँ भी जन आंदोलन बन कर घर-घर पहुँच जाए। हो सकता है, हुआ है, तुमने किया है, ये भी कर दो। क्योंकि मुझे पता है कोई और नहीं कर सकता।
नेताओं को तो जनता ने चुना है लेकिन परफॉरमेंस के आधार पर जयशंकर, हरदीप पुरी और अजीत डोभाल जैसे लोगों को आगे बढ़ा कर काम कराने वाला व्यक्ति यह भी कर देगा। अब देखना है, इस बजट में सुशील मोदी क्या कार्ययोजना बना कर जाते हैं और किस चीज के लिए फंडिंग बढ़ाने की बात करते हैं। जो भी हो, सुशील मोदी कुछ चूक करे या नीतीश कुमार, गाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही पड़नी है, पड़ती रही हैं, भले ही लोगों को यह तक न पता हो कि ये एकमात्र पीएम है जो अधिकारियों के साथ बैठक पर बैठक कर के 100 दिन का एजेंडा तय करवा रहा है।
चीजें अब मध्यम वर्ग से नीचे, ग़रीब, अत्यंत ग़रीब और धनहीनों तक पहुँचनी चाहिए। काम में रफ्तार चाहिए। कुछ मंत्री अच्छे हैं तो वहाँ काम सही से हो रहा और कुछ अगर औसत भी हैं तो काम ख़राब हो रहा। लेकिन सही कहते हैं लोग, जब वोट मोदी के नाम पर दिया है तो खोजेंगे भी मोदी को ही। धैर्य का बाँध टूटना नहीं चाहिए, क्योंकि कुछ आदमखोर और रक्तपिपासु दीमक इसी इंतजार में बैठे हैं। उन्हें रोकना पड़ेगा। इसके लिए मौतें रोकनी पड़ेंगी। भले ही यह दशकों से सामान्य हो, इस माहौल को बदलने के लिए वैसी परिस्थितियाँ पैदा करनी होंगी।
अब फिर कुछ फोटो शेयर होंगे कि बच्चे मर रहे हैं और पीएम हाथ-पैर हिला कर राँची में योग कर रहा है, लेकिन डिगने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि देश साथ खड़ा है एक भरोसा लिए, एक उत्साह लिए, एक ऊर्जा लिए- उसका समुचित उपयोग करना है और उस ऊर्जा को बचाए रखना है। अगर कहीं ग़लत हुआ है तो उसके लिए जो सही है, उससे पीछे हटने की ज़रूरत नहीं है। अगर वर्ल्ड कप को 15 मिलियन लोग देख रहे हैं तो प्रधानमंत्री उस बारे में कुछ ट्वीट करे, यह सामान्य है। पीड़ाएँ महसूस कर-कर के और करा-करा कर एक ही बात पता चली है- साम, दाम, भय, भेद कुछ भी अपनाओ पर समाधान करो।
ये दीमक काम पर लग गए हैं। इन मौतों को तमाम सरकारी योजनाओं से लेकर राम मंदिर और धारा 370 तक से जोड़ा जाएगा लेकिन कहीं से एक भी कदम पीछे खींचने की ज़रूरत है ही नहीं। सब अनवरत चलता रहे लेकिन जो भी इन मौतों के ज़िम्मेदार हैं, उनका भविष्य भी उसी अनुरूप ढाला जाए। हमने देखा है कि कैसे देश के कृषि मंत्री से मजदूरों की जान न बचाने की कीमत मंत्रिमंडल से हटा कर उससे बेहतर को शामिल कर चुकाई गई, शायद भविष्य में ऐसी घटनाएँ न हों। हमें अगले साल इस मौसम से 3 महीने पहले जागना पड़ेगा- रिमाइंडर सेट कर लीजिए- अभी के अभी।