ग्रेटर नोएडा में 25 वर्षीय एक युवक अपनी पत्नी को छोड़ कर 13 साल की नाबालिग लड़की के साथ शादी करने के लिए भाग निकला। टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित ख़बर के अनुसार, जिस लड़की के साथ अल्लाह मेहर नाम का यह युवक भाग निकला है, वह उसकी पत्नी की छोटी बहन है। अल्लाह मेहर के दो चाचाओं व एक दोस्त के ख़िलाफ़ इस मामले में पुलिस द्वारा केस दर्ज कर लिया गया है। उसके ससुर हनीफ ने पुलिस में शिकायत करते हुए इस मामले की जानकारी दी। हनीफ ने अपनी शिकायत में कहा:
“मेरा दामाद अल्लाह मेहर 7 जून को ईद के अवसर पर ससुराल आया था। मैं काम के लिए निकल रहा था, तभी मेरा दामाद वहाँ मेरी बेटी (उसकी पत्नी), अपने दोनों बच्चे और तीन अन्य रिश्तेदारों के साथ पहुँचा। जब मैं काम से वापस घर लौटा, तब मेरी बेटी ने जानकारी दी कि उसका पति व उसके साथ आए अन्य रिश्तेदार मेरी छोटी बेटी को अपने साथ ले गए हैं। इसके अलावा वह घर से 70000 रुपए और सारे गहने भी ले गया, जो घर में रखे हुए थे।”
हनीफ ने इस घटना के बाद बुलंदशहर पहुँच कर अपने दामाद से अपनी छोटी बेटी को छोड़ने को कहा लेकिन उसने इनकार कर दिया। उसने कहा कि उसकी बेटी नाबालिग है और इसीलिए उसके साथ बलपूर्वक शादी नहीं की जा सकती। इसके बाद अल्लाह मेहर ने अपने ससुर हनीफ को धमकी दी कि अगर वो फिर कभी अपनी बेटी को देखने आया तो उसके पूरे परिवार को मार डाला जाएगा। हनीफ ने अपने दामाद पर आरोप लगाया कि वह 10 दिनों से नाबालिग को बंधक बनाए हुए है।
पुलिस ने इस मामले में चार लोगों के ख़िलाफ़ धारा 363 (अपहरण), धारा 366 (किसी स्त्री के साथ शादी के लिए जबरदस्ती करना या अपहृत करना) और धारा 506 (धमकी देना) के तहत मामला दर्ज कर लिया है। आरोपित नाबालिग लड़की के साथ फरार है। इस मामले में पुलिस ने उसके सगे-सम्बन्धियों से पूछताछ की है और जल्द ही गिरफ़्तारी भी की जाएगी, ऐसा ग्रेटर नोएडा थाना के SHO सुजीत उपाध्याय ने भरोसा दिलाया है।
सौ से ज़्यादा बच्चे मर गए, इससे आगे क्या कहा जाए! विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। हॉस्पिटल का नाम, बीमारी का नाम, जगह का नाम, किसकी गलती है आदि बेकार की बातें हैं, क्योंकि सौ से ज़्यादा बच्चे मर चुके हैं। इतने बच्चे मर कैसे जाते हैं? क्योंकि भारत में जान की क़ीमत नहीं है। हमने कभी किसी सरकारी कर्मचारी या नेता को इन कारणों से हत्या का मुकदमा झेलते नहीं देखा।
सूरत में आग में बच्चे मर गए, कौन-सा नेता या सरकारी अफसर जेल गया? किसी को पता भी नहीं। शायद कोई जाएगा भी नहीं क्योंकि इसे हत्या की जगह हादसा कहा जाता है। हादसा का मतलब है कि कोई अप्रिय घटना हो गई। जबकि, ये घटना ‘हो’ नहीं गई, ये बस इतंजार में थी अपने होने की। ये तो व्यवस्थित तरीके से कराई गई घटना है। ये तो कुछ लोगों द्वारा एक तरह से चैलेंज है कि ‘हम अपना काम नहीं करेंगे ठीक से, तुम से जो हो सकता है कर लो’।
तब पता चलता है कि माँओं की गोद में बेजान लाशें हैं और बिल्डिंग से चालीस फ़ीट ऊपर तक गहरा धुआँ उठ रहा है। जब आग थमती है तो आपके पास एक संख्या पहुँचती है कि इतने लोग मर गए। बिहार वाले कांड में भी हम संख्या ही गिन रहे हैं। संख्या से तब तक फ़र्क़ नहीं पड़ता, किसी को भी नहीं, जब तक वो बच्चा आपका न हो।
अधिकांशतः, हम इसलिए लिखते हैं क्योंकि हमें किसी को अटैक करना है। हमारी संवेदनशीलता अकांउटेबिलिटी फ़िक्स करने की जगह, या इस बीमारी के प्रति जागरूकता जगाने की जगह, किसकी सरकार है, कौन मंत्री है, और किसने क्या बेहूदा बयान दिया है, उस पर बात बढ़ाने में चली जाती है। हम स्वयं ही ऐसे विषयों पर बच्चों या उनके माता-पिता के साथ खड़े होने की जगह किसी के विरोध में खड़े हो जाते हैं।
जब आप विरोध में खड़े हो जाते हैं तो मुद्दा आक्रमण की तरफ मुड़ जाता है। मुद्दा यह नहीं रहता कि सरकार क्या कर रही है, कैसे कर रही है, आगे क्या करे, बल्कि मुद्दा यह बन जाता है कि तमाम वो बिंदु खोज कर ले आए जाएँ ताकि पता चले कि इस नेता ने कब-कब, क्या-क्या बोला है। फिर हमारी चर्चा सरकार को, जो विदित है कि निकम्मी है, उसी को और निकम्मी बताने की तरफ मुड़ जाती है। जबकि चर्चा की ज़मीन ही यही होनी चाहिए कि सरकार तो निकम्मी है ही, लेकिन आगे क्या किया जाए।
गोरखपुर में अगस्त के महीने में दो साल पहले ऐसे ही बच्चों की मौतें हुई थीं। उस वक्त भी चर्चा ऐसे ही भटक कर कहीं और पहुँच गई थी। उस वक्त भी भाजपा-योगी के चक्कर में लोग संवेदना की राह से उतर कर कब संवेदनहीनता में बच्चों की तस्वीरें लगा कर अपनी राजनैतिक घृणा का प्रदर्शन करने लगे, उन्हें पता भी नहीं चला। बच्चों की बीमारी, और यह बीमारी होती क्यों है, इसको छोड़ कर बातें इस पर होने लगी कि किसने क्या बयान दिया है।
बिहार एक बेकार जगह बनी हुई है। सुशासन बाबू ने जो तबाही वहाँ मचाई है, वो लालू के दौर से बहुत अलग नहीं है। ये सारे बच्चे बचाए जा सकते थे। ये बीमारी जिन दो तरीक़ों से फैलती है, उसमें से एक मच्छर के काटने से होती है, दूसरा है जलजनित। पहले के लिए टीका विकसित किया जा चुका है, दूसरे में तुरंत लक्षण पहचान कर डॉक्टर तक पहुँचना ही बचाव है। उसका कोई टीका नहीं।
ऐसे में जागरुकता अभियान की ज़रूरत होती है जो कि सरकार की ज़िम्मेदारी है। सरकार की ज़िम्मेदारी इसलिए है क्योंकि सरकारों में एक स्वास्थ्य विभाग होता है, और हम साबुन ख़रीदते हैं तो उस पर टैक्स कटता है जिससे सरकारों के मंत्री और अफसरों की तनख़्वाह जाती है। ये लोग इन बच्चों के हत्यारे हैं क्योंकि बिहार सरकार ने इस बीमारी से निपटने के लिए काग़ज़ पर एक पूरी प्रक्रिया बनाई हुई है। इसमें टीकाकरण से लेकर स्वच्छता और जागरुकता अभियान शामिल है। लेकिन वो इस साल लागू नहीं किया गया क्योंकि पिछले साल कम बच्चे मरे थे।
इसका समीकरण बिलकुल सीधा है, जब ज़्यादा बच्चे मर जाते हैं तो सरकार हरकत में आती है और बताया जाता है कि फ़लाँ लोगों को विदेश भेजा जाएगा इस पर स्टडी करने के लिए। सरकारें अपनी गलती नहीं मानतीं। वो यह नहीं बताती कि इस बीमारी से बचाव असंभव तो बिलकुल नहीं है। जैसे ही ऐसा मौसम आए, सरकारी काग़ज़ों में लिखा है कि लोगों में जागरूकता फैलाई जाए कि इस बीमारी के लक्षण क्या हैं, कैसे बचाव हो सकता है, सफ़ाई रखनी है आदि।
गोरखपुर में भी, और पूरे पूर्वांचल बेल्ट में, 1977 से हजारों बच्चे हर साल मरते रहे। गोरखपुर वाला मामला दो साल पहले जब राष्ट्रीय परिदृश्य में उछला तो योगी सरकार ने इस पर एक्शन लिया। टीकाकरण को प्राथमिकता दी गई और नवजात शिशुओं से शुरुआत की गई। सूअरों को आबादी वाले इलाके से हटाया गया। मच्छर मारने के उपाय किए गए। जागरूकता फैलाई गई कि बच्चों को मिट्टी वाले फ़र्श पर न सोने दिया जाए। सारे लक्षण बताए गए कि लोग तुरंत समझ सकें कि बच्चे को बीमारी हुई है, और अस्पताल ले जाना आवश्यक है।
लेकिन बिहार में इनके निष्प्राण होने का इंतजार किया जा रहा था शायद। 2015 में हुआ था तो काग़ज़ पर लिखा गया कि क्या करना है। एक-दो साल उस पर एक्शन भी हुआ। फिर लगता है सरकार भूल गई कि ये हर साल आता है और बच्चों को महज़ एक संख्या में बदल कर चला जाता है।
सरकारें भूल जाती हैं कि भारत जैसे देश में, या बिहार जैसे राज्य में, जहाँ जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा दो रोटी जुटाने में व्यस्त रहता है, वहाँ माँ-बाप से कहीं ज्यादा ज़िम्मेदारी सरकार की होती है कि वो अपना बहुत ज़रूरी काम करे क्योंकि उसके लिए एक मंत्रालय बनाया गया है। जो बच्चे मरते हैं वो किसी की पहली या दूसरी संतान होते हैं। वो शायद जागरुक नहीं होते इन बातों को लेकर। उनके लिए शायद सीज़न बीतने के बाद लक्षण पहचानने में गलती हो सकती है।
इसकी भयावहता को ‘चमकी बुखार’ जैसा बेहूदा नाम देकर कम किया जाना भी अजीब लगता है। ऐसी बीमारी जो हजारों बच्चों को लील जाती है उसके नाम में ‘चमकी’ और ‘बुखार’ जैसे सामान्य शब्दों का प्रयोग बताता है कि सरकार ने भारतीय जनमानस के सामूहिक मनोविज्ञान पर अध्ययन नहीं किया कि वो किस तरह के नामों से डरते हैं, किस नाम पर ज्यादा रिएक्ट नहीं करते। आप सोचिए कि जिस व्यक्ति को इसकी भयावहता का अंदाज़ा न हो, वो ‘चमकी बुखार’ सुन कर इस बीमारी के बारे में क्या राय बनाएगा।
इसीलिए लोग सरकार चुनते हैं कि वो अगर नमक ख़रीदकर आपको टैक्स देते हैं तो उनकी कुछ ज़िम्मेदारी आपको लेनी ही होगी। यहाँ सरकार को लगातार मिशन मोड में यह बताते रहना होगा, चाहे आदमी सुन-सुन कर चिड़चिड़ा हो जाए, कि मस्तिष्क ज्वर से बचाव कैसे करें, कौन-सा पानी पिएँ, मच्छरों से बचाव करें, घर के आस-पास गंदगी न फैलने दें। इस पूरी प्रक्रिया को, इस जागरुकता अभियान को पीढ़ी-दर-पीढ़ी पारंपरिक ज्ञान की तरह आगे बढ़ाने की हद तक फैलाते रहना चाहिए।
सुशासन बाबू की सरकार में बिहार में शायद कुछ भी सही नहीं हो रहा। अपराध घट नहीं रहे, शिक्षकों को वेतन नहीं मिल रहा, पटना के पीएमसीएच के आईसीयू में लोग बाँस वाला पंखा हौंक रहे हैं, सड़कों पर अराजकता है… एक बिहारी आज भी वापस जा कर कुछ करने से डरता है क्योंकि जिस लालू के काल को गाली देकर, उसे एक घटिया उदाहरण बता कर नितीश कुमार सत्ता में आए, उन्होंने शुरुआत के कुछ सालों के बाद, बिहार के लिए कुछ नहीं किया।
मीडिया नहीं घेरेगी क्योंकि आधी मीडिया नितीश को भाजपा के पार्टनर के रूप में देखती है, और बाकी की आधी मीडिया को लगता है कि आने वाले दिनों में नितीश मोदी के विरोधियों के खेमे में शिफ्ट हो सकते हैं। ऐसे में जैसी तीक्ष्णता के साथ योगी पर धावा बोला गया था, वैसी तीक्ष्णता नितीश के मामले में नहीं दिखेगी। उसके बाद मीडिया वालों को अपना बिजनेस भी देखना है। उस योजना में नितीश किसी भी तरह से फ़िट नहीं बैठते। इसलिए, इतनी बर्बादी और निकम्मेपन के बाद भी जदयू-भाजपा की सरकार कभी भी ज़हरीली आलोचना की शिकार नहीं हुई है।
सोशल मीडिया वाली जेनरेशन
इसी संदर्भ में सोशल मीडिया पर देखने पर एक हद दर्जे की संवेदनहीनता दिखती है। ये संवेदनहीनता सोशल मीडिया की पहचान बन चुकी है जहाँ मुद्दा बच्चों की मौत से हट कर राजनैतिक विरोधियों को गरियाने तक सिमट जाता है। हर दूसरा आदमी अपने पोस्ट पर तीसरे आदमी को धिक्कार रहा है कि कोई इस पर क्यों नही लिख रहा, फ़लाँ आदमी कुछ क्यों नहीं कर रहा, आप सही आदमी को क्यों नहीं चुनते…
हो सकता है दो-एक लोग सही मंशा रखते हों। हो सकता है कुछ लोग विचलित हो गए हों। लेकिन बच्चों की तस्वीरें लगा कर आप कुछ नहीं कर रहे, सिवाय दिखावे के। उस तस्वीर के लगाने से आप संवेदनशील नहीं हो जाते। अगर आप संवेदनशील हैं तो आपको दूसरे ‘क्या नहीं हैं’, वो बताने की कोई ज़रूरत नहीं। हम सारे लोग इस तरह से व्यवहार करने लगते हैं जैसे कि हम ही सबसे ज्यादा विचलित हो गए हों, और हमारी बात हर कोई क्यों नहीं मान रहा, नेता ऐसे कैसे बोल रहे हैं…
ऐसे समय में बात करना, खुद को अभिव्यक्त करना ज़रूरी है। गुस्सा भी वाजिब है लेकिन जज मत बनिए। क्योंकि आपकी संवेदनशीलता आपके ऐसे पोस्ट के बाद वाले पोस्ट में झलक जाती है जहाँ आप किसी और विषय पर चले जाते हैं जिसे पढ़ने के बाद कहीं से नहीं लगता कि आपको बच्चों की मौत से उतना दुःख वास्तव में पहुँचा है जितना आपने पोस्ट में लिख दिया।
सत्य तो यह है कि आपको लिखना है, और आपको दिखना है कि आपने अपनी ज़िम्मेदारी लिख कर निभा ली। जब आपको अपनी ज़िम्मेदारी ही निभानी है तो बस अपने हिस्से का लिखिए। आप रोइए, गाइए, हताश हो जाइए, काला पिक्चर लगाइए, लेकिन आपको कोई हक़ नहीं है यह कहने का कि बाकी लोग क्या कर रहे हैं। ज्योंहि आप बच्चों की मौतों को अपने व्यक्तिगत इमेज बिल्डिंग के लिए इस्तेमाल करने लगते हैं, वो बच्चे दोबारा मर जाते हैं।
सरकारों को आड़े हाथों लेना, आलोचना करना, स्वास्थ्य सुविधाओं पर आवाज उठाना हमरा फर्ज है एक नागरिक के तौर पर लेकिन जब आप इसे खानापूर्ति की तरह लगाते हैं तो पता चलता है कि आप गंभीर नहीं हैं। गंभीरता तब झलकेगी जब आप दूसरों पर फ़ैसले नहीं सुनाएँगे, और अगर एक मुद्दा पकड़ा है तो उस पर तब तक लिखते रहेंगे जब तक वो सही मुक़ाम तक न पहुँच जाए।
पाकिस्तान में डॉ. रमेश कुमार माल्ही सूली पर लटकाए जा सकते हैं- इसलिए नहीं कि उन्होंने किसी की हत्या कर दी, किसी का बलात्कार कर दिया; इसलिए भी नहीं कि उन्होंने किसी भी प्रकार का देशद्रोह या किसी दहशतगर्दी की वारदात में हिस्सेदारी की हो। किसी नशीले पदार्थ के व्यापार में भी नहीं। उन्हें फाँसी पर इमरान खान का ‘नया पाकिस्तान’ केवल इसलिए लटका देगा क्योंकि उनके ख़िलाफ़ एक मौलवी ने आरोप लगा दिया है कि उन्होंने क़ुरान के पन्ने फाड़कर उसमें लपेटकर मौलवी को दवा दी थी।
पाकिस्तान का ईश निंदा कानून
पाकिस्तान का ईश निंदा कानून न केवल इस रूप में दमनकारी है कि इसके अंतर्गत महज़ कुछ शब्दों के लिए किसी की जान ले ली जा सकती है, बल्कि इस कानून के अनुपालन में भी कोई नियम-कायदा नहीं है। पाक के बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय के किसी भी व्यक्ति के द्वारा शिकायत भर कर देना काफी है आपको सलाखों के पीछे पहुँचा देने के लिए। कहने को तो यह पाकिस्तान की सरकार द्वारा “मान्यता-प्राप्त” किसी भी पंथ के खिलाफ बोलने पर लगाया जा सकता है, लेकिन असलियत में यह केवल मुस्लिमों द्वारा गैर-मुस्लिमों को ‘सीधा’ करने के लिए इस्तेमाल होता है। यही आसिया बीबी के मामले में हुआ- उनकी पड़ोसिनों ने कहासुनी का बदला लेने के लिए उनके खिलाफ इस कानून के अंतर्गत शिकायत कर दी, जिसके लिए उन्हें पहले 8 साल मौत की सजा के डर में बिताने पड़े, फिर रिहा होते ही पाकिस्तान छोड़ कर कनाडा भागना पड़ा, और यही डॉ. माल्ही के साथ होता दिख रहा है।
पेशे से जानवरों के डॉक्टर रमेश कुमार माल्ही ने कुछ दिन पहले इलाके के ‘प्रभावशाली’ मुस्लिम परिवार के मवेशियों को देर रात देखने से मना कर दिया था। इसी के बाद उन पर यह केस हुआ, और वह जेल में ठूँस दिए गए। उनकी गिरफ़्तारी के बाद जिस इलाके में वह रहते थे (मीरपुर खास, सिंध का फुलादियों), वहाँ हिन्दुओं के खिलाफ दंगे भड़क गए और हिन्दुओं की दुकानों को चुन-चुन कर आग के हवाले कर दिया गया है।
हिंदुस्तान के छद्म-लिबरलों के लिए सबक
हिंदुस्तान के जिन छद्म-लिबरलों को यह देश पिछले पाँच सालों में ‘हिन्दू पाकिस्तान’, ‘भगवा तालिबान’, ‘असहिष्णु’ बनता दिख रहा है, उन्हें सच में एक बार पाकिस्तान का दौरा कर आना चाहिए। जाकर के वहाँ देखना चाहिए कि कैसे इस कानून में नरमी दिखाने का नाम लेते ही भीड़ सड़कों पर उतर आती है, दंगे-फसाद मच जाते हैं, सलमान तासीर और शाहबाज़ भट्टी को उनके ही सुरक्षाकर्मी केवल इसलिए मौत के घाट उतार देते हैं कि वह इस कानून के खिलाफ बोलने की हिमाकत किए थे। मुहम्मद बिलाल खान जहाँ सिर्फ इसलिए मार दिए जाते हैं क्योंकि उन्होंने पाकिस्तान की सेना और आईएसआई की आलोचना कर दी थी। जिन्हें अपने देश भारत के कानून इतने दमनकारी लगते हैं कि लैला जैसी डिस्टोपिया बनाकर वह मुस्लिमों की प्रताड़ना दिखाना चाहते हैं, उन्हें केवल एक हफ़्ते पाकिस्तान में बिता कर आना चाहिए।
हिंदुस्तान में जितना क़ानूनी हक़ अभिव्यक्ति की आज़ादी को है, उससे ज्यादा केवल हमसे कहीं ज्यादा समय तक और परिपक्व ढंग से लोकतान्त्रिक शैली की सामाजिक संस्कृति अपना चुके यूरोपीय-अमेरिकी देशों में है। हमारे साथ या उसी समय के आस-पास आज़ाद हुए अधिकांश देशों, और खासकर पड़ोसियों पर नज़र डालें तो जेहन में पाकिस्तान का ईश-निंदा कानून, बांग्लादेश में नास्तिक/गैर-मुस्लिम ब्लॉगरों की इस्लाम के ख़िलाफ़ बोलने या लिखने पर हत्या, म्याँमार में लोकतंत्र और सैन्य शासन का ऑड-ईवेन दिखता है। और इस देश में जहाँ कमलेश तिवारी हज़रत मोहम्मद के खिलाफ बोल कर जेल में सड़ जाता है, वहीं मालदा-बशीरहाट में ममता बनर्जी मुस्लिम दंगाईयों को एक लड़के की फेसबुक पोस्ट पर आधा राज्य जला डालने के लिए आज़ाद छोड़ देतीं हैं; ‘सेक्सी दुर्गा’ फिल्म पर बुद्धिजीवी आँख-कान-मुँह बंद कर लेते हैं, और ‘हिन्दू आतंकवाद’ का शिगूफ़ा छेड़ने वाली कॉन्ग्रेस पार्टी आज भी अपना प्रधानमंत्री बनाने का सपना देख सकती है। इसलिए हर कदम पर हिंदुस्तान में इनटॉलेरेंस देखने वालों से गुज़ारिश है कि आस-पास देख लें, आपके हिन्दूफ़ोबिक यूटोपिया जितना तो अच्छा नहीं है, लेकिन वैसे हिंदुस्तान का लोकतंत्र काफी अच्छा है…
पश्चिम बंगाल में डॉक्टरों के बाद अब शिक्षकों की नाराज़गी सामने आई है। कोलकाता के सॉल्ट लेक स्थित मयूख भवन द्वीप पर शिक्षकों और पुलिस के बीच हाथापाई की घटना भी सामने आई है। एसएसके, एमएसके और एएस शिक्षक संघों के शिक्षक सोमवार को शिक्षा मंत्री से मुलाकात करने के लिए विकास भवन जा रहे थे। शिक्षकों की माँग है कि उनका वेतन बढ़ाया जाए क्योंकि उन्हें काफ़ी कम रूपए मिल रहे हैं। पुलिस ने जब शिक्षकों को मयूख भवन द्वीप पर जाने से रोक दिया, तब शिक्षकों ने बैरिकेड तोड़ने का प्रयास किया। इसके बाद पुलिस ने जब उन्हें रोका तो दोनों में भिड़ंत हो गई।
#WATCH West Bengal: Teachers protest at Bikash Bhavan, Kolkata demanding higher wages among other demands. pic.twitter.com/Awux6hZ0s0
ये शिक्षक पिछले 6 दिनों से लगातार विरोध-प्रदर्शन कर रहे हैं। वे राज्य के शिक्षा मंत्री से मिलने की माँग कर रहे हैं। सोमवार (जून 17, 2019) को शिक्षकों ने जब शिक्षा मंत्री से मिलने का प्रयास किया, तब ये झड़प हुई। मंत्री ने उन्हें मिलने के लिए समय नहीं दिया, जिसके बाद वे आक्रोशित हो गए। असल में इन शिक्षकों ने काफ़ी समय पहले ही राज्य सरकार को अपनी माँगों से परिचित करा दिया था लेकिन लोकसभा चुनाव जीतने के बाद इनकी माँगों को सुनने का आश्वासन दिया गया था।
West Bengal: Teachers protest at Bikash Bhavan, Kolkata demanding higher wages among other demands. pic.twitter.com/QxdAKPhq9X
अब, जब लोकसभा चुनाव जीतने के बाद शिक्षक मंत्री से मिलने पहुँचे, तब उन्होंने बात करना तो दूर, मिलने के लिए समय देने तक से भी इनकार कर दिया। बता दें कि बंगाल में डॉक्टरों व सरकार की भी कई दिनों से भिड़ंत चल रही है। 11 जून को जूनियर डॉक्टरों के साथ हुई मारपीट के विरोध में पूरे देश के डॉक्टरों ने बंगाल के डॉक्टरों के समर्थन में विरोध प्रदर्शन किया।
हिमाचल प्रदेश से आने वाले जगत प्रकाश नड्डा को भारतीय जनता पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया है। पिछली मोदी सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहे नड्डा को जब हालिया गठित मंत्रिमंडल में कोई जगह नहीं दी गई थी, तभी से यह अंदेशा लगाया जा रहा था कि उन्हें कोई बड़ी ज़िम्मेदारी मिलने वाली है। इससे पहले जब 2014 में भाजपा की केंद्र में बड़ी जीत हुई थी, तब नड्डा को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर चर्चा चली थी लेकिन अमित शाह को अध्यक्ष बनाया गया। अब जब अमित शाह ने गृह मंत्रालय का प्रभार संभाला है, संगठन में नड्डा को उनकी ज़िम्मेदारी हल्की करने के लिए लाया गया है। कहा जा रहा है कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव तक शाह राष्ट्रीय अध्यक्ष बने रहेंगे।
59 वर्षीय जेपी नड्डा 3 बार हिमाचल प्रदेश विधानसभा का चुनाव जीत चुके हैं। वे 1993, 1998 और 2007 में चुनाव जीत कर विधायक बने। 1998 में उन्हें राज्य कैबिनेट में शामिल किया गया और वह मंत्री बने। 2012 में उन्हें राज्यसभा सांसद चुना गया। जेपी नड्डा भाजपा के आँतरिक संगठन में काफ़ी समय से सक्रिय रहे हैं और उनकी शिक्षा-दीक्षा पटना के सेंट जेवियर्स स्कूल में हुई है। अपने समय के अधिकतर नेताओं की तरह युवावस्था में उन्होंने भी जयप्रकाश नारायण के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से प्रेरित होकर राजनीति का दामन थामा था। 1977 में वह पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के सचिव भी बने थे।
नड्डा को भाजपा का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त करने की जानकारी केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में दी। इसके बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने नड्डा को बधाई दी। सिंह ने बताया कि भाजपा संसदीय बोर्ड ने नड्डा को कार्यकारी अध्यक्ष चुना है। राजनाथ ने यह भी बताया कि गृह मंत्री बनने के बाद शाह ने पीएम मोदी से कहा था कि पार्टी अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी अब किसी और को दे देनी चाहिए। जेपी नड्डा को हिमाचल में फॉरेस्ट मंत्री रहने के दौरान उनके द्वारा किए गए कार्यों के लिए जाना जाता है।
मंत्री रहते समय उन्होंने फॉरेस्ट क्राइम को नियंत्रित करने के लिए प्रभावी नीतियाँ बनाई थीं व ज़रूरी एक्शन लिया था। उन्होंने फॉरेस्ट पुलिस स्टेशन स्थापित किए थे। शिमला को हरित बनाने के लिए उनके कार्यकाल में कई कार्य हुए। राज्य में वृक्षारोपण को बढ़ावा देने के लिए भी उन्होंने अहम पहल किए। बहुत कम लोगों को पता है कि नड्डा की खेल में भी ख़ासी रूचि है। अपने स्कूल के दिनों में उन्होंने दिल्ली में आयोजित एक तैराकी प्रतियोगिता में बिहार का प्रतिनिधित्व किया था। नड्डा ने हिमाचल विश्वविद्यालय से LLB की डिग्री प्राप्त की है।
1991 में जेपी नड्डा को मात्र 31 वर्ष की उम्र में भाजयुमो का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया था। तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव संपन्न होने के बाद नड्डा को पूर्ण अध्यक्ष भी बनाया जा सकता है, ऐसी चर्चा है। हालिया लोकसभा चुनावों में नड्डा यूपी में पार्टी के प्रभारी थे, जहाँ पार्टी ने 62 सीटों पर जीत दर्ज की। ये भी एक संयोग है कि भाजपा के वर्तमान अध्यक्ष अमित शाह भी 2014 लोकसभा चुनाव में यूपी में ही पार्टी के प्रभारी थे और वहाँ भाजपा के अभूतपूर्व प्रदर्शन के बाद उनका क़द बढ़ गया था।
ऑपइंडिया को हाल ही में मीडिया ट्रोल स्वाति चतुर्वेदी की तरफ से कानूनी नोटिस मिली है। उस नोटिस का हमारा जो जवाब है, वो निम्नलिखित है। लेकिन जवाब देने से भी पहले हम यह साफ कर देना चाहते हैं कि ऐसे दबाव बनाने वाले दाँव-पेंच ऑपइंडिया के साथ नहीं चलेंगे। हम उनके सभी आरोपों को सिरे से खारिज करते हैं और अगर जरूरी हुआ तो कानूनी लड़ाई के लिए भी तैयार हैं।
हमें आपकी क्लाइंट स्वाति चतुर्वेदी की ओर से मानहानि नोटिस मेसर्स आध्यासी मीडिया एन्ड कंटेंट सर्विसेज़ प्राइवेट लिमिटेड, OpIndia.com, संपादक नूपुर झुनझुनवाला शर्मा व अन्य के विरुद्ध प्राप्त हुई है। उस नोटिस में आप ने उद्धृत किया है कि आपकी क्लाइंट ‘बहुत ही प्रसिद्ध, प्रतिष्ठित, प्रख्यात पत्रकार हैं।’ अपने इस दावे के समर्थन में आपने उन तमाम प्रकाशनों का नाम गिनाया है, जिनमें स्वाति चतुर्वेदी ने पिछले 20 वर्षों में काम किया है। आपने इस तथ्य पर भी जोर दिया है कि एक खोजी पत्रकार के तौर पर अपने कैरियर में उन्हें कभी किसी आरोप का सामना नहीं करना पड़ा है। आपने उन्हें 2018 में मिले एक अवार्ड का भी ज़िक्र किया है।
हालाँकि हम इस बात से इनकार नहीं कर रहे कि स्वति चतुर्वेदी का करियर दो दशकों से भी लम्बा हो सकता है (जो कि उनके लिहाज से एक उपलब्धि है) लेकिन हम विनम्रतापूर्वक इस ओर ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे कि महज़ एक अवार्ड जीत लेने भर से किसी को ‘प्रसिद्ध, प्रतिष्ठित, प्रख्यात’ नहीं माना जा सकता। और अपने इस कथन के समर्थन में स्वाति चतुर्वेदी जी को ही उद्धृत करना चाहेंगे। हम आपका ध्यानाकर्षण इस ओर करना चाहेंगे कि स्वाति चतुर्वेदी ने खुद ही (और विशेषतः सोशल मीडिया पर) कई अवार्डों का मज़ाक उड़ाया है। उदाहरण हैं माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिला फिलिप कोटलर अवार्ड, प्रख्यात अभिनेता अनुपम खेर को मिला पद्म भूषण अवार्ड, प्रख्यात अभिनेत्री रवीना टंडन को मिला राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, और यहाँ तक कि अपने साथी पत्रकारों को मिले पुरस्कार। उनके इन शब्दों से यह इंगित होता है कि महज़ एक अवार्ड पा जाना किसी के ‘प्रसिद्ध, प्रतिष्ठित, प्रख्यात’ होने का प्रमाण नहीं हो सकता।
आगे, हम यह मान कर चलते हैं कि जब आप कहते हैं कि स्वाति चतुर्वेदी को ‘कभी किसी आरोप का सामना नहीं करना पड़ा है।’ तो आपका तात्पर्य है कि उनके खिलाफ किसी अदालत में कोई कानूनी मामला लंबित नहीं है। लेकिन यह सच नहीं है। उन्होंने एक व्यक्ति पर ‘यौन उत्पीड़न के लिए गिरफ्तार’ होने का आरोप लगाया था जो मिथ्या था। उन व्यक्ति ने स्वाति चतुर्वेदी पर मानहानि का मुकदमा किया था।
अगर क़ानूनी मामलों को परे भी हटा दें तो स्वाति चतुर्वेदी पर और भी बहुत से आरोप हैं- भले ही वह सामान्य भाषा में हों और क़ानूनी रूप में नहीं। उन पर अभद्र भाषा के प्रयोग, खराब पत्रकारिता, तोड़-मरोड़ कर खबर प्रस्तुत करना। इनमें से कुछ को उदाहरण के तौर पर उल्लेख हम नीचे आपकी नोटिस का उत्तर देते हुए करेंगे।
अपनी नोटिस में आप एक “Swati Chaturvedi may be delusional: Sources” शीर्षक वाले लेख का विशेष उल्लेख करते हैं। आप OpIndia.com पर आरोप लगाते हैं कि हमने “यह मिथ्या वर्णन किया कि स्वाति चतुर्वेदी वामपंथी प्रोपेगैंडा वेबसाइट The Wire के साथ काम करतीं हैं, और (हमारा) इरादा उनकी मानहानि का था।” चूँकि स्वाति चतुर्वेदी ने कई मौकों पर The Wire के लिए लेख लिखे हैं, अतः हमें नहीं लगता कि यह कहना कि वह The Wire के साथ काम करतीं हैं, किसी भी प्रकार से मानहानि करने वाला कथन होगा। बल्कि आपकी नोटिस में तो खुद ही The Wire का नाम उन प्रकाशनों में है जिनके साथ उन्होंने “काम किया हुआ है।”
पर अगर स्वाति चतुर्वेदी को लगता है कि The Wire के साथ जुड़ा होना उनकी प्रतिष्ठा को अपूरणीय क्षति पहुँचाता है, तो हम उनके साथ सहानुभूति प्रकट करते हुए क्षमायाची हैं।
आपने अपनी कानूनी नोटिस में आगे यह लिखा है कि हमारे लेख में कहा गया वह कथन जो कहता है कि उन पर साहित्यिक चोरी (plagiarism) का आरोप लगता है और उनकी स्पष्ट झूठ और मनगढ़ंत बातों के लिए आलोचना होती है, पूरी तरह गलत है, और हमारे पास इस कथन का कोई आधार नहीं है, और हमारा इरादा आपकी मुवक्किल को उनके साथियों की नज़रों में गिराने का था। आपने यह भी उल्लेख किया कि हमारे अनुसार स्वाति चतुर्वेदी का धमकीबाज गिरोह (extortion racket) चलाना भी गलत है।
इन सभी बातों का अलग-अलग खंडन निम्नलिखित है:
1. साहित्यिक चोरी (plagiarism)
The Economist पत्र से संबद्ध Stanley Pignal नामक एक पत्रकार ने स्वाति चतुर्वेदी पर उनके ट्वीट्स के हिस्से चुराने का आरोप लगाया था। Pignal ने अपने दावे के समर्थन में सबूत पेश करते हुए ट्वीट भी किया था। (विस्तृत जानकारी यहाँ पढ़ी जा सकती है) दिलचस्प बात यह है कि स्वाति चतुर्वेदी ने कथित तौर पर चोरी उस लेख में की जो पत्रकारों की ईमानदारी के बारे में था। हमने महज़ Stanley Pignal द्वारा लगाए गए आरोपों का समाचार प्रस्तुत किया है, न कि उस पर निर्णय करने बैठे हों। इसके अलावा इससे यह भी साबित होता है कि जब हमने लिखा कि स्वाति चतुर्वेदी पर plagiarism का आरोप लगा, तो वह आधारहीन कथन नहीं था।
2. स्पष्ट झूठ और मनगढ़ंत बातें
आपकी मुवक्किल ने अभिनेता लियोनार्डो डि केप्रिओ को RSS के एक कार्यक्रम में बुलाए जाने की खबर छापी थी, जिसका कोई वास्तविक आधार नहीं था। उम्मीद के अनुसार वह गलत निकली। उन्होंने यह भी असत्य दावा किया था कि ठुकराए हुए आदमी से पिटती हुई एक लड़की की तस्वीर असल में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हुई हिंसा की तस्वीर है। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर के एक नेता के भी मनगढ़ंत कथन बनाए हैं, वह भी राष्ट्रीय स्तर पर देखे जाने वाले टेलीविजन चैनल पर।
अतः यह सत्य है कि उन पर स्पष्ट झूठ और मनगढ़ंत बातों का आरोप अक्सर लगता रहता है, हालाँकि हम यह मानने को तैयार हैं कि इनमें से अधिकाँश आरोप कानूनी प्रकृति के नहीं हैं क्योंकि प्रभावित पक्षों ने या तो उन रिपोर्टों या खुद स्वाति को क़ानूनी नोटिस भेजने लायक महत्वपूर्ण नहीं समझा।
3. धमकीबाज गिरोह (extortion racket)
यह आरोप OpIndia ने नहीं, PGurus नामक एक वेबसाइट ने लगाया था। PGurus का इस बाबत लेख अप्रैल, 2018 में प्रकाशित हुआ था और हमारी वह मूल रिपोर्ट जिसमें इस आरोप का समाचार था, वह भी उसी समय के आस-पास प्रकाशित हुई है। यह आरोप OpIndia का नहीं है, और हम यह दोहराना चाहेंगे कि हम अन्य पोर्टल द्वारा लगाए गए आरोप का केवल समाचार प्रकाशित कर रहे थे।
हमारी रिपोर्ट यहाँ, और PGurus की मूल रिपोर्ट यहाँ पढ़ी जा सकती है (उसे अभी तक हटाया नहीं गया है)। बल्कि कई अन्य लोगों, जिनमें फिल्म डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री शामिल हैं, ने PGurus के लेख को ट्वीट किया था और इंगित किया था कि स्वाति चतुर्वेदी का नाम सूची में है। लेकिन इनमें से किसी भी पक्ष के खिलाफ कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं की गई। हम अपने लेख को मूल स्रोत (PGurus) के लेख के अपडेट होने पर अपडेट कर देंगे।
4. स्वाति के साथियों की नज़रों में उनकी मानहानि
स्वाति चतुर्वेदी के साथियों में से कुछ ने गुप्त रूप से हमें बताया है कि उन्हें हिंदुस्तान टाइम्स से पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस का नकली साक्षात्कार करने के लिए निकाला गया था। अगर हमारा इरादा उनकी साख को नुकसान पहुँचाने का होता तो हम अपनी रिपोर्टों में हमेशा ‘सूत्रों के हवाले से’ यह दावा संलग्न कर देते, जैसा आपकी मुवक्किल अपनी पत्रकारिता में अक्सर करती रहती हैं। लेकिन हमने ऐसा नहीं किया क्योंकि हमारा इरादा उनकी मानहानि का नहीं था। इसके अलावा इससे यह भी पता चलता है कि उनकी साख अपने साथियों में उतनी अच्छी थी भी नहीं, और OpIndia को उस (साख) के किसी भी कथित नुकसान के लिए आपकी मुवक्किल द्वारा जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
आपकी नोटिस में आगे हमारे एक लेख (शीर्षक: “The Wire and its ‘star journalist’ peddles another absurd lie about RSS and it’s not the first time”) का उल्लेख करते हुए यह भी लिखा है कि इसका प्रकाशन निश्चित तौर पर आपकी मुवक्किल की मानहानि के लिए किया गया है।
हम यह स्पष्ट रूप से कहना चाहेंगे कि हम अपने लेख के साथ हैं, और मकसद लेख की आलोचना था, लेखक की मानहानि नहीं। ऊपर उल्लिखित लेख में आपकी मुवक्किल ने लिखा है:
“RSS को मोदी और शाह द्वारा बताया गया है कि जब भाजपा वापस आएगी, तो संविधान में संशोधन कर नए बहुसंख्यकवादी चरित्र को प्रतिबिंबित किया जाएगा, और जिस सेक्युलरिज़्म से वे सभी नफरत करते हैं, उसे हटा दिया जाएगा।” शब्दाडम्बर और कथित ‘सूत्रों’ के अतिरिक्त आपकी मुवक्किल ने इसका कोई सबूत पेश नहीं किया है। अगर हमारे लेख में, एक क्षण के लिए, मान भी लिया जाए कि मानहानि के तत्व हैं, तो भी वह आपकी मुवक्किल के मूल लेख में जितनी मानहानि की गई है, उससे कम ही हैं। आपकी मुवक्किल का लेख एक प्रतिष्ठित सामाजिक संस्था पर बड़े-बड़े षड्यंत्र रचने का आरोप लगाता है। हमारे विपरीत दावे (कि आपकी मुवक्किल ने झूठ बोला) का पता इस तथ्य से चल जाता है कि मोदी सरकार के इस कार्यकाल के सबसे पहले फैसलों में से एक अल्पसंख्यक कल्याण के बारे में था, जो कि किसी भी बहुसंख्यकवादी चरित्र के विपरीत है।
हमने जो “और यह पहली बार भी नहीं है” लिखा, वह भी सच है, और हम उसके भी साथ हैं। 2018 में आपकी मुवक्किल ने लिखा था कि RSS में दूसरे नंबर की वरिष्ठता रखने वाले सुरेश जोशी का मार्च में कार्यकाल खत्म होने पर उनकी जगह प्रधानमंत्री मोदी के करीबी दत्तात्रेय होसबोले को लाए जा सकने की संभावना है।
अपने निष्कर्षीय विश्लेषण में आपकी मुवक्किल ने दावा किया था कि इस बदलाव के ‘बहुत बड़े’ मायने हैं भाजपा और RSS के लिए। ऐसा दावा किया गया था कि संघ प्रमुख मोहन भागवत और सुरेश जोशी का मानना है कि संघ भाजपा के ‘नीचे’ रह कर काम नहीं कर सकता, लेकिन अगर होसबोले द्वितीय वरीयता पर काबिज हो गए तो शक्ति-संतुलन प्रधानमंत्री मोदी की ओर झुक जाएगा। लेखिका ने यह भी दावा किया था कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद संघ में होसबोले की पदोन्नति बहुत तेजी से हुई है।
जैसा कि अब हम सभी जानते हैं कि 2018 में जोशी का संघ के महासचिव या ‘सरकार्यवाह’ के तौर पर पुनर्निर्वाचन अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने कर दिया, जोकि संघ का उच्चतम निर्णयात्मक समूह है।
आपकी कानूनी नोटिस में आपने उल्लेख किया है कि इस लेख में भी हमने plagiarism के आरोप दोहराए हैं। हम दोहराते हैं कि plagiarism के आरोप दूसरे पत्रकार ने लगाए थे, और हमने केवल उनका समाचार प्रकाशित किया था।
आगे आपने उल्लेख किया है कि OpIndia.com पर छपे लेख पढ़ने के बाद स्वाति चतुर्वेदी को यह जान कर दुःख हुआ कि उनके साथी उनकी प्रमाणिकता पर संदेह करते हैं, और यह कि हमारे लेख के चलते उनके पाठकों की संख्या गिर गई है। हम स्वाति चतुर्वेदी को इसकी पुष्टि करने के लिए धन्यवाद देते हैं कि उनके साथी OpIndia.com को पढ़ते और उस पर विश्वास करते हैं।
जहाँ तक ₹50,00,000 (पचास लाख) की आपकी मुवक्किल की माँग का सवाल है, ‘मानसिक कष्ट’ और ‘प्रतिष्ठा की हानि’ के ‘मुआवजे’ के तौर पर, तो जब तक कि हम अपने लेख हटा न दें, तब तक के लिए हम यह स्पष्ट रूप से कहना चाहेंगे कि चूँकि हम पर लगाए गए आरोप वैध नहीं हैं, अतः हम इसे किसी औचत्य का नहीं मानते कि हम आपकी मुवक्किल को कोई धनराशि दें।
हमें ऐसा विश्वास दिलाया गया कि स्वाति चतुर्वेदी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रेस की स्वतंत्रता में विश्वास करती हैं और यह नहीं मानतीं कि किसी पत्रकार के लिखे लेख से किसी की साख खो सकती है। हाल ही में एक पूर्व पत्रकार को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ अपमानजनक कमेंट करने के लिए गिरफ्तार किए जाने के विरुद्ध स्वाति चतुर्वेदी ने उत्तर प्रदेश सरकार की आलोचना की थी।
हम उनके द्वारा सोशल मीडिया पर डाली गई मशहूर कहावत दोहराना चाहेंगे, “अगर आज़ादी का कोई भी अर्थ है, तो वह लोगों को वह सुनाने का अधिकार है जो वह नहीं सुनना चाहते।” हम निश्चित तौर पर आपकी मुवक्किल स्वाति चतुर्वेदी और कई अन्य पत्रकारों को वह सुनाने के दोषी हैं जो वह नहीं सुनना चाहते। जैसा कि आपकी मुवक्किल के द्वारा प्रदर्शित किया गया, यह मानहानि नहीं आज़ादी है।
अंत में हम यह दोहराना चाहेंगे कि हमारा स्वाति चतुर्वेदी के खिलाफ कोई निजी एजेंडा नहीं है, लेकिन यही बात निश्चित तौर पर पलट कर स्वाति के बारे में नहीं कही जा सकती। वह लगातार ऑपइंडिया और ऑपइंडिया से जुड़े लोगों के विषय में अभद्र तरीके से टिप्पणियाँ करती रहती हैं, सोशल मीडिया पर भी और अपनी किताब में भी। हमारे पास 100 से अधिक (गिनती अभी भी चालू है) उनके सोशल मीडिया पोस्ट्स और किताब के अंशों का उदाहरण है, जिसे हम अदालत में अपने समर्थन में पेश कर सकते हैं।
हमारे सभी लेखों में, जिनमें उनका उल्लेख है, हमने केवल उनके पाखंड (खुद अभद्र भाषा का प्रयोग करते हुए दूसरों पर ‘ट्रोल’ का ठप्पा लगाना) और उनकी रिपोर्टों के साथ समस्याओं (अक्सर उनकी रिपोर्टें गलत निकल आती हैं) और उनके ऑनलाइन व्यवहार के बारे में लिखा है, और उनका आधार सार्वजनिक रूप से उपलब्ध सामग्री है।
पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में रविवार (जून 16, 2019) की रात को 22 वर्षीय पाकिस्तानी ब्लॉगर एवं पत्रकार मुहम्मद बिलाल खान की हत्या कर दी गई। मुहम्मद बिलाल को पाकिस्तानी सेना और खुफिया एजेंसी आईएसआई की आलोचना करने के लिए जाना जाता था। ‘डॉन’ समाचार पत्र के मुताबिक, इस्लामाबाद के G-9/4 एरिया में बिलाल के ऊपर हमला हुआ था। पुलिस अधीक्षक सद्दार मलिक नईम ने ब्लॉगर की हत्या की पुष्टि की है। पुलिस ने बताया कि मोहम्मद बिलाल खान अपने एक दोस्त के साथ थे। तभी उन्हें एक फोन आया, जिसके बाद एक व्यक्ति रात में उन्हें पास के जंगल में लेकर गया। जहाँ पर उनकी हत्या कर दी गई।
A 22-year-old Pakistani blogger and journalist known for criticising the country’s powerful military and the spy agency ISI was hacked to death by an unidentified man, police said on Monday. https://t.co/nTsjSKDN1S
सद्दार मलिक नईम ने बताया कि हत्या के लिए खंजर का इस्तेमाल किया गया था, वहीं कुछ लोगों ने बंदूक चलने की भी आवाज सुनी थी। इस हमले में बिलाल खान की मौत हो गई, और खान के मित्र गंभीर रूप से घायल हो गए। खान के ट्विटर पर 16000 फॉलोवर्स हैं, तो वहीं यू-ट्यूब 48000 और फेसबुक पर 22000 फोलोवर्स हैं। उनकी हत्या के बाद सोशल मीडिया पर #Justice4MuhammadBilalKhan ट्रेंड करने लगा। कई ट्विटर यूजर्स का कहना है कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई के आलोचक होने के कारण उनकी हत्या कर दी गई।
रविवार रात 11 बजे बिलाल के पिता अब्दुल्ला ने कराची कंपनी पुलिस स्टेशन में पाकिस्तान पीनल कोड के धारा 302, धारा 304 और धारा 34 के तहत एफआईआर रिपोर्ट दर्ज करवाई। इसके साथ ही उन्होंने आतंकवाद निरोधी अधिनियम की धारा 7 के तहत भी शिकायत दर्ज करवाई। अब्दुल्ला ने कहा कि उनके बेटे के ऊपर धारदार हथियार से हमला किया गया। उन्हें अपने बेटे पर गर्व है। आगे उन्होंंने कहा, “मेरे बेटे की एकमात्र गलती ये थी कि उसने पैगंबर के बारे में बात की थी।”
दिल्ली में एक ऑटो ड्राइवर और पुलिस के बीच हुई झड़प के बाद मामला अब गृह मंत्रालय तक पहुँच चुका है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इस मामले में दिल्ली पुलिस से रिपोर्ट माँगी है। इस घटना पर राजनीति इतनी हो गई है कि लोगों को समझ नहीं आ रहा कि गलती किसकी है – पुलिस की या सिख ऑटो ड्राइवर की? ऐसे में ज़ी न्यूज़ के ब्यूरो चीफ (जीतेन्द्र शर्मा) ने इस मामले से जुड़े 4 वीडियो ट्वीट कर इस घटना के बारे में चीजें साफ़ करने की कोशिश की। उनके द्वारा ट्वीट किए गए पहले वीडियो में दिख रहा है कि पुलिस वाले टेम्पो ड्राइवर की पिटाई कर रहे हैं। आरोप है कि पहले तो ड्राइवर ने पुलिस की गाड़ी को टक्कर मारी, उसके बाद तलवार से हमला कर दिया। इसके बाद पुलिस ने एक्शन लिया।
घटना का पहला विडियो।विडियो में साफ दिख रहा है कि किस तरह टेम्पो चालक तलवार से पुलिसवालों को धमका रहा है और जब पकड़ने की कोशिश की जाती है तो तलवार से एक पुलिसकर्मी को घायल कर देता है। pic.twitter.com/ZA7SAnqS8c
इसके बाद जीतेंद्र शर्मा ने ट्वीट किया उस वीडियो को, जो इस घटना से पहले का है, यानी पुलिस द्वारा ड्राइवर की पिटाई से पहले का। इस वीडियो में दिख रहा है कि टेम्पो चालक तलवार निकाल कर पुलिस वालों को धमकी भरे अंदाज में कुछ कह रहा है और फिर एक पुलिस वाले पर तलवार से वार भी करता है। इस वीडियो में सभी पुलिस वाले उसके तलवार से बचते दिख रहे हैं और उसे पकड़ने की कोशिश कर रहे हैं। इसके बाद तीसरे ट्वीट में जो वीडियो है, उस में कुछ सिख समुदाय के लोग पुलिस वाले को खदेड़ते नज़र आ रहे हैं, क्योंकि वह ड्राइवर सिख था।
टेम्पो चालक के साथ पिटाई के विरोध में रात में सड़कों पर आये सिख समुदाय का एक और वीडियो। मुखर्जी नगर थाने के बाहर इलाके के ACP के साथ किस तरह मारपीट कर रहे है। विरोध करने का भी एक तरीका होता है और अपराध को मजहब के चश्में से ना देखें। pic.twitter.com/47xVfpA6PC
इस वीडियो में लोग पुलिस अधिकारी पर पत्थरबाज़ी करते दिख रहे हैं। इस पूरे मामले में तीन पुलिस वालों को सस्पेंड किया जा चुका है। जीतेंद्र शर्मा ने लिखा कि उक्त ड्राइवर को छोड़ दिया गया है। अंतिम वीडियो में लोगों द्वारा एक एसीपी को खदेड़ कर उसकी पिटाई की जा रही है। आप इन चारों वीडियो को देख कर इस घटना का क्रमानुसार अंदाजा लगा सकते हैं कि क्या सब हुआ और क्या नहीं।
इन वीडियो में यह भी दिख रहा है कि अपने पिता को पुलिस से उलझता देख टेम्पो ड्राइवर के बेटे ने पुलिस पर गाड़ी चढ़ाने की कोशिश भी की। मामले पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने लिखा कि नागरिकों की रक्षा करने वालों को हिंसक भीड़ जैसा व्यवहार करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। उनका इशारा दिल्ली पुलिस की तरफ था। उन्होंने इस घटना को दिल्ली पुलिस की क्रूरता करार दिया। इस घटना में ड्राइवर से झड़प के दौरान एक पुलिसकर्मी घायल भी हुआ है।
दिल्ली पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी मामले की जाँच कर रहे हैं। इस घटना के विरोध में मुखर्जी नगर में रहने वाले सिख समुदाय के लोगों ने गाड़ियों में तोड़फोड़ की और पुलिसकर्मियों के साथ दुर्व्यवहार किया।
‘लैला’ नेटफ्लिक्स पर 14 जून को रिलीज हुआ, हिन्दूफ़ोबिया जैसे नैरेटिव को और मजबूत करने एवं आगे बढ़ाने की एक और लीला ही है। ‘लैला’ प्रयाग अकबर की इसी नाम से लिखी एक नॉवेल से अडॉप्टेड है, जिसे किताब से हटकर ठीक-ठाक घालमेल करते हुए अलग आयाम तक ले गई हैं इस शो की निर्देशिका और क्रिएटिव डायरेक्टर दीपा मेहता। दीपा मेहता ‘वॉटर’ और ‘फायर’ जैसी फिल्मों के कारण पहले से ही अपनी हिन्दू संस्कृति विरोधी विवादस्पद पहचान बना चुकी हैं। इस सीरीज पर और इसमें इस्तेमाल हिन्दूफोबिक अजेंडे पर विस्तार से बात करने से पहले एक छोटी सी यात्रा पर आपको ले चलते हैं कि क्यों ऐसे टीवी शो या वेब सीरीज और फिल्मों की अचानक से बाढ़ आ गई है? कौन-कौन हैं इस पूरे नैरेटिव और सनातन या हिंदुत्व को बदनाम करने वाले महानुभाव? आखिर किसने इनकी दुखती रग पर हाथ नहीं बल्कि लात रख दिया है कि यह पूरा इकोसिस्टम अपनी पूरी ताकत के साथ जी-जान से जुट गया है इस देश, इसकी वास्तविक पहचान और इसकी सांस्कृतिक अस्मिता में पलीता लगाने के लिए…
स्वर्णिम काल: वामी गिरोह के पतन की शुरुआत!
2013 से पहले का समय मानो इस देश का स्वर्णिम काल था! बेशक तब आए-दिन दंगे, मॉब लिंचिंग, भयंकर भ्रष्टाचार, महिला सुरक्षा से लेकर स्वच्छता-सफाई और विकास, चाहे वह इस देश के गरीब आम और खास तबके का हो या फिर नवीन इंफ्रास्ट्रक्चर का – यह सब मुद्दा था ही नहीं। तमाम वामी-कामी बुद्धिजीवी, लुटियंस पत्रकार, ‘निष्पक्ष’ पक्षकार, नेता और छद्म आंदोलनकारी सब की बढ़ियाँ छन रही थी। सब मलाई काट रहे थे। चारों-तरफ आनंद ही आनंद था। लेकिन तभी अचानक से नए-पुराने पाप प्रकट होने लगे, एक के बाद एक घोटाले सामने आने लगे, निर्भया के बलात्कार और निर्मम हत्या ने अचानक से उस बुलबुले को फोड़ दिया जो उस समय तक के मलाई काटने वालों ने बनाया था।
‘हिन्दू आतंकवाद’ से लेकर, राष्ट्रवाद और इस देश की तरक्की के बारे में वास्तविक धरातल पर कुछ सोचना; सबको या तो बेहद बदनाम कर दिया गया था या गाली बना दी गई थी। किसने किया यह सब, आप सबको पता है क्योंकि बाद में उस खेल के सभी किरदार खुल कर बाहर आ गए। जनता को उस माहौल में जो गड़बड़ी थी वो साफ़ नज़र आ गया था। निर्भया के बाद अन्ना आंदोलन ने बहुतों को मुखर कर दिया, देश उनके लिए सर्वोपरि होने लगा। राष्ट्र के प्रतीक विरोध का सिंबल बन गए। कॉन्ग्रेस के हाथ से सत्ता छिटकने की सुगबुगाहट हो चुकी थी। सच में उस समय देश भयंकर पीड़ा में कराह रहा था, ऐसे में दिल्ली में केजरीवाल उभरे (जिन्होंने अपनी बाद की हरकतों से आंदोलन और प्रतिरोध जैसे सशक्त हथियारों की धार को इतना कुंद कर दिया कि अब मात्र ‘आत्म मुग्ध बौना’ होना ही इनकी पहचान रह गई है) तो गुजरात से चले मोदी ने जब ‘कॉन्ग्रेस मुक्त भारत’ का नारा दिया तो उसमें बहुतों को उम्मीद की किरण नज़र आई लेकिन पूरे कॉन्ग्रेसी-वामपंथी इकोसिस्टम ने इसे अपने अस्तित्व पर खतरे के रूप में पहचान लिया और फिर शुरू हुआ ‘दक्षिणपंथी ताकतों’ के उभार के नाम पर ‘काल्पनिक डर’ फ़ैलाने और बेचने का कारोबार और इसमें वो सब लग गए जिनकी आने वाले समय में बैंड बजने वाली थी। चूँकि, वो ‘बुद्धिजीवी’ थे इसलिए वो भलीभाँति समझ गए कि अब उनके लिए ‘अच्छे दिन’ नहीं बल्कि मुश्किल भरे दिन आने वाले हैं।
2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी के नेतृत्व में बीजेपी सत्ता में आई और फिर खेल का दूसरा भाग शुरू हो गया, जहाँ यह पूरा इकोसिस्टम किसी एक व्यक्ति से विरोध और नफ़रत के नाम पर राष्ट्र और इसके सभी प्रतीकों के खिलाफ गाली बनाने में जुट गई, मोदी को हिंदुत्व का प्रतीक मान हिंदुत्व के नाम पर पूरी ‘सनातन संस्कृति’ को बदनाम करने में लग गई। तमाम तरह के गल्प और अपनी उर्वर काल्पनिकता को विभिन्न माध्यमों, चाहे वो किताब हो, टॉक शो, फिल्म या सीरियल के रूप में इस तरह परोसा कि जैसे उनका दिखाया हुआ ‘नकली डर’ वास्तविक हो और जो सामने विकास या तरक्की दिखनी शुरू हुई है वो सब ‘नकली’ है, मात्र एक छलावा। लेकिन पूरे इकोसिस्टम की पहले और बाद की दोनों भविष्यवाणियाँ, सर्वे, आँकड़ो के रूप में गणितीय लफ्फबाजी सब फेल होने लगे, पूरा इकोसिस्टम फेल होने लगा, इनका हर प्रोपेगेंडा फेल होने लगा और ये सिलसिला 2019 के चुनावों तक लगातार चलता रहा। इस बार भी आपने देखा-समझा-जाना कि कैसे इस पूरे नेक्सस ने जो सामने है, उसे नकारकर काल्पनिक डर दिखाकर, जाति-धर्म, विभेदीकरण में खुद लिप्त होकर, आरोप हिंदुत्व या दक्षिण पंथ पर लगाते रहे। लेकिन जनता ने सब कुछ ख़ारिज कर दिया।
उसी समय मई में ही इस शो ‘लैला‘ का ट्रेलर रिलीज हुआ था जिसका ट्विटर से लेकर सोशल मीडिया पर भयंकर विरोध हुआ, शो शायद चुनाव से पहले ही रिलीज होता लेकिन उस समय चुनाव आयोग जिस तरह से बाकी वेब सीरीज पर प्रतिबन्ध लगा रहा था, शायद इसे भी रोक देता। तब इसका रिलीज डेट 14 जून तय किया गया था। विरोध स्वरूप नेटफ्लिक्स के इस शो के ट्रेलर को सबसे ज़्यादा लोगों ने डिसलाइक किया था। ऐसा करके भी लोगों ने इसे चर्चा में ला दिया।
चुनाव परिणाम के बाद: लुटे-पिटे वामी-कामी काम पर लग गए
चुनाव परिणाम में संयोग से इस पूरे नेक्सस के मन का कुछ भी नहीं हुआ अब शायद यह पूरा इकोसिस्टम और आक्रामक होकर हमला करे और ‘लैला’ तो बस एक शुरुआत भर हो। क्योंकि आज भी तमाम संस्थानों और शक्तिशाली जगहों पर इस गिरोह का ही कब्ज़ा है और अब डर बेचकर अपनी दुकान चलाना इनका मुख्य व्यवसाय। आज ‘लैला’ कुछ और नहीं बल्कि उसी काल्पनिक डर का विस्तार है। जो आपको एक बार फिर से क्रिएटिव लिबर्टी और कलात्मकता के नाम पर एक डिस्टोपियन इंडिया ‘आर्यावर्त’ (एक ऐसा काल्पनिक समाज जो बेहद अमानवीय और अराजक है) की रूप रेखा पेश कर डराने और अपनी गौरवशाली सनातन परम्परा और सांस्कृतिक प्रतीकों के साथ तमाम तरह की नकारात्मकता और नफ़रत को शामिल कर एक ऐसी खिचड़ी परोसने की कोशिश है। जिसे आप खाएँगे तो अच्छे स्वास्थ्य या मनोरंजन के नाम पर लेकिन यह धीमी ज़हर के रूप में, आपकी सेहत ख़राब करने वाली है।
आपका दिमाग उन काल्पनिक समस्याओं में उलझ जाने वाला है जिसकी आने वाले समय में संभावना न के बराबर है। क्योंकि यह पूरा गिरोह एक ऐसे समाज और संस्कृति को लगातार बर्बर, अराजक, आक्रामक और अत्याचारी के रूप में परोसने में लगा है, जिसका कभी ऐसा कोई इतिहास ही नहीं रहा, इसलिए बड़ी चालाकी से ऐसे भविष्य की कल्पना कर लगातार डराने की कोशिश की जा रही है। ऐसा करने का एक और खास मकसद जो है वह आतंक, नक्सलवाद या दूसरे समुदाय विशेष या ऐसे कौम की उन वास्तविक समस्याओं से मुँह मोड़ लेना है, जो समस्याएँ वास्तव में न सिर्फ हैं, बल्कि वर्षों से पूरी तीव्रता से समाज का हिस्सा बने हैं, इसे खोखला कर रहे हैं। लेकिन यह इकोसिस्टम अपने फायदे के लिए हमेशा से उसे नकारता रहा या उस पर बात करने से कतराता रहा। क्या इस पर आगे बात होगी? पता नहीं, फ़िलहाल, डिस्टोपिआ क्या है उसकी एक झलक देखें…
अब सीधे-सीधे बात कर लेते हैं नेटफ्लिक्स इंडिया के 14 जून से प्रसारित इस वेब सीरीज ‘लीला’ की। कहने को यह शो प्रयाग अकबर के 2017 में प्रकाशित नॉवेल ‘लैला’ पर आधारित है, जिसमें कथ्य के लिए तथ्य कम लेकिन ‘डर का माहौल है’ वाली नैरेटिव के माध्यम से जो कहने की कोशिश नेटफ्लिक्स, निर्देशक दीपा मेहता, शंकर रमन (गुरगाँव फेम) और पवन कुमार के साथ ही स्क्रीन प्ले राइटर उर्मि जुवेकर ने किया है। इसके मुख्य किरदारों के रूप में हैं हुमा कुरैशी (जो कठुआ काण्ड में पूरे हिन्दू धर्म को दोषी मानते हुए सोनम, स्वरा के साथ प्लाकार्ड गैंग की हिस्सा थीं), सिद्धार्थ (कुछ दिन पहले ही मोदी के प्रति नफ़रत के कारण ट्विटर में छाए हुए थे), राहुल खन्ना, संजय सूरी और आरिफ ज़कारिया। इन किरदारों के माध्यम से पूरे ‘हिन्दू विरोधी नैरेटिव’ को परोसा गया है। इकोसिस्टम द्वारा पहले से ही चली आ रही हिंदुत्व, इसके प्रतीकों और अपने गौरवशाली परम्परा के प्रति नफ़रत और हीनताबोध से भर जाने या भर देने का एक और प्रयास है ‘लैला’।
कहानी आपको ‘2047’ (हाल ही में बीजेपी के 2047 तक सत्ता की बात चर्चा में थी) के डिस्टोपियन भारत “आर्यावर्त” में ले जाती है। सीरीज चूँकि, दिल्ली में शूट हुई है तो आप इसे बड़ी आसानी से पहचान सकते हैं कि इस सीरीज का मकसद किस भारत और किस सत्ता के प्रति डर बैठाना है।
देश या राज्य की बात करें तो वह है ‘आर्यावर्त’, राज्य का नारा है ‘जय आर्यावर्त’ जो हिटलर के नारे से मैच करता है ‘Hail Hitler’ अर्थात जय हिटलर। और मुखिया हैं जोशी जी, जो ‘शुद्धतावादी’ समाज के पक्षधर हैं। जो राज्य में पूजनीय हैं और जनता उनकी भक्त। कहानी आपको एक ऐसे भारत में ले जाती है जहाँ लोगों को जाति-धर्म-संप्रदाय के नाम पर अलग-अलग सेक्टरों में रखा जाता है, भाषा जहाँ संस्कृतनिष्ठ है, प्रदूषण अपने चरम पर है। पीने के पानी के लिए चारों तरफ हाहाकार मचा है। पानी खरीदना, बेचना या बाँटना अपराध है, राज्य की तरफ से कभी-कभी पानी मिलता है। नॉनवेज बैन है। हर तरफ अराजकता का माहौल है, कानून व्यवस्था के नाम कुछ भी नहीं बचा है राज्य में, पत्रकारों को लेबर कैंप में रखा जा रहा है या जान से मार दिया जा रहा है। बुद्धिजीवी-प्रोफेसरों की मॉब लिंचिंग हो रही है। ‘दूश’ अर्थात अछूतों से कोई भी सम्बन्ध रखना मना है। महिलाओं पर अमानवीय अत्याचार हो रहे हैं। चाइल्ड लेबर खूब हो रहा है, मिक्स्ड बच्चों को पिजरों में कैद कर रखा जा रहा है। शिक्षा के नाम पर भक्त बनाकर राज्य उनका ब्रेन वाश कर रहा है। एक तरफ घेटोज और स्लम्स की भरमार है अर्थात गरीबी बहुत ज़्यादा है तो दूसरी तरह अमीर वर्ग बेहद सुविधा संपन्न है जो आर्यावर्त का हिस्सा है।
ऐसे में एक हिन्दू लड़की शालिनी पाठक (हुमा कुरैशी) मुस्लिम लड़का रिजवान (राहुल खन्ना) से निकाह कर लेती हैं। चूँकि, दोनों में प्यार है और उनका परिवार उस अराजक और अत्यधिक प्रदूषित माहौल में भी आलीशान और बेहद ऐसो-आराम की ज़िन्दगी जी रहा है। जहाँ एक तरफ पीने का पानी नहीं है वहीं यह परिवार चोरी से टैंकर माफियाओं से राज्य का पानी खरीद कर स्वीमिंग पूल जैसी लग्जरी अफोर्ड कर पा रहा है। बेटी ‘लैला’ अपने पापा रिजवान के साथ स्वीमिंग पूल में नहा रही है तभी आर्यावर्त राज्य का एक सिपाही डॉ राकेश (जिसका काम मिक्स बच्चों को मार देना या उन्हें बेच देना है, वह जोशी का एक सिपाही है) वहाँ आता है और सब कुछ तहस-नहस हो जाता है। बेटी ‘अशुद्ध’ क्योंकि हिन्दू-मुस्लिम के मिक्स्ड ब्लड की है, होने के कारण गायब कर दी जाती है, रिजवान को हिंदूवादी ताकतें भीड़ की शक्ल में जान से मार देती है और शालिनी को शुद्धिकरण कैंप ‘श्रम केंद्र’ भेज दिया जाता है। जहाँ की सुरक्षा और व्यवस्था की कमान ‘हिजड़ों’ के हाथ में है।
यहाँ उसे बेहद नारकीय जीवन से गुजरना पड़ता है। न जाने कितनी माँओं से उनकी अशुद्ध बच्चों को अलग कर दिया गया है। शालिनी इसी कैंप में रहते हुए अपनी बेटी की तलाश में निकलती है, उसकी पूरी कोशिश अपनी बेटी ‘लैला’ तक पहुँचने की जद्दोजहद है और इसी के इर्द-गिर्द बुनी गई है डिस्टोपियन इंडिया ‘आर्यावर्त’ की कहानी। इस कैंप में दिन-रात एक धुन बजती है…
मेरा जन्म ही मेरा कर्म है… मेरा सौभाग्य है कि मैंने इस धरती पर जन्म लिया। आर्यावर्त के लिए जान देना और जान लेना मेरा कर्तव्य है। भले ही वो जान मेरे बच्चे की क्यों न हो!
इसके माध्यम से यह दिखाने का प्रयास है कि यदि हिंदुत्ववादी ताकतें सत्ता पर इसी तरह हावीं रहीं तो यह देश खासतौर से मुस्लिमों और अन्य समुदायों के लिए रहने लायक नहीं होगा, अछूत पर होगा भयंकर अत्याचार, जिसे इस सीरीज में ‘दूश’ के रूप में दिखाया गया है। कहने का मतलब, सब कुछ निकट भविष्य में बेहद ख़राब होने जा रहा है। पूरा ताना बाना इस तरह बुना गया है जिससे आप पिछले कुछ सालों में हुई छिटपुट घटनाक्रमों के माध्यम से खुद को कोरिलेट करते हुए उस डर की दुनिया से खुद को इस तरह से जोड़ लें जिस तरह से इकोसिस्टम आपको दिखाना और डराना चाहता है। बड़ी चालाकी से इसमें उम्मीद की किरण भी है और वो हैं ‘विद्रोही’ (एक तरह से आतंकी या वामपंथी नक्सली कह लें) जो जोशी जी को मारने के लिए नरसंहार के लिए भी तैयार हैं। एक और ट्वीस्ट है इसमें, आर्यावर्त में भी ‘संघ’ की तर्ज पर एक और सत्ता का केंद्र दिखाया गया है और इनके बीच थोड़ा सा मनमुटाव भी, जिसके मुखिया हैं मोहन राव।
खैर, इस तरह की हरकतें न वामपंथियों के लिए नई हैं और न भारत विरोधी पूंजीवादी ताकतों के लिए, जिनके बीच बाहर भले खटपट दिखे लेकिन अंदर साँठ-गाँठ तगड़ी होती है। और इसी गठजोड़ का नतीजा है, पिछले काफी समय से ऐसे कई सीरीज का नेटफ्लिक्स पर रिलीज होना। नेटफ्लिक्स ने कई बार हिन्दू भावनाओं से खिलवाड़ किया है। हिन्दुओं की छवि और उनके प्रतीकों को नकारात्मक तरीके से पेश किया गया है। नेटफ्लिक्स और पूरे इकोसिस्टम की लगातार प्रवृत्ति रही है – एंटी हिन्दू नैरेटिव को स्थापित करने की। ‘Ghoul’ और ‘Sacred Games’ के बाद ‘लैला’ के संयुक्त रूप में यह उनका तीसरा प्रयास है। कहने को ‘लैला’ भविष्य की काल्पनिक कहानी है पर इस सीरीज में इस्तेमाल हुए प्रतीकों, विज़ुअल्स, शब्दावली आदि से इस गिरोह की मानसिकता साफ पता चलती है और रही सही कसर गिरोह के तमाम फिल्म समीक्षकों ने पूरी कर दी। रिव्यु में बिलकुल साफ़ कर दिया गया है कि जो इस दौर में चल रहा है, इसका भविष्य यही है।
अब आते हैं असली मुद्दे पर, यह सब जो भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और क्रिएटिव लिबर्टी के नाम पर हो रहा है, उस पर। जिस तरह से हिन्दुओं की भावनाओं से खिलवाड़ किया जा रहा है, उसकी वजह क्या है? जिस तरह से काल्पनिक डर का माहौल और ‘डरे हुए मुस्लिम’ की छवि को बार-बार परोसा जा रहा है – बात इस पर करते हैं। इसके पीछे के एजेंडा को समझना इतना मुश्किल नहीं है। बाजार बेशक एक ताकत के रूप में यहाँ मौजूद है लेकिन इस बाजार के ग्राहक कौन हैं? किसके दम पर नेटफ्लिक्स जैसी ताकतें भारत या आने वाले भारत की ऐसी नकारात्मक छवि को इस तरह से पेश कर पा रही हैं?
क्या इसकी सबसे बड़ी वजह हमारी सहिष्णुता नहीं है। हम सब-कुछ देख सुन कर भी मौन रहते हैं। कभी उतनी सशक्तता से एकजुट हो अपना विरोध भी नहीं जता पाते कि नेटफ्लिक्स और इनके पीछे छिपी राष्ट्र विरोधी ताकतों का हौसला पस्त हो। इसी नेटफ्लिक्स को सऊदी अरब सहित कई देशों से वहाँ के विरोध में बनाए गए कई शो को वेबसाइट से हटाना पड़ा। वहाँ की सरकारों ने सीधे इसे बैन कर दिया लेकिन अगर यहाँ की सरकार ऐसा कोई कदम उठाए तो यह पूरा कॉन्ग्रेसी, वामपंथी, अर्बन नक्सल गिरोह एक्शन में आ जाएगा। इनके गिरोह का ही कोई सुप्रीम कोर्ट जाएगा और अभिव्यक्ति के नाम पर अपने पक्ष में फैसला ले आएगा।
तो, इस तरह के प्रोपेगेंडा को काटने का या इनको ऐसा करने से रोकने का कारगर उपाय क्या हो सकता है? सबसे आसान उपाय है दर्शक जिन्हें राष्ट्र और वहाँ के लोगों की उन्नति प्यारी हो वो अपने स्तर पर ऐसे शो का पूरी तरह बहिष्कार करें। दो-चार बार भी ऐसा हो गया तो कितना भी बड़ा पूँजीपति हो ऐसे गिरोहों और ऐसे हिदुत्व विरोधी कंटेंट में पैसा लगाने से कतराएगा। याद रखिए, यह बड़ी लड़ाई का हिस्सा है, देश के टुकड़े करने का इनका सपना मरा नहीं है। बस कहीं दुबका पड़ा है। ये हर माध्यम से देश के बच्चों और युवाओं में काल्पनिक डर, दहशत और झूठ का ज़हर बो रहे हैं ताकि एक दिन ये इस देश की चिता पर जश्न मना सकें, अट्टहास कर सकें।
इनके हर झूठ को बेनकाब कीजिए, इन्हें पढ़िए, तर्कों से घेरिए, इनसे सवाल पर सवाल कीजिए, इनके हर नैरेटिव की लंका लगा दीजिए। इनसे पूछिए कि क्यों ऐसे स्टोरी-टेलर और पूँजीपति हलाला, तलाक या आतंकवाद या समुदाय विशेष पर खुलकर कुछ नहीं कह पा रहे, कुछ बना नहीं पा रहे? यहाँ तो काल्पनिक डर का माहौल दिखा रहे हैं वहाँ तो सब कुछ सामने है। है हिम्मत, नक्सल आतंकवाद, अलगाववाद पर कुछ बोलने, लिखने या दिखाने की। यह दुबक के पतली गली से निकल लेंगे या आपको भक्त, वॉर मोंगर, गंगा-यमुनी तहज़ीब के खिलाफ अनेक विशेषणों से नामाजेंगे तब समझ जाइएगा, तीर निशाने पर लगी है। कभी अगर ऐसे विषयों पर फ़िल्में बनती भी है तो ज़रा ध्यान से देखिए कैसे बड़ी चालाकी से उसमें भी वो अपना नैरेटिव सेट कर जाते हैं और आपको पता भी नहीं चलता।
चलते-चलते ‘लैला’ में बड़ी आसानी से क्रिएटिव लिबर्टी लेते हुए पूरे कथानक को ऐसे प्रदर्शित किया गया है जिससे ज़्यादा से ज़्यादा ख़राब तरीके से हिंदुत्व की छवि को बिगाड़ा जा सके। ‘आर्यावर्त’ से मुस्लिम समुदाय का लगभग सफाया हो चुका है। जो बचे हैं उन्हें स्काईडोम अर्थात गगनचुम्बी तकनीकी दीवारें बनाकर बिलकुल अलग-थलग कर दिया है। नृत्य, गीत, संगीत, पोएट्री, पेंटिंग सब पर बैन लग चुका है आर्यावर्त में, बस 2047 में भी ज़िंदा हैं तो फैज अहमद फैज़ और उनकी सत्ता विरोधी पोएट्री। ऐसा दिखाकर बड़ी आसानी से वो सब परोस दिया गया जिसका डर ये पिछले पाँच साल से दिखाते आ रहे हैं।
पश्चिम बंगाल में डॉक्टरों द्वारा 10 जून से जारी हड़ताल के अब खत्म होने के आसार दिख रहे हैं। जूनियर डॉक्टरों पर किए गए हमले के बाद लगातार हो रहे विरोध प्रदर्शन के बाद आज सीएम ममता बनर्जी और डॉक्टरों के बीच बैठक चली। सचिवालय में हुई बैठक में डॉक्टरों की बात ममता तक पहुँचाने के लिए डॉक्टरों के प्रतिनिधिमंडल पहुँचे। बंगाल में 14 मेडिकल कॉलेज हैं और ममता बनर्जी प्रत्येक मेडिकल कॉलेज के दो-दो प्रतिनिधियों से मिलीं।
West Bengal Chief Minister Mamata Banerjee has accepted the proposal of doctors to set up Grievance Redressal Cell in Government Hospitals. https://t.co/h3mGR0s5cB
इस दौरान डॉक्टरों ने मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में उन्हें हो रही दिक्कतों से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को अवगत कराया। जानकारी के मुताबिक, ममता बनर्जी ने सरकारी अस्पतालों में शिकायत निवारण सेल का निर्माण करने के डॉक्टरों के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है। ममता ने पश्चिम बंगाल के हर अस्पताल में नोडल पुलिस ऑफिसर तैनात करने का निर्देश दिया है।
ममता ने आंदोलनरत जूनियर डॉक्टरों के साथ बैठक में कहा कि राज्य सरकार ने किसी भी डॉक्टर के खिलाफ मामला दर्ज नहीं किया। उन्होंने कहा कि सरकार ने डॉक्टरों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त कदम उठाए हैं। एनआरएस अस्पताल में हुई घटना में कथित तौर पर लिप्त 5 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। हालाँकि, पहले ममता कैमरे के सामने लाइव बैठक करने के लिए मना कर रही थीं, लेकिन फिर मान गईं। केवल दो क्षेत्रीय न्यूज चैनलों को राज्य सचिवालय में बनर्जी और जूनियर डॉक्टरों के बीच हुई बैठक को कवर करने की अनुमति दी गई।